हाइकु : क्षण भर में रोमांच का अनुभव
- golchakkarpatrika
- Sep 25
- 6 min read

वर्षों पहले बाशो (1644-1694) का हाइकु ‘पुराना तालाब’ पढ़ा था। बाशो के बाद बुसोन (1716-1783) का समय आता है। बुसोन के हाइकु दृश्य प्रधान हैं लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो बाशो के इस हाइकु में तालाब में कूदते मेढ़क का दृश्य है जिसे बाशो पानी के स्वर के माध्यम से अदृश्य से जोड़ देते है। हिन्दी भाषा में हाइकु के इस स्वर को थोड़ा और गहरा करती है सौरभ राय द्वारा अनूदित और संकलित हाइकु की यह किताब- ‘ओस की पृथ्वी’। किताब जापान के चार महान हाइकु गुरुओं में से तीन गुरुओं पर आधारित है। किताब को दो भागों में बाँटा गया है। पहले भाग में तीनों कवियों के जीवन की परिस्थितियों, उनके जीवन दर्शन व उनकी काव्यगत विशेषताओं पर चर्चा की गयी है। किताब के इस भाग में यथास्थान भारतीय काव्य धारा के समुचित पहलुओं का भी उल्लेख किया गया है, जिससे हाइकु के नए पाठकों के लिए विषय प्रवेश आसान हो जाता है। दूसरे भाग में अनूदित हाइकु संकलित है। इन्हीं वजहों से यह किताब हिन्दी में इससे पहले तक उपलब्ध हाइकु के अनुवादों, जिनमें अज्ञेय, सत्यभूषण वर्मा के अनुवादों से लेकर सुरेश सलिल द्वारा ‘उत्तर की यात्राएँ’ नाम से बाशो के यात्रा वृत्त का अनुवाद शामिल हैं, से अलग बन गयी है।
किताब बाशो से शुरू होकर इस्सा (1763-1828) तक जाती है। एक ओर बाशो है— भिक्षु कवि जिनकी कविताओं में जेन परंपरा की आध्यात्मिकता है, एक संत का एकांत है, प्रकृति का सौंदर्य है। जैसे यह हाइकु : सुबह के सन्नाटे में/ चाय पीता भिक्षु/ खिलता गुलदाउदी का फूल। इस हाइकु में बाशो की ये तीनों विशेषताएँ एक साथ झलकती हैं। तो दूसरी ओर मौजूद है इस्सा— जीवन से बार-बार हारता, फिर से खड़ा होता एक साधारण-सा व्यक्ति जो अपनी सांसारिक पीड़ाओं से धर्म को देखता है, रोजमर्रा के जीवन से प्रेरित कविताएँ लिखता है। इनके यहाँ ओस की पृथ्वी, ओस की पृथ्वी होते हुए भी यथार्थ है। वह एक ऐसे कवि है जो सपने को सपने के रूप में जानते हुए भी सपने से मोह रखता है। और इन दोनों कवियों के बीच की कड़ी है चित्रकार कवि बुसोन जिनके यहाँ ‘हाइकु शब्दों से गढ़ी गई एक तस्वीर’ है जो ठोस ऐंद्रिक अनुभवों को पाठकों तक पहुँचाती है। यद्यपि किताब में इन तीनों कवियों के बीच ऐसा कोई संबंध स्थापित नहीं किया गया है लेकिन इन तीनों हाइकु गुरुओं के संकलित हाइकुओं को कालक्रम के अनुसार पढ़ते हुए पाठक इस संबंध को महसूस कर सकता है।
हाइकु कविताओं में बाशो की आध्यात्मिकता बुसोन के ऐंद्रिक अनुभवों से होते हुए इस्सा के यहाँ सामान्य जन के कड़े अनुभवों वाले यथार्थ जीवन को अपना लेती है। संकलन में बाशो के एक हाइकु में गरीब लड़का चावल पीसते हुए चाँद को देखता है जबकि इस्सा के यहाँ किसान की पत्नी श्रम के बीच अपने रोते हुए बच्चे की चिंता में है और इनके बीच है बुसोन का हाइकु जिसमें आईने में स्वयं को निहारती कोयला बेचने वाली स्त्री का चित्र है।
एक पाठक को पढ़ने से पढ़ने का सुख मिलता है, वहीं लेखक को लिखने का तब अनुवादक को अनुवाद से क्या हासिल होता है? इस प्रश्न का एक सहज उत्तर यह हो सकता है कि बतौर पाठक एक अनुवादक को पढ़ने से जो सुख मिलता है उसे अपनी भाषा के पाठकों के साथ साझा करने का सुख ही अनुवादक का सुख होता है। गौरतलब है कि यहाँ ‘सुख’ को केवल शाब्दिक अर्थ में नहीं लेना चाहिए। यह दुख या कुछ और भी हो सकता है। अगर सौरभ राय की प्रेरणा भी कुछ ऐसी ही रही हो या उन्होंने किसी और प्रेरणावश यह अनुवाद कार्य किया है, तब भी उनका अनुवाद एक सफल अनुवाद है। लेखक को जहाँ अपने लेखन में एक ही धार पर खरा उतरना होता है, वहीं अनुवादक को अनुवाद में दो धारों पर। उसे मूल कार्य के साथ न्याय करने के साथ-साथ अनुवाद की सुगमता व ग्राह्यता का भी ख़याल रखना होता है।
हाइकु कविताओं की मुख्य विशेषताओं में 5-7-5 का नियम (यानी पहली पंक्ति में पाँच, दूसरी में सात व तीसरी में पंक्ति में पाँच स्वर), बिंबात्मकता, संक्षिप्तता व क्षणिक अनुभव आते हैं। पारंपरिक हाइकु शैली में 5-7-5 के नियम का पालन आवश्यक है। लेकिन अनुवाद में इस नियम का निर्वाह संभव नहीं है। यह जापानी भाषा की ख़ास विशेषता है जो इस गठन को संभव बनाती है। यह ऐसा ही है कि दोहे का अनुवाद संभव है लेकिन दोहे की मात्राओं का नहीं। अन्य भाषाओं में 5-7-5 के नियम का पालन महज खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं। हाँ, कुछ अपवाद हो सकते हैं। अगर अनुवाद में इस नियम के प्रति पूर्वाग्रह पाल भी लिया जाए, जो सौरभ राय ने नहीं पाला है, तब एक तो बहुत से हाइकुओं का अनुवाद संभव नहीं हो पायेगा; दूसरा, अनुवाद में कृत्रिमता भी चली आयेगी। सौरभ राय ने इस नियम के बिना भी हाइकु की आत्मा सरीखी विशेषताओं— क्षणिकता, संक्षिप्तता व बिंबात्मकता को हिन्दी अनुवाद में सहज ही संभव कर दिखाया है। अँग्रेज़ी भाषा में एजरा पाउंड की प्रसिद्ध पंक्तियाँ ( हाइकु या हाइकुनुमा) : प्रकट होना/भीड़ में इन चेहरों का/पंखुड़ियाँ गीली काली डाल पर, 5-7-5 के नियम के बाहर ही संभव हो सकी और अब तो जापान में भी मुक्त शैली में हाइकु लिखे जा रहे हैं।
इस्सा के हाइकु ओस की पृथ्वी/ ओस की पृथ्वी है/फिर भी... फिर भी... के माध्यम से अनुवाद की एक और विशेषता को लक्षित किया जा सकता है। इस हाइकु के अँग्रेजी अनुवादों में ‘World’ शब्द का प्रयोग किया गया है। निश्चित ही अनुवादक ने भी इन अनुवादों को पढ़ा होगा, लेकिन अपने अनुवाद में दुनिया या संसार जैसे प्रचलित शब्दों का प्रयोग न करके ‘पृथ्वी’ शब्द का प्रयोग किया है जो पढ़ने में नयापन तो देता ही है लेकिन साथ ही यहाँ ‘पृथ्वी’ का प्रयोग एक बिम्ब जैसा प्रभाव भी उत्पन्न करता है, यद्यपि इसमें थोड़ी अमूर्तता है। वैसे भी जब हम दृश्य संसार को माया कहते है या ओस की दुनिया, तब उसके साथ थोड़ी अमूर्तता तो चली ही आएगी।
हाइकु पर जेन परंपरा का बहुत प्रभाव है। जेन परंपरा पर चीनी महायान का खासा प्रभाव है और बौद्ध धर्म हमारे यहाँ से वहाँ गया है। तब सांस्कृतिक रूप से हाइकु के दर्शन को ग्रहण करना हमारे लिए मुश्किल नहीं है। इस संकलन में इस्सा के कई हाइकुओं में बुद्ध का ज़िक्र आता है, जिन्हें पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह की कविता ‘बाघ’ के बुद्ध अनायास ही याद आ जाते है।
किताब में एक बात खलती है, वह है मसाओका शिकी की सीमित उपस्थिति। वह किताब के दूसरे अध्याय ‘चाँद कहीं तो है’ से ही अपनी मौजूदगी दर्ज करा देते है और बार-बार अपना ज़िक्र कराते जाते है; लेकिन बस इतनी ही उपस्थिति क्यों? यही खलता है। क्यों नहीं इस हाइकु मास्टर को भी बाकी तीनों की तरह ही किताब में शामिल किया गया?
हाइकु सरल है। आज की दुनिया जटिल हो चुकी है और होती जा रही है। अवसाद एक मनोरोग के रूप में सामान्य रोग बनता जा रहा है। मनोरंजन और सुकून के नाम पर आभासी दुनिया जो कंटेंट हमें सौंप रही है, ख़ास तौर पर जो रील के रूप में उपलब्ध हो रहा है, वह थकाने वाला है और हमारे ऊपर बोझ बनता जा रहा है। उपर से इसने हमें हमारे चारों के वातावरण से विरक्त और उदासीन कर दिया है। आज हम ऊबने के बजाय मानसिक रूप से थकने को वरीयता देते है। ऐसे माहौल में हाइकु की सरलता हमारी मदद कर सकती है। इस जटिल, आपाधापी की दुनिया में जब लंबी, खाली शामें हमें मुहैया नहीं हैं, तब हाइकु के माध्यम से क्षण में रोमांच खोजना हम सीख सकते हैं। इनमें प्रयुक्त बिम्ब, उनकी क्षणिकता हमें हमारे चारों ओर फैले साधारण दृश्यों को सराहने, कभी उनसे आश्चर्यचकित होने, कभी उनसे उपजी ऊब से परहेज़ न करने, कभी किसी कठोर दिन में सहज बने रहने के लिए प्रेरित कर सकते हैं, साथ ही इन दृश्यों में उपस्थित साधारण जीवन से जुडने के लिए भी। किताब के अनुसार, जापान में चाय को विशेष धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त है। जेन भिक्षुओं का मानना था कि निर्वाण प्राप्ति के लिए महान उपलब्धियों और जटिल चिंतन की आवश्यकता नहीं। गहन एकाग्रता और चिंतन के साथ किया गया समान्य सा कार्य भी गहरी जीवन दृष्टि पैदा करता है। हाइकु की यह किताब उपलब्ध है और चाय अधिकांश भारतीयों का पसंदीदा पेय है। तब क्यों न चूल्हे पर चाय के उबलते पानी में बनते-फूटते बुलबुलों पर कुछ देर दृष्टि एकाग्र कर, चाय के बदलते हुए रंग को महसूस किया जाए और चाय पीते हुए इस संकलन मे माध्यम से हाइकु के संसार में प्रवेश किया जाए।
किताब : ओस की पृथ्वी
संकलन-अनुवाद : सौरभ राय
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष : 2019
मूल्य : 395/-
पृष्ट संख्या : 156
जनमेजय युवा कवि है। पोएम्स इंडिया, गोल चक्कर, सेतु में उनकी कुछ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। ईमेल : jjanmejay11@gmail.com
%20(3).png)

