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काश ऐसे ही फूल हमारी ज़िंदगियों में भी खिल पाएं

  • golchakkarpatrika
  • Jun 4
  • 8 min read

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मेरी नज़रें फ़ोन पर हैं। आज माँ से बात नहीं हुई। देखा तो अवंतिका के घर से दो मिस्ड कॉल आए थे। अवंतिका मेरी रूममेट है। उसका फोन अक्सर कवरेज क्षेत्र के बाहर बताता है। कई बार कहा भी मैंने उससे कि सिम बदल लो, पर अब तक ध्यान नहीं दिया उसने। मजबूरन उसके घर वाले मेरे नंबर पर फ़ोन कर लिया करते हैं। उन्हें फ़िक्र होती होगी अपनी बेटी की। असुरक्षा के भाव हों शायद उनके मन में कहीं ना कहीं। असुरक्षा के मध्य में 'सुर' आता है पर उसके आगे लगा 'अ' उसे असुर बना देता है। असुर याने कि राक्षस, दैत्य, पिशाच या दानव जो हर जगह हमारा पीछा करता रहता है।


अपने डेंटल कॉलेज की छुट्टियां शुरू हो गई थीं एक महीने की। याहू...! एक महीने की मौज! भारी बैग लादकर सुबह सुरक्षित पहुँच गई थी मैं अपने घर तक।


सोच-सोच कर दिल बाग-बाग हो रहा था। उसी शाम मोहल्ले का एक चक्कर लगाने निकली। कितना बदल गया था सब कुछ। जब यहाँ हमारा नया मकान बना था, तब दो घरों के अलावा सिर्फ़ खेत-खलिहान ही हमारे अड़ोसी-पड़ोसी थे और आज जब सर उठाकर ठीक से मैंने देखा तो जैसे काया पलट हो गई हो। अचंभित सी मैं आगे बढ़ती रही। तीन मकान ऐसे दिखे जो एक जैसे बने थे। एक तरह के रंगों से पुते हुए। एक साथ खड़े। एकाएक याद हो आया, अरे यहीं पर तो था वह मैदान जहाँ मोहल्ले के सभी बच्चे खेलते थे बैडमिंटन। यहाँ तो घर बस गए अब!


मोहल्ले का एक चक्कर लगाकर घर की ओर मुड़ते मेरे क़दम जाने कैसे नदी की ओर मुड़ गए। एक सम्मोहन सा था कि मेरे पांव सीढ़ियों से तेज़ी से कूद-कूदकर नीचे ले गए मुझे। वहाँ, जहाँ नदी बह रही थी। केलो नदी। यक़ीनन, यह वही नदी थी जिसे वर्षों से जानती हूँ मैं। पहाड़ीनुमा पथरीले रास्तों के नुकीले पत्थर चलते समय कष्ट दे रहे थे मुझे, पर किसी तरह जींस को घुटनों से थोड़ा नीचे तक मोड़ और चप्पलों को एक हाथ में पकड़े जा पहुँची नदी के जल तक मैं। नदी बह रही थी कल-कल की आवाज़ के साथ। मैं दौड़ रही थी पानी में छप्प-छप्प।  मेरे साथ दौड़ रहे थे मोहल्ले के दस-बारह और भी बच्चे। मैं दौड़ में सबसे आगे निकल गई। अचानक पीछे मुड़कर देखा तो सहम सी गई। कहाँ गए सारे बच्चे? अभी तो दौड़ रहे थे यहीं। बच्चे अब बड़े हो चुके हैं। कुछ की शादियां हो चुकी हैं। कुछ अन्य शहरों में पढ़ रहे होंगे। मैं घर लौटने को मुड़ी ही थी कि मेरी निगाह पानी के भीतर तैरती नन्ही मछलियों पर पड़ी। उन्हें देखकर यादों के किवाड़ खुलते चले गए। 


"मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है" और "बोल री मछली कित्ता पानी" जैसी पंक्तियां यादों का एक वैभवशाली घरौंदा बना देती हैं मेरे भीतर आज भी। बचपन लौट आता है भीतर। मुझे याद है आज भी। चूहेदानी में एक बार एक चूहा फंस गया था। तब मैं, भैया और छोटी ने उसे जलाने की कई नाकाम कोशिशों के बाद इसी नदी में छोड़ दिया था कि चूहा पानी में डूब कर मर जाएगा। मगर यह क्या! चूहा तो तैर कर नदी के उस पार चला गया। 


मैंने नदी को गौर से देखा। रायगढ़ को कस्बे से शहर बनते देखा है इस नदी ने। जाने कब से बह रही है। जाने क्या कुछ भर रखा है इसने अपने भीतर। जाने कितनी स्मृतियां। कितनी कथाएं। कितने बचपन।


कभी बरसात में बाढ़ बनकर अनजान राहगीरों और पशुओं को बहा ले जाती है, तो कभी गर्मी की तपती धूप में थोड़ा ठहरकर शहर भर की गंदगी को संचित कर धीरे-धीरे सरकती रहती है। नदी का अंततः एक ही तो धर्म है— बहते रहना, सरकते रहना। प्राणों के सूख जाने तक। यही धर्म तो कारण है संसार भर की नदियों की एकात्मकता का। केलो ने भी पालन किया होगा इस धर्म का। इसके गवाह हैं उसे घेर कर खड़े नंगे पहाड़ जो जाने कब से उसे देख रहे हैं एकटक। कभी सूने रहे होंगे इन पहाड़ों के वक्षस्थल, पर आज चरवाहों के उन पर चढ़ जाने से वे भरे पूरे से हो गए हैं। 


आज सूनापन कहीं नहीं रह गया। नंगे पहाड़ों में भी नहीं। इसकी वजह है बढ़ती आबादी। आबादी ने जाने कहाँ-कहाँ पांव नहीं धंसा लिए अपने। सदियों से अकेली बहती केलो भी अब अकेली न रह गई। उसे घेर लिया है जाने कितने विवादों ने। आलेखों ने। राजनीति ने। कविताओं ने। कुटिल निगाहों ने। निर्माण कार्य से भी अधिक विवादित हो गया उसका नाम। केलो बांध। आखिर किसके नाम पर रखा जाए बांध का नाम? किससे पूछें यह प्रश्न? इन नंगे पहाड़ों से?  या उस खुले खुले आसमान से?  मैंने ऊपर आकाश को देखा। जाने कितनी बार बनती रही होंगी उस पर बादलों की आकृतियां नदी में आ मिलने के पहले। एक निः शब्द प्रेम संदेश। सिवाय टिप-टिप की आवाजों के। 


नदी सहसा एक पुरुष में तब्दील हो गई। एक लंबी कद-काठी का ताकतवर पुरुष, जिसकी दाढ़ी सफ़ेद और लंबी है और जिसने समय की खाल पहन रखी है। पुरुष पानी की धारा में बहता दूर चला गया और मैं उसे आँखों से ओझल होने तक देखती रही। सूर्यास्त हो रहा था। मैंने घर लौट चलने का फैसला किया। घर एक सुंदर शब्द है। दुनिया की हर धूप-छांव से बचाने को एक सुरक्षा कवच सा शब्द। मगर दुनिया सुरक्षा कवच तोड़कर मेरे घर के भीतर घुस आई है। टेलीविजन पर पत्रकार चीख-चीखकर ख़बरें कह रहे हैं। मोबाइल की घण्टियाँ बज रही हैं। सोफे पर पसरते ही कोने में संजो-समेट कर रखा अख़बार मेरी निगाहें बरबस खींच रहा है अपनी ओर। मेरी उँगलियों ने थाम लिया है उसे। रायगढ़ पृष्ठ पर मेरी नज़रें जमी हैं। कुछ ख़बरें ख़ास शहर की हैं और कुछ गाँव-जंगलों की। जंगलों में आदमखोर भेड़ियों ने जन्म लिया है। भेड़िए बहुरूपिये हैं। वे एक जैसे नहीं दिखते। उनके रूप बदलते रहते हैं। वे एक जगह टिकते भी नहीं हैं। कभी नक्सली बनकर जंगलों में टहलते रहते हैं तो जी भर जाने पर, कभी उद्योगपति बनकर पूरे नगर में फैल जाते हैं। जब वे उद्योगपति बने तो पता चला वे सिर्फ़ मनुष्यों को नहीं खाते; गाँव, जंगल, कोयला, लोहा सब चबा जाते हैं। वे इतने ताकतवर हैं कि समाज उनका बहिष्कार नहीं कर सकता। वे समाज को ही बहिष्कृत कर सकते हैं। 


मैंने विचलित होकर अखबार वापस समेट कर रख दिया। मैंने सोफे पर पसरकर अपनी आँखें बंद कर ली हैं। मेरी आंखों के आगे कॉलेज की शक्ल है। वहाँ सप्ताह भर के छ: दिन यूँ गुज़र जाते हैं सफ़ेद कोट पहने-पहने और फिर आता है सातवां दिन, जब धोना होता है सफेद कोट को रगड़-रगड़कर आने वाले छ: दिनों के लिए। मेरी एक उँगली में जलने का काला निशान है। गर्म मोम गिर गई थी उस पर नकली दाँतों को रिम में सैट करते वक़्त। मोम जैसा कोमल और सुंदर पदार्थ गर्म होने पर पिघल कर चमड़ी को जला भी सकता है। मेरी उँगली पर मौजूद काला निशान सबूत है इस बात का। एक बार बुंसन बर्नर की धधक उठी आग में मेरा चेहरा जलते-जलते बचा था। तब आग की गरमाहट को अपने बेहद करीब महसूस किया था मेरे चेहरे की त्वचा ने। बाद में पता चला कि अवंतिका के कुछ बाल जल गए थे उसी दिन बर्नर की आग में। ग़लती न बर्नर की थी, न लैब के कर्मचारियों की। ग़लती तो अवंतिका की थी कि उसने हेड कैप नहीं लगाया था। उसकी असावधानी का परिणाम थे उसके जले हुए बाल। असावधानी भी असुरक्षा को जन्म दे सकती है। सावधान रहना बेहद ज़रूरी हो चुका है। कुछ टीवी चैनल वाले सचेत भी करते रहते हैं… सावधान इंडिया! एक रात ऐसा ही एक टीवी शो देखकर सोई थी मैं। रात को फट-फट, धड़ाम-धड़िम की तेज़ आवाज़ों से अचानक उठ बैठी। सांस अटकने लगी। हवा में बारूद घुलने का सा एहसास हुआ। बाद में पता चला कि किसी की बारात निकली थी। पटाखे फूटे थे। आजकल पटाखे और बम की बिक्रियों में बहुत फ़र्क़ रहा भी कहाँ, बस क़ीमतों का फ़र्क़ होगा। इन दिनों असुरक्षित महसूस करती हूँ कभी-कभी खुद को। लोकल ट्रेनों में टीटी नहीं आता। इससे गुस्सा होकर एक बार बिना टिकट के ही घर चली आई। फिर मम्मी की हिदायतों के बाद दोबारा ऐसा न करने का फैसला लिया। 


मुझे भूख लगी थी पर माँ थी कि टेलीविजन पर संत जी का भाषण सुनने में व्यस्त थी। संत जी किसी वाक्य में निहित अर्थों को समझा रहे थे। किसी वाक्य के कई अर्थ हो सकते हैं। इस संदर्भ में एक वाक्य याद आता है मुझे। दसवीं कक्षा की कंप्यूटर साइंस की क्लास शुरू ही हुई थी। दीपेश्वर सर अभी-अभी पधारे हैं। इसके ठीक पहले हिंदी की क्लास लगी थी। सामने ग्रीन बोर्ड पर सफेद चाक से लिखा है ...'फूटा प्रभात'!  दीपेश्वर सर ने माहौल को हास्यपूर्ण बनाने के लिए शब्दों की अनेकानेक परिभाषाओं को समझाने का माद्दा रखते हुए कहा ..."यहाँ जो लिखा है, ‘फूटा प्रभात’, इसके दो अर्थ हैं। एक सुबह हो गई, दूसरा प्रभात फुट लिया या कह दो कि नौ दो ग्यारह हो गया। फिर वह अपनी ही बात पर ठहाके लगाते हुए अपना मटका स्वरूप पेट हिलाने लगे थे। बाद के दिनों में मॉर्निंग वॉक कर-करके उन्होंने अपना पेट थोड़ा स्लिम कर लिया था। 

घर में भगवानों की मूर्तियों के बीच मेरे स्वर्गीय दादाजी और दादीजी की तस्वीरें लगाई गई हैं। उनकी ईश्वर की तरह पूजा-आरती की जाती है। मुझे लगता है जब वे जीवित रहे होंगे, तब भी इसी तरह पूजे जाते रहे होंगे। जहाँ तक मुझे याद है, मेरी पूजा कोई नहीं करता। 


धर्म के रचयिताओं की इच्छाओं का पालन करते-करते दादीजी कैंसर से मरीं और दादाजी पीलिया के पीलेपन से। दादाजी के धुर काले चेहरे पर बिलिरुबिन के रचाए पीलेपन से उत्तेजित किंतु भावविहीन चेहरे और बंद पलकों से ढँकी आँखों को लिए उनकी अंतिम यात्रा चली गई थी क़ब्रिस्तान, जहाँ उस समय मेरा जाना वर्जित था। लड़कियों का शव यात्रा पर निकलना नियमों का उल्लंघन था। धर्म के नियम। धर्म गुरुओं की रचनाएं। धर्म के इतिहासकार। नियमों के कर्ताधर्ता।

आज धर्मों का उल्लंघन आम बात है। लोग जागरुक हो रहे हैं। वे रुक-रुक कर जाग रहे हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर, जैसे सोने वाले अब भी सो रहे हैं, बिकने वाले आज भी बिक रहे हैं। 


मेरी छुट्टियां बिल्कुल छुट्टियों की तरह बीत रही हैं। अभी-अभी मैंने एक्सरसाइज करके अपनी साँसें फुलाईं हैं। मैं सुबह उठ नहीं पाती इसलिए व्यायाम शाम को करती हूँ। अभी बैठी हूँ कि कहीं से संगीत का तेज़ स्वर बज उठा है। बाहर निकल कर देखती हूँ कि पड़ोस का घर बिजली से रोशन है। द्वार पर दो शब्द जगमगा रहे हैं 'शुभ विवाह'! अर्थात विवाह अशुभ भी होते हैं। कल होने वाला दूल्हा आज बार-बार बिगड़ जा रहे म्यूजिक सिस्टम को बनाने के प्रयासों में पसीने से तर-बतर हो चुका है। वापस लौटते वक़्त मेरी निगाहें बगीचे में खिले फूलों पर पड़ी हैं। मेरे मन में ख्याल आया.. काश ऐसे ही फूल हमारी ज़िंदगियों में भी हमेशा खिल पाएं। 


दूल्हे लड़के की मेहनत से डेक बॉक्स ठीक हो चुका है। आधुनिक फ़िल्मी गाने अपने प्रवाह में बजने लगे हैं : एक के बाद एक। मानों कह रहे हों… दो मिनट तू बज ले, फिर मेरी बारी। बॉक्स पर पलक झपकते ही बदलते गाने मानो जीवन के क्षणभंगुर होने की कथा सुना रहे हों। 


मेरी छुट्टियां अब समाप्त होने को हैं। इन छुट्टियों के दरमियान घर के कोने में रखे गमले में गुलाब के दो नन्हे फूल खिल आए हैं। उनके बीच अमूर्त और अनसुनी आवाज़ों का कोई रिश्ता है जिसे मैं सुन रही हूँ। 


बड़ा फूल कह रहा है, बच्चा फूल सुन रहा है : “कल मैं मुरझाकर मर जाऊंगा तब तुम महकाना इस बगिया को!”


लग रहा, जैसे इन छुट्टियों ने मुझे कोई उपहार दिया है। फूलों के बीच चल रही सुनी न जा सकने वाली बातें दृश्य के माध्यम से मुझ तक पहुँच रही हैं। मुझे लग रहा है कि भीतर पहुँच रही अनगिनत चीज़ों में से कुछ में जीवन अब भी शेष है। इस शेष में उम्मीद बची है। सब कुछ नष्ट होने के इस दौर में भीतर जो शेष रह गया है, इस शेष की नमी से उम्मीद के फूल हमारी ज़िंदगियों में भी हमेशा खिलते रहेंगे। इस उम्मीद के साथ मैंने छुट्टियों को अलविदा कहा है।




परिधि शर्मा युवा लेखिका हैं। एक कहानी संग्रह ‘प्रेम के देश में’ शिवना नवलेखन पुरस्कार-2024 अंतर्गत अनुशंसित एवं प्रकाशित। वह कई महत्वपूर्ण मंचों पर अपनी रचनाओं का पाठ कर चुकी हैं।  ईमेल : mylifemychoices140@gmail.com


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