top of page

आशुतोष प्रसिद्ध की डायरी

  • golchakkarpatrika
  • 6 days ago
  • 11 min read
ree


(20 अगस्त 2025)


इधर कुछ दिनों से सुबह, सुबह की तरह होती है। रात जल्दी आँख बन्द कर लेने का प्रयास करता हूँ। जो, जो बन पड़ता है, वो जतन करता हूँ कि सो जाया जाए, और सो जाता हूँ। अपने और अपनों दोनों को रुटीन में लाने का प्रयास कर रहा हूँ। रात देर तक कुछ संवादों पर मन-मस्तिष्क चल रहा था, कुछ घटनाओं पर भी..। मन टूट जाता है कई बार जब बहुत करीबी व्यक्ति दो आँख करते दिखता है। कई बार संवाद से भी वह नहीं समझाया जा सकता है जो सच सच कहना चाहते हैं। कहे को अलग ढंग से इन्टरप्रेट कर लिया जाता है और वो तमाम बातें बेअर्थ और बेमानी हो बह जाती हैं जिनका अर्थ हो सकता था…। ख़ैर, कवि कह गया है कि आदमी की नियति है न समझे जाना। यहाँ आदमी जेंडर विशेष के लिए नहीं, सम्पूर्ण मनुष्य जाति के लिए है। 


रोता हूँ और रोते हुए सोचता हूँ, अब नहीं रोऊंगा। अब छिपकर रोता हूँ, पहले उसके सामने भी रो पड़ता था। 


दिन भर में कुछ विशेष किया नहीं। एक काम जिम्मे लिया है। धन के लालचवश उसका एक अध्याय आज पूरा हुआ। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, जिस दिन दिमाग़ ठीक-ठीक काम करता है, उस दिन मैं दिन भर में कई पन्ने पढ़-लिख दोनों लेता हूँ; जिस दिन नहीं करता, उस दिन एक शब्द नहीं लिख पाता। बलराम कांवट के उपन्यास पर एक व्यक्ति ने समीक्षा लिखवाई थी। अब वह प्रकाशन योग्य नहीं रही क्योंकि वह कई वर्ष पुरानी पुस्तक है। उसे ही पढ़ रहा था। कई बार अपनी ही लिखी बातों पर अचंभा होता है। यह अचंभा मुझे एक कविता संग्रह पर लिखते हुए हुआ था। ऐसे ऐसे वाक्य कि समझ ही नहीं आता कि यह मुझसे ही हुआ है। न जाने किस ज़ेहनियत में था। 


दिन भर में यही सब हुआ। आदर्श (आदर्श रॉय) से दोपहर में देर तक बात हुई। शाम केशव दादा (कवि केशव तिवारी) से बात हो रही थी। उन्होंने बड़ी सुंदर बातें कहीं। एक बात पर मैं देर तक सोचता रहा। उन्होंने कहा- “आज के दस कवियों की कविताएँ एक साथ रख दो और सबका नाम हटा दो तो यह अलगाना और पहचान पाना मुश्किल होगा कि कौन किसकी है।” मुझे जहाँ तक लगता है इसका मुख्य कारण है ज़मीन से कट जाना, अनुभव क्षेत्र का सीमित हो जाना और अपनी दुनिया में मशगूल रहना; अपने बनाए एक आडम्बर में इतना व्यस्त दिखना कि सामने कोई व्यक्ति खड़ा हो तो आप बोलेंगे नहीं, न जाने किस अभिमान में। कभी-कभी मुझे लगता है कि लोग व्यवहारिकी भूल गए हैं। अब सम्बंध गणित पर चलते हैं। चल रहे हैं। 


इधर कुछ दिनों से मुझे यह लगने लगा है जैसे हिन्दी पट्टी में सब सामान्य है— क़त्ल, रेप, छेड़छाड़, सब एक प्रचार तंत्र का हिस्सा हो गया है। आरोपी और आरोपित दोनों चीज़ों को जितना जनरल कर देते हैं, क्या यह उतना होना चाहिए? आरोपी फिर वैसे ही खुला घूम रहा है, इंटरव्यू दे रहा है, किताब आने की योजना हो रही है, यह सब क्यूँ है? और वह समाज जो नैतिक मूल्यों की इतनी बात लिखता है, नीति नियम की दुहाई देता है, उसे लाज तक नहीं आती है; वह हर जगह लार टपकाते खड़ा रहता है। सब कुछ इतना नॉर्मल कैसे हो जाता है? हम मशीन हो गए हैं क्या?


शाम देर तक बाइक लेकर भटकता रहा, साथ दो लोग और भी थे। हम मंदिर गए, नदी किनारे गए, प्रसाद खाया और देर तक नदी देखते खड़े रहे। दिन लगभग लगभग दिन जैसा बीत गया। 


एक डर, एक आशंका हर जगह जैसे बनी रहती है। हम इतना कसा हुआ जीवन जीने को बाध्य हो गए हैं कि कहीं जब खुल जाते हैं तो इतना खुल जाते हैं कि लगता है बह गए हैं। अपने तमाम पढ़े-लिखे पर पानी फिरता सा महसूस करता, अज्ञानता पर लाज करता हुआ बैठा हूँ। यह एक ऐसी शर्म है जिसका अंत अब हो जाना चाहिए। 



(12-15 अगस्त  2025)


जीवन की विसंगति यह है कि विसंगत दिनों में ही हमें सबसे ज़्यादा इच्छाएं घेरती हैं। मन हज़ार राहों पर चलना चाहता है। यह जानते हुए भी कि पाँव सिर्फ़ दो हैं, हम बहुत कुछ कर लेने की इच्छा से इतना भरे होते हैं कि कुछ भी करते हैं और अपनी ऊर्जा को खपाते हैं। ऐसा क्यूँ है कि जब देह ऊर्जा से भरी होती है तो बुद्धि काम नहीं करती और जब बुद्धि काम करती है तो देह शिथिल हो चुकी होती है। 


जाने क्या-क्या कर रहा हूँ, पता नहीं। बहुत कुछ इसीलिए कर रहा हूँ कि भीतर कुछ न करने के अपराध बोध को कम कर सकूँ। कल शाम पिताजी से बात हुई। देर तक बात हुई। वह कुछ भावुक क़िस्म की बातें कर रहें थे। सब ऐसा कहते हैं कि वह ऐसी बातें करते नहीं, पर जाने क्यूँ उन्होंने मुझसे हर तरह की बातें की हैं जिसका हमारे ही घर के और लोगों को शायद मेरे बताने पर भरोसा नहीं हो। पिताओं की छवि ऐसी क्यूँ होती है कि वे हमेशा पहाड़ की तरह देखे जाते हैं। मेरे पिता नदी हैं, बालू के नीचे से बहती नदी। उनका स्वास्थ्य थोड़ा ख़राब है। इधर तीन दिनों से मौसमी जुकाम है। इस घर और उस घर, हर जगह हाल यही है। कोई गाँठ और कमर दर्द से परेशान है, कोई किसी बात से... पर चल सब रहा है। 


आज मैं यूँ ही बैठे-बैठे सोच रहा था कि मैं इन सब में से किसी के प्रति ईमानदार नहीं हूँ, अपने प्रति भी नहीं। उनके पूछे बहुत से सवालों पर घुमा-फिराकर जवाब देता हूँ जबकि जवाब बहुत सीधा होता है। पिताजी की इच्छा है कि मैं और तरह बढूं, कुछ अलग वेकेंसी देखूं पर मेरा मन नहीं है। मैं कह देता हूँ पर करता नहीं, मेरी आत्मा गवाही नहीं देती। शायद भविष्य में पछताना पड़े लेकिन वह पछतावा मंज़ूर है। 


ख़ैर ! 


परसों सुबह-सुबह लक्ष्मण सर (लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता) ने फ़ोन किया। पूछा कि कहाँ हो, हम आपकी तरफ़ हैं। दिनों बाद सर से मिलना हुआ था। बातचीत तो हो ही जाती है पर मिलकर तो बिल्कुल बात नहीं होती। मुझे लगता है जैसे वह मेरी चुप समझते हैं। हम बस ज़्यादातर चुप बैठे रहते हैं। कुछ-कुछ सर ने बताया : जीवन की उठा-पटक, पढ़ाई-लिखाई, लेखन, कवि, ग़ज़लकार सब पर बात हुई। मैंने उनके समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि अगर आप सहमत हों तो मैं आपको हर हफ़्ते एक चिट्ठी लिखना चाहता हूँ और उस चिट्ठी में आपसे आपके जीवन के एक, एक वर्ष के संस्मरण मुझे चाहिए। मैं ऐसे सवाल फ्रेम कर लूंगा कि आप ख़ुद लिख सकें। वह हँस पड़े और कुछ बोले नहीं। दरसअल मैं जितना जानता हूँ, मुझे हमेशा लगता है कि एक गुरु के तौर पर वह जितने बेहतर हैं, जितना पढ़कर पढ़ाते हैं, उतना ही उनका जीवन भी जूझते हुए बीता है। लगभग तो जानता हूँ पर ‘लगभग’ और ‘सब’ में अंतर होता है। सब तो वह ख़ुद ही लिख सकते हैं। उनसे मैं लिखवाना चाहता हूँ। हिंदी समाज उनकी कविता का सही-सही मूल्यांकन नहीं कर पाया। वह लेखक संगठन से भी देर से जुड़े। शायद यह भी वजह हो, या हो सकता है कुछ और वजह हो जो उनके कविता संग्रह पर किसी कवि ने नहीं लिखा जबकि वह कविता संग्रह लगभग सबके पास होगा। इस मुद्दे पर बहुत लिखना उचित न होगा। शायद उन्हें इससे तकलीफ़ हो। लेकिन यह मेरा मन है। मैं इसे नहीं छिपा सकता। जाने को हुए तो कहा : शहर में त्रिपाठी सर (वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी) भी हैं तो आज आपको परेशान करूँगा…।


त्रिपाठी सर से देर दोपहर में मुलाकात हुई। लगभग 45 मिनट पसीना-पसीना हुए वह आयोग से आए। जैसी मुझे सूचना मिली थी कि सर जल्दी में हैं, उन्हें निकलना है तो आप देख लीजिएगा। मगर त्रिपाठी सर ठहरे ठेठ बनारसी, मुझे नहीं लगता कि सर कभी गाँव में रह पाए होंगे। हमेशा अलग-अलग शहरों में ही रहे‌। पर उनके भीतर उनके हाव-भाव में, उनकी बोल-चाल में, सब में गाँव के वो काका दिखते हैं जो हड़बड़ी में जा रहें हों और अगर आप बोल भर दें तो फ़ुरसत से खड़े हो बतियाते हैं। हम लगभग 3 घण्टे साथ रहे। सुरती मलकर खाते मस्त अपनी लय में चलते रहे। उनके पास हर तरह के क़िस्से हैं। अकादमिक जगत की हर राह से वह गुज़रे हैं।

उनके साथ या आसपास रहते हुए लगता है— समय दशमलव के कई अंक पीछे की रफ़्तार से चल रहा है। ख़र्च किए एक-एक पैसे का हिसाब देकर गए। 


शाम को मंदिर गया था। दिनों बाद सुकून की कोई लय लगातार सुनता रहा। एक हँसी, एक छेड़ लगातार गूँजती रही। फिसलते रास्ते पर हम सम्भलकर चलते रहे और अन्ततः सही राह पा गए। अब इस राह की स्वीकार्यता दिखती है। झिझक ख़त्म हो गयी है, इससे भीतर संतोष रहता है। कोई दो आँखें जब आपको अपनी आँखों की तरह देखने के लिए हों तो आप दुनिया के सबसे मजबूत आदमी होते हैं। 


इन दिनों दोहों पर काम करते हुए जब, जब फ़ोन का कैमरा ऑन करता हूँ, भीतर तक कंपकंपी होती है। चिट्ठी और डायरी की याद आती है। मन होता है, उस तरफ़ फिर से बढूं। पर नहीं, कहीं-कहीं मोह घातक होता है। आप अटक जाते हैं। मैं इस राह में तो नहीं अटकना चाहता। इन दिनों बांग्ला साहित्य का इतिहास देख-पढ़ रहा था। अद्भुत चीज़ें जानने को मिल रहीं हैं। एक कवि के विषय में जानकारी हुई। नाम है चंडीदास। उन पर बात करूँगा किसी रोज़…।


एक साथ कई चीज़ करता हूँ और कुछ नहीं करते हुए आदमी  की तरह दिखता हूँ। सब चल रहा है। चलेगा ही। यूँ भी कुछ कब, कहाँ रुकता है। 


पता नहीं क्यूँ इधर कुछ दिनों से मुझे एक बात बहुत गहराई से महसूस होती है कि हमारी सभ्यता के लोगों ने हर व्यवस्था के हर आयोजन में सिर्फ़ प्रवेश करना सीखा है, निकलना नहीं। हम सब अभिमन्यु हैं और हमारे पास कोई अर्जुन, कोई कृष्ण नहीं। 



(26 मई 2025)


मन बड़ा व्यसनी है। मन धूर्त है। मन बहानेबाज़ है। मन सहारा खोजता है। मन बिल्कुल उस आदमी की तरह है जो बैठते ही आधा लेट जाने का प्रयास करता है। ये सब वाक्य मेरे नहीं हैं, मेरे पिताजी के हैं। परसों की रात फ़ोन ‌करके मखा गए। उन्हें मेरी याद आ रही थी। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ रही है (यह लिखते हुए मुझे इतना डर लग रहा है कि मेरी आँखें भरी हुई हैं।) वह और भावुक होते जा रहे हैं। मैं सेम टू सेम उनकी कॉपी हूँ। लगभग वही स्वभाव है। बस वह ज़्यादा कामकाजी और दृढ़ निश्चयी आदमी हैं। मैं नहीं, मैं आलसी हूँ। मैंने शाम योजना बनाई कि हम जा रहें हैं उनके पास, पर अन्ततः मैं गया। उन्हें बिना बताए ट्रेन पकड़ी और उनके सामने खड़ा हो गया। रास्ते भर अकेले था पर मेरे अकेले में दो का साथ बना रहा। उसके पाँव में सूजन थी, सुबह उठने में उसे समस्या भी होती है और मैं प्रेमासक्त उसे जगा न सका।  अगले कुछ घण्टे बाद मैं उनके सामने था। मुझे देखते ही भैया.. बोलकर सीने से कस लिया और रोने लगे। पूछ रहे थे- "उसे क्यूँ नहीं लाए?" मैंने कारण बताया। वह बैठे, मुझे ऐसे दुलारते रहे जैसे गाय अपने नवजात बच्चे को दुलारती है। मैंने फ़ोन किया और उनको पकड़ा दिया। ‌पापा मुश्किल से दो शब्द बोले होंगे और फिर रो पड़े। उनकी आँखों में ऐसे आंसू मैंने बाबा के मरने पर देखे थे जब वह दालान वाले कमरे के दरवाजे का एक पल्ला पकड़ कर बस फफक-फफक कर रो रहे थे। आदित्य की मृत्यु पर तो जैसे पत्थर हो गए थे। महीने भर बाद एक दिन बाहर बैठे-बैठे रोने लगे थे। दादी की मृत्यु पर भी…। मैं उन्हें देखकर रोने लगा तो वह चुप हो गए। पुरुषों में यह अजीब ताकत होती है कि वे अपने प्रिय को कष्ट में देखकर अपना कष्ट भूल जाते हैं। थोड़ी देर में एकदम सामान्य हो गए। मेरे पहने कपड़ों की बुराई करने लगे, “जबसे तुम ख़ुद कपड़ा लेने लगे, अच्छा नहीं लेते। बुजुर्गों जैसे रंग पहने हो। बढिया शुद्ध कॉटन पहना करो। पहनने और खाने में जितना अच्छा हो सके रहो। चलो कपड़ा ख़रीद देते हैं।” हमने मना किया कि पापा है अभी। फिर कहे, “अच्छा चलो उसके लिए ले लो।” फिर कहे “नहीं, आएगी बिटिया मेरी तो साथ चलेंगे लेने…।” 


बीते दिन उन्हीं के साथ रहा। उन्हें अभी भी लगता है, मैंने हिंदी लेकर ठीक नहीं किया। लिखना मेरी ज़िंदगी की अस्थिरता का सबसे बड़ा कारण था। कह रहे थे- “तुम लोगों का उपकार करने में लगे रहे। जो तुम्हारे साथ रहे, सब सेट हो गए, तुम रह गए। तुम सबके बाप बन जाते हो। तुम जितने अच्छे थे पढ़ने में, तुम्हारी सिटिंग कैपेसिटी पर मुझे घमंड होता था, पर सब बेकार कर लिया। आज कुछ कर रहे होते तो तुम्हारी शादी करता। मैं इस नौकरी से इस्तीफ़ा देता। सुकून से घर रहता, परिवार के साथ.. नौवीं से बाहर ही ज़िंदगी बीत गयी— कभी गत्ते ढोते, कभी दवा बेचते, कभी कुछ करते। नौकरी भी वो लगी जो मैं कभी करना नहीं चाहता था। कचहरी की नौकरी कालिख़ की कोठरी में रहने जैसी है। मुझे यहाँ ऊब होती है, पर जब जब छोड़ने का सोचता हूँ, तुम सबका चेहरा याद आता है। 56 साल का हो गया कुछ न कर सका तुम लोगों के लिए..‌।" फिर चुप हो गए..। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, “ठीक है सब, परेशान न हो। जो मन करे, तुम लोग करो। मैं हूँ न, बस ख़ुश रहो।” 


मैं उनसे ऑपरेशन सिंदूर के बारे में बात करने लगा। उनकी बात से मुझे लगा वह बिल्कुल बुराई सुनने के मूड में नहीं हैं। उनके लिए बीजेपी ही एकमात्र पार्टी है जो ऐसा कर सकती है। मैंने कई उदाहरण दिए, कुछ बातें बताईं। अंततः वह माने। बोले, “हैं तो सब साले कुर्सी के भूखे। ख़ुद ही करवा दिए होंगे। इनके लिए क्या अर्थ है? ज़िंदगी है।” फिर आ गए इस बात पर कि “दलाल तो वो लोग भी थे जो बच गए। जब आप किसी की इच्छा के विरुद्ध कुछ कर रहे हैं और आप उस आदमी के लिए बुरे न बनकर ख़ास बनते जा रहे हैं, यह कैसे? देश की आज़ादी के प्रयास में इतने लोग मरे, निर्दोष भी, यही कुछ लोग क्यूँ बचे रह गए ? युद्ध में विरोधी दल के वही सैनिक बचते हैं जो या तो समर्पण कर दें या मुखबिरी के लिए तैयार हों?” मैं कुछ नहीं बोला। मुझे पता है, ऐसे तर्कों पर लम्बी बहस हो सकती है। मैं इतना बतकही करने वाला आदमी नहीं। 


मैंने उनसे नक्सल आंदोलन के विषय में भी पूछा। वहाँ उनकी राय बिल्कुल ठीक थी। उन्होंने कहा- “जो वर्ग अपने हक़ के लिए खड़ा हो जाता है, वह व्यापार और राजनीति के लिए नक्सली हो जाता है। नक्सली के नाम पर आदिवासियों को ख़त्म कर जंगल कब्जाए जा रहे हैं। अंबानी के बेटे इतना बड़ा जू खोल लेते हैं। कैसे? और यहाँ हम एक कुत्ता पाल लें तो नगर निगम में ब्यौरा देना पड़ता है।” 


शाम फिर मैं चलने के लिए हुआ तो पापा बोले, “चलो बताशा (पानीपूरी) खा लेते हैं।” हम बोले, “नुकसान करेगा।” तो कहने लगे, “नुकसान तो सांस लेने पर भी कर रहा है। क्या करूँ?” और चल पड़े। खाए। दरअसल हमारे पापा थोड़ा मसालेदार खाने के शौकीन हैं। यह शायद आधी उम्र अकेले बनाते, खाते रहने की वजह से है। बीमारी की वजह से बहुत कुछ छूट गया लेकिन अब भी उनका जब मन कर जाता है तो सब दरकिनार कर देते हैं। 


अमीनाबाद में घूमकर मम्मी और दीदी के लिए सूती साड़ी ली, तब उनको सुकून मिला। हर रविवार की शाम अमीनाबाद घूमना और जबरन कुछ न कुछ लेना उनका शौक है। 


लौटते हुए जिस रास्ते से लौटा, वह मेरे लिए विशेष रास्ता है। थोड़ी यादें, थोड़े आँसू भरे बैठा रहा। ट्रेन धड़ धड़ धड़ धड़ चलती रही। मैंने एक किताब आते-जाते में पढ़ी—गिरीश कर्नाड का जीवन संस्मरण। इतनी अद्भुत किताब कि मन अजीब हो गया। जीवन के इतने अलग-अलग बिम्ब कि क्या बताएं। उनकी माँ और बड़े भाई भालचंद्र से जुड़ी बातों से मन हिल गया। जातीय और नस्लीय भेदभाव, एक स्त्री का अकेले खड़े हो जाना, बच्चों की परवरिश से जुड़ी तमाम मार्मिक बातें..। इसे हर माता-पिता, बच्चों और बनने वाले माता-पिता सबको पढ़ना चाहिए। अनूदित पुस्तक है पर ग़ज़ब लय है। 'यह जीवन खेल में' यही नाम है किताब है। 


जनरल डब्बा था तो सीटों की क्षमता से ज़्यादा लोग भरे थे। गर्मी इतनी कि कुछ पूछो मत। कहीं कोई बच्चा लगभग आधे घण्टे से रोये जा रहा था‌‌। सामने ही दो नई उम्र के लड़के बैठे थे। उनकी बातों और हरकतों से मन क्रोध से भर रहा था। मगर क्या ही कहें...? स्टेशन पर उतरा तो पहले उल्टियां हुईं। थोड़ी देर वहीं बैठा रहा। फिर पैदल चलते हुए घर तक आया। रात देर तक मुझे नींद नहीं आई। अपने बीते बरसों को उलटता-पलटता रहा। कहीं लगता, पापा ठीक कह रहे थे तो कहीं लगता, नहीं। मैं अपने को ही काटता रहा, अपने को ही जोड़ता रहा। शायद सुबह नींद आई..। कभी-कभी देह, देह का साथ चाहती है, मगर…। 


ख़ैर... सब ठीक है।



आशुतोष प्रसिद्ध युवा कवि एवं गद्यकार हैं।  उनकी रचनाएँ विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स व पत्रिकाओं में देखी गयी हैं। उनसे पूर्ण परिचय के लिए देखिए : शब्द शरीर। ईमेल :  ashutoshprasidha@gmail.com



2 Comments


Yadvendra Pandey
4 days ago

आशुतोष प्रसिद्ध को पहली बार पढ़ा लेकिन पढ़ते हुए लगा कि पहले क्यों नहीं पढ़ा। मन के अंदर बहती नदी और बाहर के भागमभाग के बीच संगति बिठाना मुश्किल है... दोनों की उपस्थिति पानी में झिलमिल करते चांद सरीखी।

यादवेन्द्र

Like

Guest
6 days ago

सबकुछ अपना सा लग रहा

Like
bottom of page