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राजीव कुमार तिवारी की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Sep 21
  • 4 min read

Updated: Sep 21

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स्मृति


स्मृति बहुत बाद में साथ छोड़कर जाती है 

शरीर पर से पूरी पकड़ छूटने से 

कुछ समय पहले तक साथ रहती है 

बहुत बार अंतिम सांस तक


स्मृति जब सांसों के जाने से पहले चली जाती है 

बची हुई सांसों को जीना 

बोझ ढोना भर रह जाता है 


जीवन सांसों के चलने तक है

पर जीना स्मृति के रहने तक ही  


स्मृति है तो चेतना है 

दो कहाँ हैं दोनों।



युद्ध का अर्थ 


युद्ध का अर्थ समझने के लिए 

हमें उस घर में जाना होगा 

जहाँ छुट्टी पर आए फ़ौजी को

वापस लौटने का फरमान 

अभी-अभी आया है


उस आँगन में जाकर 

समझ सकते हैं हम युद्ध का अर्थ 

जहाँ ताबूत में एक शहीद का शव शरहद से लौटा है  

बेवा हो गई उसकी पत्नी 

अनाथ हो गए उसके छोटे-छोटे बच्चों

संज्ञा शून्य हो गए उसके बूढ़े माँ-बाप से मिल लेने के बाद

युद्ध के चेहरे और हमारी आँखों के बीच पड़ी 

बहुत सी परतें हट जाएंगी फिर 


युद्ध का अर्थ समझने के लिए 

वह इलाका हो जाना चाहिए हमें 

जहाँ फ़िज़ा में वार सायरन की गूँज है 

जमीन पर टैंकों की गड़गड़ाहट 

और आसमान पर

बमवर्षक विमानों का कहर 

जहाँ किसी भी समय 

कोई मिसाइल कोई बम कोई गोला 

दागे जाने का अंदेशा है 


अपने सुरक्षा बंकरों में छिपकर 

ओजपूर्ण लफ्फाजी करने वाले राष्ट्राध्यक्षों के 

बड़े-बड़े दावे प्रति दावे 

टीवी चैनलों के भोंपू एंकरों की जमात

उनके जर्नल कर्नल गेस्ट 

सैन्य आयुधों की माइक्रो डिटेलिंग

युद्ध से जुड़े रोचक लोमहर्षक क़िस्से 

व्याघ्र गर्जना 

बहुत सहायक नहीं होते हमारे लिए 

युद्ध का अर्थ समझने में 


इतिहास की किताबें

युद्ध से जुड़ी

तारीखों घटनाओं 

नायकों खलनायकों के बारे में तो बहुत कुछ बताती हैं 

पर वहाँ

आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन पर 

युद्ध के पड़ने वाले प्रभाव का 

कोई विस्तृत जिक्र नहीं होता 

किसी सैनिक के शौर्य पराक्रम

कायरता और समर्पण के बहुत चर्चे रहते हैं 

पर उस पर उसके परिवार पर 

जो कुछ गुज़रता है 

युद्ध से ठीक पहले 

और युद्ध के बहुत दिनों बाद तक

वह छूट जाता है प्रकाशित होने से 

कुल मिलाकर इतिहासकार

युद्ध के बारे में सतही बातें ही बता पाते हैं  


युद्ध उन्माद कहर पीड़ा शौर्य पराक्रम 

जय पराजय अभाव उपलब्धि उमंग उत्सव अपराध काला बाज़ारी आत्मरक्षा महत्वाकांक्षा 

और भी बहुत, बहुत कुछ होता है 

एक युद्ध के कई चेहरे और अनेकों आयाम होते हैं।



कर्फ्यू में शहर


कौमी फसाद के बाद कर्फ्यू लगा है शहर भर में


सड़कें सूनी हैं

पुलिस की गाड़ियां गश्त कर रही हैं

चप्पे-चप्पे पर प्रशासन की नज़र है

सायरन और मेगाफोन की आवाज़ गूँज रही है 

जानवर परिंदे दरख़्त फूल पत्ते 

सब सकते में हैं 


अपनी छाया और अपनी आहट तक संदिग्ध लगती है

नफ़रत आशंका दहशत और प्रतिशोध से भरे हुए हैं लोग 

हवा में मांस लहू आग और बारूद की गंध घुली हुई है 


मोबाइल का नेटवर्क बंद है 

टीवी और अखबार में छनी हुई ख़बरें ही आ रही हैं 


अफ़वाह हवा के कंधे पर चढ़कर 

जहाँ तक पहुँच सकती है

पहुँच रही है 

जो है उसे और भी बड़ा कर रही है 

जो नहीं है उसे खड़ा कर रही है 

कहीं हवा में आग लगा रही है 

कहीं सुलगती आग को लहका रही है  


ऊंची और मंझोली हैसियत वाले लोग

राशन और सुरक्षा के पूरे बंदोबस्त के साथ 

दुबके पड़े हैं घरों में 


रोज कुआं खोदकर पानी निकालने वाले बेतरह परेशान हैं

हर हाल में लौटना चाहते हैं अपने काम पर

उनके घर का चूल्हा बुझा पड़ा है 

मज़हबी नफ़रत की आग से 


फसाद के उर्वरक से 

सियासतदानों की खेती और लहलहा उठी है 

आदमी को भीड़ में 

भीड़ को वोट में तब्दील कर 

वे दूर से तमाशे का मज़ा ले रहे हैं 


मज़हब के स्वयंभू अलमबरदारों का

सारा वक़्त इसी गुणा गणित में बीत रहा है 

कि किसी भी हाल में 

आपसी नफ़रत की आग की लहक मद्धम न पड़े


दोनों जमात में जो इंसान हैं 

तेज आंधी में दीए को बुझने से बचाने की काविश में 

अपना दामन तक जला रहे हैं 


बच्चे अव्वल तो समझ नहीं पा रहे 

पहले जो हुआ वह क्यों हुआ 

अब जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है 

उन्हें घरों में क़ैद होना 

पिंजरे में पाबंद होने जैसा लग रहा है 

दोस्तों से मिलना स्कूल जाना  

खेल के मैदान तक पहुँचना  

सब कुछ अचानक से छिन गया है उनसे।



रात की रिपोर्टिंग


अचानक से खुल गई है नींद रात के तीसरे पहर में 

बिस्तर से उठकर ख़ुद से बाहर निकल आया हूँ 


तारों के लश्कर के साथ 

पहरे पर तैनात है अधकटा चाँद


वृक्षों के नीचे 

शांति की नींद में पड़ी है छाया 

हौले-हौले झकझोर रही है जिसे हवा

कांप रही है विरल काया


सूखे पत्तों की झुरमुटों में रेंग रही हैं 

भय और रहस्य की आहटें  


सोए नहीं हैं सब चरिंद परिंद 

जाग रहे हैं कुछ अब भी

अपनी बोली में सबसे बोल रहे हैं 


अनिद्रा की मारी एक गिलहरी को चुहल सूझी है 

कूद रही है पेड़ की एक डाली से दूसरी पर 


दूर बहुत दूर 

पहाड़ की तलहटी में बहती किसी नदी की कलकल

सुनाई पड़ रही है

एक स्त्री एकांत में स्मृतियों को बरतने के लिए

कोई पुराना फिल्मी गीत गा रही है 


घर से थोड़ी दूरी पर बायपास सड़क है

गुज़र रही हैं बहुत तेज़ रफ़्तार में जिस पर गाड़ियां 

पास की गली से कुछ लोग गपियाते हुए गुज़र रहे हैं

आवारा कुत्ते बहुत दूर तक उनके पीछे पीछे जा रहे हैं।



आंधी पानी


काली बदरी कोने, कोने में आकाश के अटी पड़ी है 

भरी दुपहरी में सांझ हुई पड़ी है 


धारासार हो रही है वर्षा

लबालब हो रहे हैं नदी सागर 

छलक रहे हैं ताल तलैया 

भर रहे हैं गड्ढे डबरे 

घर आँगन में बह रहे हैं सोते  


रह रह कर चमक रही बिजली से चौंधिया रही है आँखें

मेघों के कर्णभेदी गर्जन हृदय पट पर वज्र दंड से पड़ रहे हैं 


जटाएं खुली हैं उसकी पूरी 

क्रुद्ध हवा सीने के ज़ोर से चीख़ रही है 


कहीं पेड़ गिर रहे हैं कहीं डालियां 

बिजली के तारों पर फूस के छप्परों पर

जीर्ण-शीर्ण हो चुके घरों पर भी

आफ़त गुज़र रही है


डरे सहमे पशु-पक्षी दुबके पड़े हैं सायबानों में

इंसान भी ठहरे से हैं

ठहरे से हैं दुनिया के कारोबार सब।



राजीव कुमार तिवारी की कविताएँ आजकल, कथादेश, वागर्थ, हिंदवी, परिकथा, मधुमती, कृति बहुमत, साक्षात्कार, समकाल, अनुगूँज, Indian Literature, द वायर, रचना  उत्सव, कविकुम्भ, दैनिक हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, अमर उजाला आदि पत्र-पत्रिकाओं एवं वेबसाइट्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका एक कविता संग्रह

'आधी रात की बारिश में जंगल' बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। ईमेल : rajeevtiwary6377@gmail.com




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