दो फिलिस्तीनी कहानियां
- golchakkarpatrika
- Dec 1
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Updated: Dec 3

मूल कहानियां : सामा हसन
अंग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेंद्र
दूध की बोतल
वह गुमसुम अपने नवजात शिशु की भूख मिटाने के लिए यहाँ-वहाँ भटकती रही कि दूध की कोई बोतल मिल जाए तो बच्चे को चुप करा दे। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ उसका बच्चा भूख से चिल्ला रहा था, आसपास वैसे कई और बच्चे भी यही कर रहे थे- फिर भी उसे बच्चे को छोड़कर दूध के लिए निकलना तो था ही। उसने बच्चे के मृत पिता की तस्वीर उसके बग़ल में रख दी जो कुछ महीने पहले ही युद्ध में मारे गए थे।
कैंप में इधर-उधर ख़ासा भटकाने के बाद उसे अंततः विस्थापितों को रसद पहुँचाने वाला एक ट्रक दिखाई दिया तो उसने दौड़ लगा दी। भीड़ को चीरते हुए वह दूध की बोतल हासिल करने में कामयाब हो गई। वापसी भी उसने लगभग दौड़ते हुए ही की।
अपने टेंट के पास पहुँची तो देखा, इतनी देर में वह जलकर खाक हो चुका था और वहाँ से काला धुआं निकलकर चारों ओर फैल रहा था।
उसे जब कुछ नहीं समझ आया तो उसने बोतल का ढक्कन हटाया और अंदाज़ से उस जमीन पर पूरा दूध उड़ेल दिया जहाँ वह अपने बच्चे को छोड़कर गई थी।
"लो, अब तुम्हारा पेट भर गया न मेरे बच्चे?", कहते हुए उसकी कातर आवाज़ पूरे आसमान में फैल गई।
एक औरत के कपड़ों का सफ़र
लड़ाई के दौरान मैंने तय किया कि मुझे अपने सामान को सीमित रखना है, उसमें नया जोड़ना कुछ भी नहीं है। कई लोग मानते हैं कि उनका जीवन पीठ पर बंधे अदद पिट्ठू बैग में समा सकता है। मुझे भी लगा इस बात में अतिशयोक्ति कुछ नहीं है। 7 अक्टूबर को शुरू हुई लड़ाई के बाद मुझे बड़ी शिद्दत से यह बात समझ में आई कि अब तक जिसे मैं अपना व्यक्तिगत सामान समझ कर सहेजती रही हूँ, वह कितना क्षणभंगुर है। मैंने जीवन में एक बेहद ज़रूरी सबक सीखा कि अपने शील और शरीर को ढांपे रखने के लिए अनिवार्य रूप से जिन कपड़ों की ज़रूरत होती है, उनके अलावा कुछ भी सहेज कर नहीं रखूंगी। मैंने तय किया कि जब तक यह लड़ाई ख़त्म नहीं होती, मैं अपने लिए कोई नया कपड़ा नहीं खरीदने वाली।
इसी बीच जब एक हवाई हमले ने हमारे घर को निशाना बनाया, सब कुछ ज्यों का त्यों छोड़-छाड़ कर हम सभी लोग बाहर सड़क पर भागे। उस वक़्त हमारे बदन पर सिर्फ़ सोने वाले कपड़े थे और हमें बाहर निकल कर कुछ नहीं पता चल रहा था कि हम भाग कर शहर के किस हिस्से में कहाँ आ गए। हमने जो कपड़े पहने थे, वे भी कोई मोटे और बदन को गर्म रखने वाले नहीं थे, क्योंकि मौसम सर्दी का नहीं था। बिजली कटी हुई थी सो घर में भी ए सी चलाने की गुंजाइश नहीं थी। जब हम चौड़े राजमार्ग पर निकल आए तब इस बात का एहसास हुआ कि अपने घरों से हम कितनी दूर आ गए हैं। वहाँ पहुँचकर दम लेने की सुध आई तब पता चला कि हम नंगे पांव हैं, घर से भागते वक़्त जूते-चप्पल पहनने का होश किसे था।
हमें इस हाल में देखकर आसपास के घरों में रहने वाली कुछ औरतें बाहर आईं। उन्होंने हमें कुछ कपड़े और चप्पल पहनने को दिए। वे पर्याप्त नहीं थे और थे भी पुराने घिसे पिटे। फिर हमें अपना आगे का जीवन जीने के लिए ठिकाना ढूंढ़ने की चिंता हुई। हम एक-एक कर अपने रिश्तेदारों के बारे में सोचने लगे जिनके पास जा कर सिर छुपाने की जगह मिल सकती है क्योंकि हमारा घर तो धूल-मिट्टी में मिल गया था।
मेरा सब कुछ मुझसे छूट गया। मेरे पास दूसरे कीमती सामान तो क्या वो कपड़े भी नहीं बचे जिनसे प्रिय कोमल स्मृतियाँ जुड़ी हुई थीं...। वे कपड़े भी नहीं बचे जो मैंने बचपन में बच्चों को बहुत प्यार और दुलार के साथ पहनाए थे। इजराइली बमबारी में स्मृतियों से जुड़े वे सारे कपड़े घर के मलबे में दब कर नष्ट हो गए। दरअसल बच्चों के कपड़े मैंने एक पूरी अलमारी में सजा कर रखे थे। अपने बच्चों से मैं अक्सर कहती थी कि जब तुम्हारे बच्चे हों, तब उन्हें कपड़ों से भरी यह आलमारी दिखाना...। और फिर वे बच्चे अपने बच्चों को यह सब दिखाएंगे। हँसी-मज़ाक़ में यह सब करते हुए उन बच्चों को यह पता चलेगा कि उनके माँ-बाप हमेशा जवान और बूढ़े नहीं बल्कि वे भी कभी उनकी तरह नन्हे बच्चे थे।
बमबारी थम जाने के कुछ दिनों बाद हम अपने घर की तरफ यह सोचते हुए आए कि देखते हैं घर के जो अवशिष्ट बचे हैं उनके बीच से झांकते हुए शायद हमारे कुछ कपड़े मिल जाएं। मलबे की ईंटें हटाते हुए हमें कुछ चीजें मिल गईं जिनमें एक पारिवारिक फोटो एल्बम था।
मैंने उन औरतों के घरों में जाकर उनसे बात करने की कोशिश की जिन्होंने हमें कपड़े दिए थे। लेकिन उनके घर बिल्कुल ख़ाली पड़े थे। ऐसा लगता है किसी हादसे में अफरा-तफरी में उन्हें घर छोड़कर भागना पड़ा है। उसके बाद मैंने एक चादर में उनके लिए इकट्ठा कपड़े सहेजे और बांधकर रख लिए कि किसी न किसी दिन उनसे मुलाकात होगी तो मैं यह गट्ठर शुक्रिया सहित उन्हें थमा दूंगी।
घर छोड़ने के बाद ख़ान युनुस हमारा दूसरा पड़ाव था। वहाँ रहते हुए एक दिन हमारे पड़ोसियों ने मुझे फोन किया। जैसे हालात थे उसमें हमने तो घर छोड़ने का फैसला किया लेकिन वे वहाँ टिके रहे, हालांकि इजराइली शासन ने उन्हें वह जगह छोड़कर चले जाने का हुक्म सुनाया था। उन्होंने बताया कि जिस रात हमारा घर ज़मींदोज़ हुआ उसी रात इजराइली बमबारी में ध्वस्त हुए आसपास के घरों से वहाँ रहने वाली युवा लड़कियों को रात में सोते समय पहने जाने वाले कपड़ों में ही बंदूक की नोंक पर सड़क पर धकेल दिया गया था। उनके पास अपना शील छुपाने के पर्याप्त परिधान नहीं थे सो वे हमारे घर के मलबे से ईंटें हटा हटा कर अपने बदन पर डालने के लिए कपड़े ढूंढने लगीं। उन्हें जो कुछ भी मिला उसे अपने बदन पर डालकर उन्होंने शर्म बचाई। उसके बाद उनके पिता लड़कियों को लेकर कहीं किसी और जगह चले गए। शायद वहाँ, जहाँ उन्हें सुरक्षा का भरोसा रहा होगा।
उस समय मैं उन कपड़ों के बारे में देर तक सोचती रही जो हम अपने छूट गए घर में छोड़ आए थे। मेरा ध्यान बार-बार मेरी बेटियों के कपड़ों के ऊपर चला जाता था जिन्हें बमबारी के चलते बिस्तर से निकल कर सड़क पर आ गई दहशतजदा लड़कियों ने अपने शरीर पर डालकर अपनी लाज बचाई होगी। महंगे हों या सस्ते, इन कपड़ो में बच्चों के बचपन के स्मृतियाँ जज़्ब थीं।
जब हम ख़ान युनुस पहुँचे थे, तब वहाँ घर-बार छोड़कर भागने को मजबूर गाज़ा से विस्थापित लोगों का जमावड़ा नहीं लगा था। शहर के पश्चिमी हिस्से में बड़ा और खुला खुला बाज़ार होता था जहाँ हम ख़रीदारी करने जाते थे। जब माहौल बदलने लगा- बद से बदतर होने लगा- तो इस बाज़ार में चीजों की होने लगी। जब चीजें ही कम हों तो हमारे पास चुनकर पसंद का सामान लेने के विकल्प भी सिमटते गए। जब कभी बाहर से सामान लाने की इजाज़त मिलती तो बाज़ार में नए कपड़े दिखाई दे जाते।
यह सही था कि हमने नए कपड़े ख़रीद लिए लेकिन जिन कपड़ों को हम पीछे छोड़ आए थे यह उनकी तरह तो नहीं थे- कैसे भी हों, दोनों में ख़ासा फ़र्क था। पहले वाले कपड़े हमने बहुत तज़बीज के अपनी पसंद से चुने थे जिनके कारण हमारा व्यक्तित्व निखर कर अलग दिखाई देता था। लेकिन अब जो नए कपड़े हमने ख़रीदे, ये हमारी पसंद के नहीं बल्कि युद्ध द्वारा उत्पन्न हालातों और मुश्किलों के हिसाब से ख़रीदने पड़े थे। पहले हम बिल्कुल फिट साइज़ के ख़ूब रंग-बिरंगे कपड़े पहनते थे जबकि अब हमारे पास गाढ़े रंग के और बेडौल कपड़े थे- अक्सर अपनी साइज़ से बड़े। युद्ध के इस माहौल में न तो ज़रूरत भर बिजली होती थी न पानी, सो वाशिंग मशीन चलाने का सवाल ही नहीं था। किसी तरह हम कपड़े धो कर साफ़ कर लेने का अनुष्ठान कर लेते।
ख़ान युनुस में किसी तरह दो महीना गुजारने के बाद जब वहाँ इजराइली फ़ौज ने चढ़ाई कर दी तो हम भाग कर राफ़ा आ गए। दिसंबर का महीना था, ख़ूब सर्दी थी इसलिए हमें बाजार जाकर तत्काल गर्म कपड़े खरीदने की ज़रूरत पड़ी।
जब मैं कपड़ों के लिए दुकान, दुकान घूम रही थे तो एक जगह मेरी नजर टिक गई- वह इस्तेमाल किए हुए पुराने कपड़े कम कीमत में बेच रहा था। कीमत कम थी इसलिए उसके इर्द गिर्द बहुत सारी औरतें इकट्ठा हो गई थीं। मैं भी उनके बीच जाकर खड़ी हो गई और सामने रखे हुए कपड़ों को एक-एक कर देखने लगी। अचानक मेरी नज़र काले रंग के एक घाघरे पर टिक गई जिस पर फिलिस्तीनी कढ़ाई वाले गोटे टांके हुए थे। मैं एकदम से पहचान गई, यह किसी और का हो ही नहीं सकता, यह मेरा ही घाघरा है। मैंने उसे खींचकर अपने हाथ में लिया तो इस बात का पक्का भरोसा हो गया कि हाँ, यह मेरा ही घाघरा है।
"तुम्हें आख़िर यह मिला कहां से?", मैं उत्तेजित होकर दुकानदार पर चिल्लाई पर उसने मेरी तरह उत्तेजित होकर जवाब नहीं दिया बल्कि बड़े शांत स्वर में बोला : "ये सारे कपड़े बमबारी में नष्ट हो गए घरों के मलबों के नीचे पड़े हुए थे, हम उन्हें वहीं से निकाल कर लाए हैं। आसान नहीं था इन्हें निकालना। ये धूल, गर्द, गोश्त और लहू से सने हुए थे। हमने बड़ी मुश्किल से जान जोखिम में डालकर इनको निकाला और साफ सुथरा करके यहाँ आपके सामने ले आए।"
उसके जवाब में जो उदासीन रूखापन था, उससे मैं चौंक पड़ी। लेकिन मैंने कोई जवाब नहीं दिया, मुझे पल भर को भी ऐसा नहीं लगा कि मैं उससे कहूँ कि मेरा कपड़ा है मुझे वापस दे दो...। क्योंकि इसकी असली मालकिन मैं हूँ ,तुम नहीं। मुझे अपने मन को यह समझाने में मिनट भर लगा कि वह बेचारा गरीब है, उसके पास आमदनी का और कोई ज़रिया नहीं है, सिवाय इसके कि मलबे की ईंट-ईंट उठा कर देखे और जो कुछ भी काम लायक मिले, उसे निकाल कर धो-पोंछ कर बेच डाले। जो पैसे मिले उसी से उसका निवाला आएगा।
इस घटना के तीन महीने बाद तक मैं राफ़ा में रही और और अक्सर अपने पुराने कपड़े उन औरतों को जाकर दिये जो घर बार छोड़कर किसी तरह टेंट में गुज़ारा करती है। मैंने अपनी बेटियों से भी यही कहा, मैं ऐसा करती भी थी। हमारी तरह बहुत सारे लोग ऐसे थे जो बमबारी के बाद घर-बार छोड़कर जान बचाने को भागते हुए अपने कपड़े-लत्ते साथ लेकर जा पाए या बाद में आकर मलबे में ढूंढते हुए उनके प्रिय कपड़े उन्हें दोबारा मिल जाते। वे इतने ग़रीब थे कि एक बार विस्थापित हो जाने के बाद वापस पुरानी जगह तक आ पाना उनके लिए संभव नहीं होता।
महीनों महीनों तक का जबरिया विस्थापन हमें ऐसी दशा में ले आया जहाँ ज़िंदा रहने के लिए किसी बुनियादी स्टैंडर्ड की कल्पना करना बेमानी हो गया। अब हमारे मेरे पास पहनने को सिर्फ एक जोड़ी कपड़े बचे थे। ख़ुद इस विपन्नता में रहते हुए भी मुझे किसी पल यह एहसास नहीं हुआ कि जब हमारे पास इतना कम है तो भला दूसरों को दान देने की क्या दरकार? चाहे वह परिवार के किसी की चप्पलें हों या मेरे बेटे के पैंट। जीवन की अनिश्चितता इतनी थी कि अपना सामान कम से कम रखने की नीयत से हम मोज़े पहनने लगे जो पीठ पर लादे पिट्ठू बैग में आसानी से जगह बना लें और वज़न भी न बढ़े।
वहाँ से भागकर मिस्र जाने से कुछ दिन पहले मेरी मुलाकात संयोग से उम्म मोस्तफा से हो गई।
"अपना यह ऊनी स्वेटर मुझे दे दो। जब मैं गाज़ा से भाग कर आई थी, तब गर्मी का मौसम था। जो कपड़े मेरे बदन पर थे, वे उसी मौसम के थे। अब सर्दी होने लगी है पर उसके लिए गर्म कपड़े नहीं। मेरे पास न तो खाने के लिए कोई पैसा है न ही कपड़ों के लिए- ऊनी स्वेटर भला कहाँ से ख़रीद पाऊंगी। मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगी, जब जब मैं तुम्हारे दिए कपड़े देखूंगी तुम्हें याद करूंगी तुम्हें जी भर कर दुआ दूंगी।", उन्होंने कातर स्वर में कहा।
रफ़ा से जब सीमा पार कर रहे थे तो मेरी आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे। मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह एहसास हो रहा था कि मैंने अपनी पसंद से जितने कपड़े खरीदे, पहने—कपड़े ही क्या मेरे इस्तेमाल की सभी चीजें मेरा माल असबाब—बस कितना झूठा दिलासा देते रहे। मैं अब तक तहफ्फ़ुज़ के कितने खोखले और भरमाने वाले एहसास के साथ जीती रही। सच्चाई यह थी कि मैं अपना सब कुछ—सब कुछ मतलब सब कुछ—यहीं पीछे छोड़ कर जा रही थी। मुझे उसका ज़रा भी अफ़सोस नहीं था बल्कि इस बात की ख़ुशी हो रही थी कि मैं अपने साथ के मजबूर और दुखियारे शरणार्थियों के साथ कुछ साझा करने का मौका निकाल पाई। आखिर एक ही बमबारी में हम सब घरों से निकल कर बाहर सड़क पर आ गए थे—बेसहारा।
युद्ध की शुरुआत में हम विस्थापितों को जो बैग दान में मिला था, मैंने उसे सीने से लगा लिया और सुबकने लगी। मैं यहाँ से जा तो रही हूँ लेकिन यह उम्मीद लिए जा रही हूँ कि एक दिन लौटकर अपने घर गाज़ा जरूर आऊंगी... और उन सभी औरतों को उनके कीमती और प्रिय कपड़े वापस कर पाऊंगी जो युद्ध में उनसे छीन लिए गए थे। मैं उन सबसे लिपट कर प्यार करना चाहती हूँ, चाहती हूँ हम सब दुःख से भरे हुए एक साथ मिल कर रोयें—क्योंकि हम सब के दुःख साझा और एकरंग हैं। मैं उन सबको कहना चाहती हूँ कि उनके किए उपकार कभी नहीं भूलूंगी। लेकिन क्या मैं कभी गाज़ा लौट पाऊंगी? जो सोचती हूँ, वह कभी कर पाऊंगी?
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1971 में गाज़ा में जन्मी सामा हसन पत्रकारिता के साथ साथ कहानियाँ भी लिखती हैं। अरबी में लिखी उनकी कहानियों के सात संकलन प्रकाशित हैं। अरब जगत और इजराइल के कुछ अंग्रेज़ी प्रकाशनों में भी उनका लेखन छपा है।
यादवेंद्र वरिष्ठ अनुवादक हैं। उनसे अधिक परिचय के लिए पढ़ें : नाई की दुकान, फिलिस्तीनी बच्चे : कुछ कविताएँ, मेरी ओलिवर की कविताएँ, युद्ध पर कुछ प्रासंगिक कविताएँ, हॉली मैक्निश की कविताएं
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