हर्षवर्धन सिंह की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- 2 days ago
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अ...मैं...भी
देह मकड़ी के जाले ज्यों
दिल के चारों सू
उग आई है,
लील रही है हृदय
एक माखी-सा अटका हुआ जो
भिनभिना रहा है,
क्या उसे ही धड़कन कहेंगे?
आइने में
इस अगाध गंदूमी दलदल से
उठ रहे है कंपित बुलबुले
उठ रहे है ले अपनी विरक्ति
गहरे बहुत गहरे में
कोई है जीवित अब भी?
शायद एक अंतिम कोपल हो!
या एक युग-भ्रूण?
अमुक-क्षणिक इन बुलबुलों को
बस इन्हीं को!
क्या हम सांसे कहेंगे?
आसपास बिछे सिसकियों के ऊसर में
सन्नाटे के स्वजनित थोर
चारों ओर
वे ख़ूनी विदूषक
एक-एक कांटा विद्रूप उनका!
हँसता है भँवरीली हँसी
उन कांटो में उलझी पड़ी
अपनी भाषा उतार रहा हूँ
मेरी अंधेरी कोशिकाओं में...सैलो में कलपते
चिंघाड़ते हुए युगीन फीनिक्स
सवत्सा मृत्यु के असंख्य पुत्र!
भूत-भविष्य दो धधकते हुए पाँख
फड़फड़ाते अपनी अपनी कोठरियों में
एक एक सैल में
(अंगारी फड़फड़ाहट! )
अथक श्वसन से दहकती दीवारों पर
सहस्त्र चोंच की चोटे
समय जितने गहरे निशान!
(धुएं में क़ैद वे भूख के टुकड़े)
मुखरित अनगिन कोशिकाएं
सैलो से उठता...
एक साथ उठता हुआ प्रेत शोर
टक-टक! कट-कट! टिक-टिक!...
इतिहास की बू नेवले ज्यों
दांत गड़ाए है
एक ताज़ा सुर्ख़ सुबह में
एक ताज़ा लहू पल में
और एक सर्प पल
जकड़े हुए इतिहास की गर्दन
चढ़ा बैठा है छाती पर,
मैं अपने पिंजरे में मांस के टुकड़े-सा
एक बेस्वाद कोर-सा
अपने ही आगे
फेंक दिया गया हूँ
छू रहा हूँ उस शापित नैवेद्य को !
छक रहा हूँ।
थूक रहा हूँ।
अपनी ही गर्भनाल की
गुंजलक में भटक रही है मेरी गूँज
मेरे ही गर्भ में मेरे ही नाखूनों की खरोंचे
उभरी लीखे !
(पेचीली...लाल...केव...पेंटिंग्स!)
टिप! टिप! टिप!
गिर रही है मुख में
अंधेरे की बूंदे
(आह! पोषण )
एक भूख मुझे पहन रही है
मैं अपनी अंतड़ियों पर
चिपका हुआ हूँ अब भी,
भाषा में मवाद की तरह भरा हुआ
ढक रहा हूँ ख़ुद को
पोरे रुधिर सनित
सन्नाटे की अनी से
टिप! टिप! टिप!
टपक रहा हैं मवाद
भाषा का चीर फट
आ गया है हाथ में
उसे ही लपेट रहा हूँ
मवाद पर... ख़ुद पर
कोई भारी अंधेरा आवाज़ बन कर
आवर्तमय-वक्त-विवरो से
टपक रहा है –
टिप! टिप! टिप!
खार आलूदा रव यह
ज़र्रे ज़र्रे पर ख़ून के धब्बे!
यह कैसी नुकीली शीशेदार रव पर
दोलन सृष्टि का? नाच रही है सृष्टि?
ये मोम की मूर्तियों पर
कैसी आग की बूंदे? कैसी वृष्टि?
कैसी है यह
टिप-टिप-टिप!?
मैने गौर से सुना फिर-फिर
कान की तिमिर आरोगति गुफाओं के
मुहाने पर आ आ
टिप-टिप नहीं!
वह थी
टिक! टिक! टिक!
सुना मैने
हड्डियों-से खोखले दिन से कान लगाकर
जैसे एक वृहतकाय दानवी रिक्तता
पीस रही हो अपने दांत!
किट-किट-टिक-टिक!...
भयानक पुनरावृत्ति !
(कितना डरावना है यह
बिल्कुल “अभी”-सा)
आँखे एक शोषित सदी ज्यों
फैली हुई हैं
जिनमें सोई हुई है एक बूढ़ी स्थूल प्यास!
मेरी उम्र जितने बड़े है जिसके नाखून
और मेरी भूख जितने असली,
यह कितना अजीब है कि
मुझे धुएं का घर मिला
और हाथ में मशाल
मस्तिष्क में पेट मिला
पेट पर पैर मिले
कंधों पर देह मिली
और पीठ पर मिली आत्मा!
रक्त-कण शराबियों ज्यों
दीवार-सी शिराओं से लग कर आते है
अपने अंधेरे घर में...हृदय में
चीख़ते हैं
टेरते है अनागत को
चीत्कार यह
क्या यही है धड़कन मेरी?
टिक!...टिक!...टिक!
कदम-ब-कदम सिलासिल लोरी गाती है
गात हड्डियों पर सो जाती है
सियारी आँखों में खुल रही है
मेरी खिड़की
दृश्य उसका अंतःकरण हुए जाते है!
और बहुत धीरे-धीरे
मानुष करीब आते है
गोया शिकार की घड़ी !
और मेरा दरवाज़ा बार-बार खुल रहा है
तीक्ष्ण ओ दांतदार
भक्षी शब्द “अभी” में,
छाती के इर्द-गिर्द
कसता हुआ-सा “अभी”,
टिक! टिक! टिक!
नसों के उभारों में दुखता, फड़कता हुआ ,
एक-एक कण-कोशिका पर भूखे बेताल ज्यों
लदा हुआ “अभी”
चमकादड़ ज्यों उल्टा टंगा देह के खण्डहर में
खून सूंघ कर करता है : घुर! घुर! घुर!
क्या यही नहीं है? : टिक! टिक! टिक!
राह बन-बन लिपटता हुआ
घड़ी में पल-पल धंसता हुआ
डसता हुआ कल-ओ-आज को
फंसता हुआ इंद्रियों में।
एक एक ख़ाली-खोखल पल में गूंज रहा है यूँ :
“अकेला ओ अंतिम विकल्प हूँ”
क्या यही नहीं है? : टिक! टिक! टिक!
तलवार-सी बिछी हुई है
उसकी धारदार अपरिहार्यता
नंगे पांव बढ़ रही एक-एक सांस जिस पर
एक-एक देह की।
कही कोई आश्रय नही,
क्षण-क्षण
मैं “अभी” से ही हुआ निर्वासित
मै “अभी” में ही धकेला गया
मैं “अभी” की दिशा में भाग रहा हूँ
“अभी” की छाती पर पैर रखकर
“अभी” के कंधों पर चढ़ रहा हूँ
“अभी” से घिरे अंचल में जन्मा
और “अभी” के ही द्वार पर
टांग दिया जाऊंगा
फिर “अभी” का मुख लपकेगा
एक कोर की तरफ
मैं “अ” और “भी” के बीच फैले
गहरे गंदुमी-दलदली अतल में
घुल जाऊंगा
मर जाऊंगा
अभी के लिए
(सिर्फ़ अभी)।
उलझन
मेरी नींद पार
कोई चितेरा
उलझ गया है अपनी कूची से
मेरी नींद से लिपटा हुआ सब विन्यास
अब स्वप्न है
मैं अपनी आँखों में
रंगों की एक उलझन-सा
सो रहा हूँ
एक क्रौंच मेरी एक आँख में
अपनी सब सांसे त्यागता हुआ
अपनी ही चीत्कार में डूब रहा है
त्रिकुटी पार दूसरी आँख में खूनी पंक है
जिसमें अपना एक एक पंख नोचता हुआ दूसरा क्रौंच
अतिरिक्त सांसे लेता हुआ-सा
यह सब क्या है?
आह! कभी मैं
इस आँख में जागा—कभी उस।
मस्तिष्क वल्मीक
मस्तिष्क वल्मीक यह
सूक्ष्म-जग
जड़...में...चेतन...में...जड़
क्षुधाकार इयत्ता
उमसमय दीन विस्तार
दृश्य नुचे दृगो ज्यों असंख्य गह्वर—अनिमेष भंवर
सर्पमुख-से तम-द्वार
वे ज्वलंत कृश आंते कांपती-सी!,
इंगित हो टेरती लक्ष हुंकार
स्वप्नतत्व लीपे अनगिन कारागार
जाने कौन छिद्र में ऊंघता कौन अंधकार !
हर रंध्रांधकार भिन्नतर...भिन्न दूसरे से पहला गार –एक फिर भी!
अंदर अंदर सन्निपात! ज्यों नसों से टकराती नसें
समय की अंधी फुंफकार उस तंग विस्तार में
सघन-तम-तुलित घूमता-सा काल-इंद्रजाल
दीप्त छाह की तह की तह में सड़ते कई मर्म
अनुभव-अंडकोष्ठों से टूटते अजीब जीवाश्म !
सब संचयन सम संबद्ध—समयातीत संचलन
जाने क्यों आज से निकलता एक अतीत क्षण
जाने कहाँ भविष्य में खोजने को?
विक्षिप्त कनखजूरे-सी बुनी हुई महाविभ्रांति
रेशा रेशा घिनौने पैर गढाती
भागती रहती कपाल में—उन्मत्त!
मधुर स्मृति-दृश्यों पर लदी पीड़ा कीड़ियों की पीढ़ी
सिहर कर घुसने लगती उन दृश्यों में
आह! अब कितने खाली
दृश्य मेरे
माया!
मुक्त जटिल कुंतल जाल, कंपित!
दुर्बोध—महामाया का भैरवी नृत्य
झम झमा झम झम...
खनकते शस्त्रों से विकृत न्यूरॉन्स-स्फुलिंग
तड़ित्-ताल पर चटकती नसें
क्षतक्षण की विद्युत झलक में
लक्ष न्यूरॉनगर्भो से जन्मते कहीं दैवीय भूत
आपस में कट मरने को
बज उठती कितनी कितनी ठठरियां उन तप्त अंतों में !
दंशी जीव सुख-दुख के–चूर डोपामिन में
वे ऑरोबोरोस निगलते रहते एक दूजे को
जाने किन सुन्न नस रंध्रों में–जाने कहाँ?
जाने कहाँ-कहाँ रश्मि द्वार?
जाने क्या इस सुप्त दिशाभ्रम के
इस महाआकृति के पार?
कितना कुटिल–कोहरीला!
ध्वनि से भिन्न ध्वनियों की बुदबुदाहट
कितनी गत-अनागत घटनाओं के आवर्ती गुब्बारों में,
वहीं कहीं! जाने कहाँ?
अभ्यंतर में गुम रेंगता मैं—सह विषैले कीटकाय विचार
उलझा हुआ उन चिपचिपी गर्तमय नसों में
किसी एक में हूँ आज अटका हुआ–ख़ून का थक्का!
मुझ पर भी रेंगते वे विशग्रासी कीट
उन्हीं का मंत्र-पुत्र मैं
अपने ही मस्तिष्क में सिर दिए
धंसा हुआ हूँ
कितने कितने खुरंड मुझ में भी
मैं भी वल्मीक—एक जीर्ण-प्रसारण विवर समूह
“हूं” से दूर अंदर कही दूर...भीतर के पिछे कही पीछे हूँ।
हर्षवर्धन सिंह (जन्म 17 अप्रैल 2005 ) नवयुवा कवि हैं। यह उनकी कविताओं के कहीं भी प्रकाशित होने का दूसरा अवसर है। ईमेल : hrao13787@gmail.com
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कविता समझ में आने वाली होनी चाहिए, वरना उसका महत्व खत्म हो जाता है।