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लखमीचंद की रागिनियां

  • golchakkarpatrika
  • Feb 8
  • 6 min read


लखमीचंद की रागिनियां
अनुवाद : हिमांशु जमदग्नि


लखमीचंद को हरियाणा का सूर्यकवि माना जाता है। लखमीचंद एक सांगी थे जो लेखन के साथ-साथ अभिनय, नृत्य और गायन भी करते थे।  सांग हिंदी शब्द 'स्वाँग' का अपभ्रंश है। उत्तरी भारत में हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्यों में प्रचलित सांग एक प्रकार की संगीतमय नाटिका होती है, जिसमें लोककथाओं को लोकगीत, संगीत व नृत्य आदि से नाट्यबद्ध किया जाता है। सांगों की परंपरा पुरानी है। डॉ ओझा मानते हैं कि सर्वप्रथम सांग की शुरुआत हरियाणा में सादुल्ला नामक एक‌ लोककवि ने की थी।


रागिनी : हरियाणा के सांगों का सर्वाधिक मनमोहक एवं लोकप्रिय छंद है। श्री रामनारायण अग्रवाल का मानना है कि संगीत में रागिनी शब्द उस गीत के लिए आता है जिसकी धुन मूलतः तो किसी जनपद की मिट्टी में से उपजती है परन्तु उसे बाद में गायक मंच पर अपने कंठ की गमक से शब्दों में मंचीय रुप देकर प्रस्तुत करते हैं। हरियाणा का सांग मूलतः ऐसी ही रागिनियों पर अपना पूरा ताना-बाना खड़ा करता है।



एक


यह रागिनी ‘ताराचंद’ सांग से अवतरित है जब ताराचंद अपने बेटे को बेचकर दो सौ रुपए और भोजन लेकर आते हैं और नदी किनारे उनके पैसे और खाना चोरी हो जाता है तो ताराचंद हरनंदी नदी को कहता है :


दो सौ रुपए खाने को भोजन रखा था घाट पर आकर 

हरनंदी तुमने लूट लिया मैं कहाँ सुख पाया नहाकर (टेक)

लड़का बेचा करी कमाई देखने पर रकम ना पाई

सच बता दे हे हरनंदी माई ले गया कौन उठाकर (1)

लड़का गया उम्र थी यानी भर आया आँखों में पानी 

जब माँगेगी दाम सेठानी मैं कहाँ से दूंगा लाकर (2)

नहीं जाता दिल समझाया हे कृष्ण तेरी अद्भुत माया 

जिसने पेट पाड़ कर जाया वो मर जाएगी टकराकर(3) 

लख्मीचंद रहे हैं जाटी दुख में जा है छाती पाटी 

ताराचंद ने आत्मा डाटी वो बैठ गया गम खाकर(4)


शब्दार्थ- यानी-उम्र : छोटी उम्र, पाड़ कर : फाड़ कर, डाटना : थामना व रोकना।



दो


यह गीत नौटंकी के सांग से लिया गया है। इसमें तत्कालीन समय में ग्रामीण महिलाओं के जीवन की झलक दिखाई देती है :


बच्चे छोड़े रोते, चक्की में छोड़ा चून

निगोड़े ईख तूने खूब सताई रे (टेक)

जैसे जाला पूरे मकड़ी, ऐसे दुख ने काया जकड़ी

गीले गोसे लकड़ी, मैं दी धुएँ ने भून 

निगोड़े ईख तूने खूब सताई रे (1)

पीस पकाकर खिलाना, दिन भर ईख निराना

साँझ पड़े घर आना, गया सूख बदन का खून

निगोड़े ईख तूने खूब सताई रे (2)

ये खेती बहुत खुभात की, चैन‌ नहीं दिन रात भी

सब सखी सहेली साथ की, सुन‌ सब सखियों का मजमून 

निगोड़े ईख तूने खूब सताई रे (3)

मैंने कैसे खोटे कर्म किए, मेरी मरती की दया लिए 

लखमीचंद राम किसी को मत दिए, ये बीरों वाली जून

निगोड़े ईख तूने खूब सताई रे (4)


शब्दार्थ- निगोड़ा : अभागा, गोसे : उपले, निराना : खरपतवार आदि को खुरपी से खोद कर निकाल फेंकना, जून : जन्म, खुभात : मेहनत‌ । 



तीन


यह रागिनी ‘नल‌-दमयंती’ के सांग से ली गई है जब राजा नल जंगल में भूख से व्याकुल होते हैं तो उन्हें दो तीतर दिखाई देते‌ हैं। उनका शिकार करने के‌ लिए वह अपने तन‌ के‌ वस्त्र उतार कर‌ उनके ऊपर फेंकते हैं। तीतर ठहरे चालाक‌‌, वो‌‌ उनके वस्त्र लेकर उड़ जाते हैं। राजा‌ नल‌ नग्न अवस्था में दमयंती को जाकर कहते हैं :


भूख प्यास ने चारों ओर से किया घेर कर तंग मैं 

तू सब समझती जो कुछ बीती तेरे पति के संग मैं (टेक)

मैंने अपने तन के उतार वस्त्र डाली थी घेरी

उस वस्त्र को पक्षी ले भागे अक्ल मार गये मेरी

धोखा देकर वस्त्र हर लिया कर गये हेरा-फेरी 

ऐसा जुल्म कभी ना देखा जैसी आज हुई डूबा डेरी

पेट खातिर पक्षी पकडूं था, पड़ा विघ्न उमंग में(1)

कलु की आवाज गगन से आई क्या विश्वास किया है 

तेरे कैसे को दण्ड देने को पुष्कर पास किया है 

पक्षी बन कर वस्त्र हर लिए किया जो खास किया है 

तेरे राज पाट धन माया का कलु ने नाश किया है 

धन माया सब जीता दिए तेरी रख जूए की जंग में(2)

मुझे पता नहीं ये कलु मेरा कब का क्या बैरी है 

इसके हाथों नाश होने की कैसे क्या ठहरी है 

भूख-प्यास टोटे में काया चंदा सी गहरी है

प्राण हैं बाकी मेरे मरने में कसर नहीं रह रही है 

तू खड़ी संग में भरे जंगल में खड़ा उघाड़ा नंग मैं (3)

कह लखमीचंद सुन हे रानी कहाँ पर तेरी निगाह है 

विंध्याचल पर्वत नदी पोषणी जहाँ ऋषि मुनि सब नहाँ हैं 

पर्वत से उतर कर दक्षिण दिशा में कौशलपुर की राह है 

रानी एक रस्ता चंदेरी को एक कुंदनपुर को जा है 

इतनी कह कर पसर गया नल मुर्दों वाले ढंग में(4)



चार


यह रागिनी नौटंकी के सांग से ली गई है। फूलसिंह नौटंकी के लिए हार तैयार करता है और मालिन‌ को बताता है :


आया था ठहरने खातिर मनुष मारनी बैरन खातिर 

नौटंकी के पहनने खातिर हार बना बड़े जोर का(टेक)

देखा ध्यान चारों ओर रखकर, ठंडक हुई पानी भरकर 

मुड़ कर ऊपर नीचे देखा, ना दरख्त बिना सींचा देखा

लटपट बाग बगीचा देखा, रंग सावन की लोर का(1)

जब खिली हार की ज्योति, तबियत देख-देख खुश होती

एक-एक मोती सच्चा लगा दिया, हीरा पन्ना अच्छा लगा दिया 

कुतर कर रेशा लच्छा लगा दिया, धागा मखमली डोर का(2)

हार में लगा दिए फूल हजारी, लड़ी संग एक-एक मणि निराली 

दिल की प्यारी पहन कर चली, आँखों में उसके स्याही डली

लंबी गरदन हूर की हिली जैसे गरदना मोर‌ का(3)

लख्मीचंद छंद का धरना, चाहिए ठीक गालिम सा भरना 

ना तो मरना होगा पिछले दरजे, जोबन बादल ज्यों गरजे

हे मालिक कब दिल लरजे, उस माशूक कठोर का(4)


शब्दार्थ- गालिम : ठप्पा।



पाँच


यह रागिनी ‘पद्मावत’ सांग से ली गई है जिसमें पद्मावत के सौंदर्य का वर्णन मनोहर ढंग से किया गया है :


बरसे मुख से नूर जैसे थी इन्दर की हूर

मेरे दिल में सुरूर जैसे वो खड़ी हुई थी

जिसकी गर्दन में है बल नैनों में है काजल

हो जाए आशिक का कत्ल भौंह चढ़ी हुई थी

जिसकी न्यारी है अदा शीरीं है उसकी सदा

क्या आदमी क्या परिंदे उस पर सभी थे फिदा

क्या ही शहंशाह और क्या ही पीर और गदा

सभी की आँखें उसके हुस्न से लड़ी हुई थीं 

सर पर उसके दक्खिनी चीर गौहर कनी सीर

रंग उसका कुश-ए-कुज़हा की तरह बेनज़ीर 

दिलो जान से मरते थे सब पीर और फकीर

खाली बैठी बेमाता की वो गढ़ी हुई थी।


शब्दार्थ- न्यारी : अलग।



छ: (भजन)


रामस्वरूप एक कारीगर ने राम रेल तैयार करी

प्राण पैसेंजर तैयार करी कल चलने की रफ्तार करी(टेक)

नाड़ी तार शब्द की मीठी साँस का पंखा हिलता है 

इंजन वाला गजब मसाला सर्व धात का डलता है 

डूबे से नहीं गलता पानी में, नहीं अगन में जलता है 

करनी के डिब्बे बदले जाते, इंजन एक ही चलता है(1)

भ्रम की पटरी बुद्धि ड्राइवर दूरबीन दो कम चार करी

पाप-पुण्य दो लाइन बिछाई जहाँ गाड़ी बदली जाती है 

काम-क्रोध दुख-सुख के पहिए कर्म की कल चलाती है 

प्रेमगति का प्लेटफार्म जो गाड़ी को ठहराती है 

सत का सिग्नल जतन की जंजीरी सुरति झटका लाती है 

भक्ति भाड़ा भरो प्रेम से ना एक पैसे की उधार‌ करी(2)

काल‌ का गार्ड बेरहम झंडी जब चाहे हिला देगा

यम का चैकर टिकट का टीटी सब सामान खुला देगा

एक मनु नाम का पीठमैन कभी डोले कभी डुला देगा

भगवद बाबू शर्म सिपाही सब सामान तुला देगा 

लोभ कुली कंगाल मिला एक पैसे पर तकरार करी(3)

ज्ञान गैस जल रही गाड़ी में जो विद्या बुद्धि तेज करे

टेलीफोन भावी का चक्कर अचानक घंटी मेज करे

नाना प्रकार के रंग स्टेशन ईश्वर का नाम रंगरेज करे

गुरु मानसिंह जी बोले जा बैठ आज मत हेज कर

लखमीचंद रट हरि का नाम मिली रेल मेहर करतार की(4)


शब्दार्थ- हेज : मना।





कवि : लखमीचंद 

जन्मतिथि एवं स्थान : 15-7-1903, गांव जांटी कलां, जिला सोनीपत

स्वर्गवास एवं सांग अवधि : 17-10-1945 (1923 से 1945)

सांग भजन निर्माण : 23 सांग — 924 रागनी, 80 उपदेशक भजन तथा 45 से 50 तर्जे बनाई।

सद्गुरू : पंडित मान सिंह सूरदास गाँव बासौदी (सोनीपत)

शिष्य : 19 शिष्य (साजन्दों के अतिरिक्त)


हिमांशु जमदग्नि एक युवा कवि हैं। उनकी कविताएँ पोएम्स इंडिया, हिन्दवी, सदानीरा और समकालीन जनमत पर  प्रकाशित हो चुकी हैं। वह हरियाणा के सोनीपत जिले के भैंसवाल गाँव से हैं और फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर कर रहे हैं। हिमांशु को पढ़ना, सुनना, देखना और शांति पसंद है।


1 comentário


Convidado:
08 de fev.

बहुत खूब ♥️

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