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हिमांशु जमदग्नि की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Jun 8
  • 6 min read




विषाद-स्वाद


वर्तमान में जब-जब दुख बढ़ा,

अतीत-दुख सुख लगा।

सूखा विषाद—प्यास से गला,

गले का सूखापन, आँखों का गीलापन—

बढ़ते रहे एक-दूजे के अनुकूल।


जीवन का प्रतिकूल

विषाद का स्वाद—

मैं थूक नहीं पाता,

पर मुझ पर थूका गया।

प्रत्येक रात्रि—स्वप्न-संघर्ष,

मन-उपज धौळेकपाडियों द्वारा।


मैं हत्या करता, लाशें ढोता,

टोहता पास-फेल का बेरा

लाना वाले कीटों को,

खाता मीठे सहतूतों को।

पीत धरती पर लामणी करते हुए,

जूण बनाते हुए हँसता—

अपनी जूण पर।

काँधे पर रख पूळी,

देखता आने वाली जून—

सूरज के पीछे छिपी हुई।


वो दबे पाँव आता है मेरे कमरे में,

निगलकर सूरज उगलता है अंधेरा।

बैठता मेरे दीवान पास,

बन दीवान, माँगता दीवान।

ना देने पर, न्योता देता

देह दीवानों को—

देह में से देह नोचने के लिए।

घबरा कर याद करता हूँ

अपने देह को, देह भरे हुए।


बिलखते हुए मैं जागता हूँ,

माँगता हूँ बनकर भिखारी—

अरस्तू से मुक्ति की भीख।

“जीवन त्रासदी कहाँ विरेचन?”

भागता हूँ भरत-पुत्रों की ओर—

“भरत पुत्रो, मेरी रक्षा करो!

मैं भी विद्या हूँ,

धरती का मेरुदंड बने लोगों की।“



थळी-कवि


मैं थळी का कवि मुझे नीर नसीब नहीं 

थळी मही तले मेरा चश्मा  खो गया


बिटौड़े पर बैठ मोर गाते नहीं 

रोते हैं एक रंग में अपना दुख

लोभा नूणी मही पर  खोजती है

नम नाज़ुक गरम हथेली गोया सुख


ईंट उगाती तितली के स्तनों पर दाग

ठेकेदार नाख़ून गाड़ कर बो गया


तितली को इंसाफ नहीं, मिली विवशता

गालों पर लाली नहीं, आयी दासता

मौत के खरड़ पर लेटी हुई 

भूखी मसान  में सेंकी हुई


गामों का नाद सदियों पहले‌‌ खो गया

मेरे हिस्से आयी केवल कुरूपता 


मैं शब्दों से कुरुपता का ढेर बनाता हूँ

तीखे घाम से उपड़ी पड़ी ताश पीठ पर

ढोता हूँ गिराता हूँ‌ जलाता हूँ

खैराती हाडों पर राख रमाकर


मेरी बेउम्मीद पीड़ा सुन मेघ रो सकें 

बिलखें गरजें बरसें एक धुन‌ में मुसलधार


उगा सकूँ पका सकूँ काट सकूँ

अविज्ञात प्रेमियों हेतु पुष्प



पहचान


उस को मैंने कहा —

बात करने का समय नहीं है 

ये जानते हुए समय न शाश्वत है 

न भौतिक है

समय कल्पना है 

और मैं कल्पनाशील कवि


नपुंसक पुरुष प्रेम अधिकारी नहीं होते

कहा ये मेरी कल्पना ने संभोग पश्चात 

नौ से पांच पत्थर चुगते हुए 

मैं जब-जब कुम्हलाता

मुझे डर लगता समुद्री शेरों से 

मेरी पहचान उन्हीं की देन


मैं छिप जाता हूँ उनसे 

अज्ञात मेट्रो स्टेशनों पर

सायरनों और युगलों के शोर की आवाज़ 

कभी नहीं रोक पाती आँखों के आंसू

मेरी पलकों ने हमेशा शिकायत की

तुम्हारे आँसू अत्यधिक भारी हैं

 

जिस, जिससे मैंने प्रेम किया

उन्होंने यही कहा तुम्हारा बोझ उठाए नहीं उठता

कुंठा परिणाम स्वप्नों में मैं जूझता

गरजता, लरजता, बरजता

मुझ पर मोहर लगाने वालों को

उस मोहर से मैं गामी बना

गामी सांड नहीं गामी बळद

थक गया हूँ खेत जोतकर

मुझे पहचान देने‌‌ वालो

मुझे क्षमा करो



महामानव तुम सामंती हो 


महामानव तुम सामंती हो 

कथित लोकतांत्रिक समाज में 

पलायन करते अमीरों ने

भागते मध्यवर्गीयों ने

रेंगते ग़रीबों ने 

किया है तुम्हारा पोषण 

खोपड़ी में बंद सोच को 

पेट के बदले बेचकर 


खड़े होकर क़िले पर

तुमने, हर बार बड़ी-बड़ी गल्प कही 

भिज्ञ हो, भीड़-पास विकल्प नहीं 

सिंहासन समक्ष झुकी भीड़ को दी है 

प्लेसिबो बनाकर आस्था 

शवों के ढेर पर खड़े होकर कहा 

“शहीद हुए तुम श्रद्धा के लिए”

दुर्घटना को बताया परंपरा 

पेट बल चलती जनता के लिए 

तुम्हारे हित तले कुचले लोगों को मिला मोक्ष

  या

तुम्हारे अमात्य भरते रहे हैं लहू से अपना धन-कोश 


इसमें से क्या सत्य मालूम नहीं 

बात सत्य वही जो पी.आर. संस्था ने कही 


क़िले से दस मील दूर 

सड़ती गलियों में बसी हैं बस्तियांँ

कबूतरों का कहना है 

“यहाँ हर रात काल गश्त लगाता है 

खा जाता है उन‌ सृपों के सर 

जो कोतवाल के ख़िलाफ़ जाने वाले थे”


काल-भय से गूंगी हो चुकी हैं गलियाँ

गलियों में खेलती गिलहरियों को 

पढ़ाया गया क़ा’इदे में “माँ हैं उनकी नदियाँ”

गिलहरियाँ माँ का दूध पीकर मर गई 


सर फोड़कर मरी 

कूड़ा बनकर सड़ी 

कूड़ा बीनने वाले चीलें 

श्वास उनके आवश्यक नहीं 

आवश्यक नहीं हर उस जीव की उपस्थिति 

कमज़ोर है जो, तुम्हारे मानवीय मापदंडों में 

कुरूप है जो, तुम्हारे सौंदर्यशास्त्रों में 


मरने पर लकड़बग्घों के‌ 

नहीं रोए, नहीं रोए घड़ियाल के गिड़गिड़ाने पर

हँसे हिरन-शावकों के मारे जाने पर 

काटकरेळियों के रंग लगे झूठ

कांगो की आवाज़ लगी गले का थूक 

सियारों को कहा “धूर्त”

गीदड़-भभकी को कहा “कायरता”

खरीज समझा हर वो जीव

जो सहिष्णु जान‌ पड़ा


परोपकारी तुम हत्यारे हो

तले तुम्हारे उपकार के दबकर

मर गई तमाम शैशव‌‌ सभ्यताएं 

जो अभी-अभी माँ बोलना सीखी थी

नहीं था शऊर उन्हें 

जीवन जीने का

मानव होने का

तपेदिक थे वे तुम्हारे अनुसार 

दुनिया के लिए 

  या

फिर तुम्हारे लिए?


हे! कथित आदिनाथ 

हठ कर बैठे हो 

हठ सूर्य और चंद्रमा नहीं तुम्हारा

है सरीसृपों का हत्यारा 

विभिषिका का पर्याय 

जिजीविषा का काल

उतार दो ये व्याघ्र खाल

तुम्हारे हठ की गति

तुम्हारी मति की ज्यों सर्वनाश है 

महामानव तू वरदान नहीं अभिशाप है



बेताल‌


मैं अधमरा, ज़मीन पर गिरा बेताल

माँग रहा हूँ मैं, अपने लिए ताल।

मुझे ताल‌ दो, दो मुझे तबले‌ के स्वर

भर‌ दो नीरव गले में संगीत-भँवर,

भय-मौत मरे सर्प-रुदन गले में भर।

गा सकूं, पुकार सकूं, कर सकूं आह्वान

भय-तात! कहाँ गये तथाकथित भगवान?

घायल कुत्ते की ज्यों रेंगते हुए,

पेट में घुटनों को समेटते हुए।

बेताल बड़बड़ाया, पर गा नहीं पाया 

कमरे की भीत पर लिखा हुआ नवगीत।

ताकती रही उसे एकटक भीत, रोया

गोया बछड़ा रोया अपनी माँ खोकर।


बेताल उठा, निकला कमरे से बाहर

आये देव करने को उसे गिरफ़्तार,

बेताल है कलाकार, सूखे चमन‌ का

रोगी है, भोगी है, इस आव-गमन का।

बेताल दौड़ा अंधे घोड़े की तरह

देखती रही उसे दिल्ली-ख़ूनी सतह,

पुकारती उसे खाली बासणों की कल्ह।

भटका-भटका पर ,अंधेरा संग चला

पहुँचा नगर की सबसे सुरक्षित जगह।

यहाँ शहर के समस्त अपराध आते हैं 

कानून का धूल भरा दामन ओढ़कर,

मर जाती यहाँ नैतिकता, गला घोंटकर 

चीखती टहनियाँ मानव-भक्षण देखकर।


कानों से टकराई पैरों की आवाज़ 

आवाज़ सुनकर, सहमकर छिपा बेताल

आये मानव चार, संग ले नग्न विचार।

अमात्यों को बाप बेच रहा‌‌ है औलाद,

बेताल बाप की अंतड़ियां गिन‌ सकता था

बेताल बच्ची की आँखें चूम सकता था,

बेताल थूक सकता था, अमात्यों पर कफ

जो था जन्म से ही उसके गले में बंद,

वो चाहता तो ये सब रोक सकता था,

प्रकृति के गुलाम ने अंधानुकरण किया

थू जिसे कहते हैं, वही जीवन जीया।

भागा-भागा पकड़ी ट्रेन भय में आकर 

किया मन शांत पेट में मुक्का मारकर।


बेताल हकलाया, दिल कंपकंपाया

नयन‌ भय से भर कर ,थूक गटक कर कहा–

“कहकशाँ के बाग़ीचे में खेल रही थी दुनिया

चोट‌ लगी है कोई उस पर पेशाब कर आओ”

गिरेबान पकड़कर टीटी ने बाहर फेंका

बेताल ज़मीन पर गिरा‌, पुनः हुआ अधमरा।

कृष्ण-गिरि भय तात में धंस रहा बेताल,

आदम, मनु की गूंज रही आवाज़ 

घेरा डाल हर आकाशगंगा के विक्रम,

बजा रहे हैं मिलकर, तबले पर‌ तीन‌ ताल 

केंद्र में भय मुद्रा में बेताल को दिखा बेताल।

सपाट सर नोच रही चील, पी रही फूटती पीप

गीली मही से वो‌ मूर्ति बनाता है ढहाता है।


बेताल ने किया दो मूर्तियों का निर्माण,

दोनों पकड़े हुए एक-दूसरे के कान।

एक है सावरकर, तो दूसरा है इक़बाल।

वो चीखा– “नहीं है ! ये कोई एब्सर्ड आर्ट,

है नंगा गिलगिला यथार्थ, मेरे ब्रह्मांड का

जिसे इक साँस में निगल गया भूखा कृष्ण छिद्र।

मेरे पित्र रोते रहे, टोहते‌ रहे ‌राह

खड़ा चौराहे कर फैलाये, कुछ ना‌ कर सका

ख़रीदें‌!  ख़रीदें ! ख़रीदें !  कोई मेरी  कला।

कर सकूं पिंड दान, मध्यवर्गीय अवसाद का 

बदहवास ब्रह्मांड का, जो भोगी होकर भोग बना”

मृत्यु का मौन गले‌ में भर,‌ ये सब बेताल ने कहा

दूजे ब्रह्मांड का बेताल धड़ाम गिरा कहाँ जन्मा कहाँ मरा।


शव पर चींटीयां चढ़ीं, नयन‌ नोच रहे बाज़

गले से लगा शव फूट-फूट रोया बेताल,

छाती में दर्द हुआ, गोया टकरा गई घाल

अमात्यों व देवों ने किया गिरफ़्तार बेताल।

बाल नोच नाख़ून फाड़े घसीट ले गए दरबार,

विश्व लीडरों व व्यापारियों  से भरा हुआ दरबार।

सिकंदर का वो आख़िरी जन‌ बैठा सिंहासन पर,

बोला –“ओ तथाकथित कम्युनिस्ट ! नीच कैपटलिस्ट!

तू है आंकड़ा ! आंकड़े की मौत मारा जाएगा,

गलियों में घूम रही गायों और बछड़ों की भांति,

शून्य होगी तेरी गति, तेरी मति को मैं भूनकर

खिलाऊंगा,भूखी श्रद्धा में लीन‌ इस जनता को।

तड़पेगी तेरी आत्मा, दिल्ली में कुचले सुणसुणिये की तरह।


दरबार गूंजा उठा तालियों से संसद की ज्यों,

काल ने सिर हिलाया विपक्षी दल लीडर की ज्यों।

उसकी आँखों में भी नाच रही थी सत्ता की भूख,

निगलना चाहती थी गुलाम वंश – अनुकरण का टूक।

तोड़े गए बेताल- हाड़, फेंका गया जमुना पार

राम बरसा जी तोड़कर, आषाढ़ की रात की तरह

बादल रोये आसमान में, भूखे बच्चों की तरह।

वाहन डूब चुके थे, सुणसुणियों के शव बह रहे थे।

कबूतर कह रहे हैं–“धरती अब भी भूखी है”

सूखी हैं, बूढ़े वट-तरुवर की सभी टहनियाँ।

जिसके नीचे बेताल बेहोश‌ पड़ा है,

सुबक-सुबक कर, रोए आठों पहर कौवे,

नित नंगें पांव दौड़ी रात, फिर जाकर खुली बेताल‌ की आँख।


सुनहरे सूखे बाल, सूखे अधर खुरदरे कर,

मैली पीली फ्रॉक पर खिले हुए सुर्ख़ गुलाब।

बेताल के माथे पर नन्हीं बच्ची ने फेरा हाथ,

वो मुस्कराया, बच्ची के कानों पर फूल‌ लगाया।

वो बच्ची थी, वही मजबूरी की बलि चढ़ी औलाद

आँखों में ठहरी थी युद्ध में मरे बच्चों की लाश।

बेताल बच्ची को बचा सकता था

बेताल अब ताल में गा सकता था

बच्ची को‌ गले‌ लगाया फूट-फूट कर गाया,

नयन‌ मूंदकर भीत पर लिखा हुआ वो नवगीत –

“मोर कबूतर काग इब भी गीत गा हैं 

मत रोवै बेटी दुनिया तेरी माँ है

टावर पै बैठी मैना कह लड़कै जिया जा है”





हिमांशु जमदग्नि एक युवा कवि हैं। उनकी कविताएँ पोएम्स इंडिया, हिन्दवी, सदानीरा और समकालीन जनमत पर  प्रकाशित हो चुकी हैं। वह हरियाणा के सोनीपत जिले के भैंसवाल गाँव से हैं और फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर कर रहे हैं। हिमांशु को पढ़ना, सुनना, देखना और शांति पसंद है।





1 Comment


Guest
Jun 08

वाह

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