मदन कश्यप की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jan 2
- 6 min read
Updated: Mar 7

बस चाँद रोएगा
मेरे न रहने पर बस चाँद रोएगा
और किसी के रोने की ज़रूरत भी नहीं
केवल वही जानता है मेरा अकेलापन
उसके साथ ही तो की हैं सबसे ज़्यादा बातें
उस पर कुछ लिखा नहीं फिर भी
हम जिसे प्यार करते हैं
बस प्यार करते हैं
इश्क की बतकही की
दरअसल कोई भाषा नहीं होती
जलाना नहीं
मुझे आग से बहुत डर लगता है
दफनाना नहीं
मुझे दम घुटने से और भी डर लगता है
इस देह को दे देना
चिकित्सा विज्ञान के छात्रों को
कोमल किशोर अंगुलियाँ जब छुएंगी
उत्सुकता से भरी आँखें जब निहारेंगी
मुझे अच्छा लगेगा
इतना अच्छा कि चाकुओं से काटे जाने का
दर्द भूल जाऊँगा
यह महसूस करना कितना सुखद होगा
कि मरा हुआ शरीर
जीवन का ज्ञान बढ़ाने के काम आ रहा है
मुर्दाघर में हर रात चुपके से आ जाएगी चाँदनी
मेरे घावों को सहलाएगी
कई दिनों तक कई कोणों से मुझे काटा जाएगा
हर कटाई के बाद मेरे भीतर से निकलेंगे
दुख, करुणा, प्यार
और अकेलापन भी
बच्चे उसे देख नहीं पाएंगे
लेकिन वहाँ छुपकर बची रह गई चाँदनी
सब समेट लेगी चुपके से
और रात में लेकर चली जाएगी चाँद के पास
बहुत रो चुका चाँद तब मुस्कुराएगा!
और आखिरी निवेदन
मरने के बाद मेरी मूर्ति नहीं बनाना
कभी न कभी कोई उसे तोड़ देगा!!
चार लड़कियाँ
धरती पर लेटी हुई खिलखिला रही थीं
एक दूसरे से लिपटी चार लड़कियाँ
पृथ्वी की गोद हो रही थी गरबीली
पीछे से दूसरी थी सबसे बड़ी
और सबसे छोटी सबसे पीछे
सबसे आगे थी दूसरी
जिसकी और बड़ी के बीच में थी तीसरी जो कुछ-कुछ बड़ी की अनुकृति लगती थी
घास की हरी चादर
धीरे-धीरे होती जा रही थी और-और मुलायम
बीच-बीच में उगे थे
नन्हे-नन्हे सफेद फूल
बिखरे हों जैसे उनकी हँसी के मोती
उनके पास आकर
कुछ-कुछ सकुचा रही थी बसंती हवा
कुछ वह नहीं कह पा रही थी
जो कहना चाह रही थी
सूरज की किरणें
उनका स्पर्श पाते ही
भीग जा रही थीं लज्जा से
यह पृथ्वी उतनी ही सुंदर बनी रहनी चाहिए
ठीक उस समय जितनी वह थी
कुछ दूर बह रही नदी
कोशिश कर रही थी
उछल कर उनके पास आने की
सपाट मैदान में दक्षिण की ओर खड़े इकलौते पेड़ ने
हवा को हरकारा बनाकर
कुछ पत्ते भेजे उनके पास!
पराजय का गीत
कुछ लोभी इच्छाएँ अगर अब भी हैं
तो रहें
पड़ी रहें मन के किसी कोने में
मैं तो इस पराजय को क़ुबूल करता हूँ
और आगे इसी के साथ जीना चाहता हूँ
बैचैनी में तो बीतेंगी विजेताओं की रातें
उन्हीं पर होंगी विरोधियों की घातक निगाहें
साजिशें भी रची जाएंगी उन्हीं के ख़िलाफ़ इतिहास रचने के अपने दम्भ से
हलकान भी वे ही होते रहेंगे
मैं तो चुपचाप चला आया हूँ
शिकस्तगी के इस ख़ूबसूरत शांत संसार में
जहाँ लहरा रही हैं भरोसे की फसलें
खिलखिला रहे हैं भलमनसाहत के कारखाने
विजेता, तुम्हारी उन्मादी दुनिया से कहीं बहुत बेहतर है
हम पराजितों की मासूम दुनिया
एक ताकतवर स्वपोषित निरुपायता में जीते हुए
अपने मृदुल आत्मगौरव को बचाए रखना हमारा मक़सद है
तुम्हारी जीत में नहीं
हमारी हार में ही बची रहेगी मानुषिकता
तुम्हारे चमकदार हथियारों को देखकर
मैं धीमे से मुस्करा दूँगा
क़ातिल इरादों को भाँप कर
कुछ और किनारे हो जाऊँगा
तुम्हारे विजयी सेनानियों को चुपचाप गुज़र जाने दूँगा
ताकि वे लौटकर अपने उन बच्चों से मिल सकें
जो उनके अभियान पर निकलने के बाद पैदा हुए
मैं रचूँगा पराजितों के लिए गीत
जिनकी संख्या हमेशा विजेताओं से अधिक होगी
हथियारों से नहीं
श्रम और संगीत से सिरजी गई है यह दुनिया
मैं गाऊँगा
हाँफती हुई नदियों के लिए
दरकते पहाड़ों के लिए
सिमटे सहमे जंगलों के लिए
डर और दहशत से, हँसते हुए, लड़ते
करोड़ों लोगों के लिए
जो होंगे हमेशा साथ
और तुम्हारे साथ कौन होगा विजेता
बस एक थका हुआ ईश्वर!
बेतरतीब
मैं उसके पास जाना चाहता हूँ
लेकिन रास्ता नहीं मालूम
रास्ते को ढूँढने का रास्ता भी नहीं
रास्ते के बारे में सोचता हूँ
तो अजीब-अजीब मंज़र सामने आने लगते हैं
कभी कोई पहाड़ आ जाता है
जिसमें न कोई सुरंग होती है न ही कोई दर्रा
जबकि उसको चढ़कर पार करना
भूल चुकी है हमारी सभ्यता
कभी नदी सामने आ जाती है
जिसे पार करने की कोई जुगत नहीं दिखती
न कोई नाव, न ही कोई पुल
यह ऐसा समय है जो भूल चुका है
नदी भी रास्ता है
सब कहते हैं नदी को पार करो
कोई नहीं कहता नदी के साथ चलो
फिर कोई जंगल आ जाता है
लोग बताने लगते हैं आगे जंगल है
कोई रास्ता नहीं
अब कोई तो कहे जंगल भी रास्ता है
इन सबके चक्कर में
मैं अपना सब कुछ खोता जा रहा हूँ
जैसे ईश्वर के चक्कर में
सब खोते जा रहे हैं अपनी मनुष्यता
अन्यायों को सहकर भी
प्रकृति ज़्यादातर न्याय ही करती है
तभी तो चल पाता है जीवन
या वह जो कभी करती है अन्याय
तो इतना क्रूर हो जाती है
कि छोटी पड़ जाती है सारी उदारता
ऐसे ही किन्हीं अन्यायों के बरक्स
पैदा किया गया होगा ईश्वर को
वह रौशनी के शहतीर की तरह चमका होगा
और थोड़ी देर के लिए ख़ूबसूरत लगने लगी होगी
अँधेरे की हौलनाक दुनिया
अन्याय से लड़ने की ताकत नहीं देता ईश्वर
लेकिन अत्याचार सहने की शक्ति तो देता है
मैं उसके पास जाना चाहता हूँ
गोया मुझे पता नहीं
वह ख़ुद अपने पास है या नहीं
कुछ भी और नहीं है उसे देने के लिए
बस बची-खुची थोड़ी सी साँसें हैं
और इन्हें दे नहीं पाने की विकराल विवशता।
नये युग के सौदागर
ये पहाड़ों की ढलान से आहिस्ता-आहिस्ता उतरने वाले
तराई के रास्ते पाँव-पैदल चलकर आने वाले
पुराने व्यापारी नहीं हैं
ये इमली के पेड़ के नीचे नहीं सुस्ताते
अमराई में डेरा नहीं डालते
काँख में तराजू दबाये नहीं चलते
ये नमक के सौदागर नहीं हैं
लहसुन-प्याज़ के विक्रेता नहीं हैं
सरसों तेल की शीशियां नहीं हैं इनके झोले में
इन्हे सखुए के बीज नहीं पूरा जंगल चाहिए
हंडिया के लिए भात नहीं सारा खेत चाहिए
ये नये युग के सौदागर हैं
हमारी भाषा नहीं सीखते
कुछ भी नहीं है समझने और बताने के लिए इनके पास
ये सिर्फ़ आदेश देना जानते हैं
इनके पास ठसठस आवाज़ करने वाली
क्योंझर की बंदूकें नहीं हैं
सफ़ेद घोड़े नहीं हैं
नहीं रोका जा सकता इन्हें तीरों की बरसात से
ये नये युग के सौदागर हैं
बेचना और ख़रीदना नहीं
केवल छीनना जानते हैं
ये कभी सामने नहीं आते
रहते हैं कहीं दूर समंदर के इस पार या उस पार
बस सामने आती हैं
इनकी आकांक्षाएं योजनाएं हबस
सभी क़ानून सारे कारिंदे पूरी सरकार
और समूची फौज इनकी है
ये नये युग के सौदागर हैं
हम खेर काटते रहे
इन्होंने पूरा जंगल काट डाला
हम बूंगा जलाते रहे
इन्होंने समूचा गाँव जला दिया।
हत्यारा
वह तलाशता है अपने लिए सबसे सुरक्षित जगह
और गोलियाँ दागने से पहले पीछे मुड़कर देखता है
बिना किसी डर और दर्द के अँधाधुँध हत्याएँ करने वाला
अपनी मौत से कितना डरता है
हत्यारा जब भी मारा जाता है गोली पीठ में ही लगती है
जिससे डर कर तुम भाग रहे होते हो वह ख़ुद ही डरा हुआ होता है
साहसी लोग हत्याएँ नहीं करते
कभी-कभी अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए धमाके करते हैं
और हँसते-हँसते फांसी पर चढ़ जाते हैं।
मदन कश्यप हिंदी के समादृत कवि-लेखक हैं।
कविता संकलन : लेकिन उदास है पृथ्वी (1992), नीम रोशनी में (2000), कुरुज (2006), दूर तक चुप्पी (2013), अपना ही देश (2014), पनसोखा है इंद्रधनुष (2019), अभी संध्या नहीं (2025, शीघ्र प्रकाश्य)।
चयन : कवि ने कहा (2012) और 75 कविताएँ (2023) शृंखला में संकलन प्रकाशित।
प्रकाशित गद्य कृतियाँ : मतभेद (2004), लहूलुहान लोकतंत्र (2006), राष्ट्रवाद का संकट (2014), लाॅकडाउन डायरी (2023) और बीजू आदमी (2023)।
मज़दूर आंदोलन की पत्रिका 'श्रमिक सॉलिडेरिटी' (धनबाद) से लेकर 'दि पब्लिक एजेंडा' (नई दिल्ली) तक कई पत्रिकाओं के संपादन से संबद्ध रहे और कुछ पुस्तकों का भी संपादन किया। कविताओं का कुछ विदेशी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित समकालीन कविता के संकलनों में रचनाएँ शामिल। बिहार के विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में समकालीन कवि के रूप में पढ़ाये जाते हैं। कुछ अन्य पाठ्यक्रमों मे भी कविताएँ शामिल। दूरदर्शन, आकाशवाणी, साहित्य अकादेमी, नेशनल बुक ट्रस्ट सहित साहित्य की शीर्ष संस्थानों में काव्य पाठ एवं व्याख्यान। दूरदर्शन पर पुस्तक चर्चा के साप्ताहिक कार्यक्रम 'शब्द निरंतर' का 2008 से 2017 तक नियमित प्रसारण। नौ वर्षों के दौरान कोई 400 पुस्तकों पर डॉक्टर नामवर सिंह के साथ बातचीत।
सम्मान : कविता के लिए दिनकर राष्ट्रीय सम्मान (2024), अज्ञेय शब्द शिखर सम्मान (2022), नागार्जुन पुरस्कार (2016), केदार सम्मान (2015), शमशेर सम्मान (2008), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान (1994) आदि।
कवि के योगदान पर केंद्रित तीन पुस्तकें प्रकाशित : ज़्यादा प्राचीन है वेदना की नदी -प्रो. ए. अरविंदाक्षन, मदन कश्यप की काव्य चेतना -प्रो. देवशंकर नवीन, मदन कश्यप का कविकर्म (संपादित) -प्रो.अरुण होता
मदन कश्यप सर की सभी कविताएँ हृदयस्पर्शी हैं। 'हत्यारा' कविता मानव स्वभाव, साहस और कायरता के बीच के अंतर को गहराई से उजागर करती है। इसमें यह दिखाया गया है कि हिंसा करने वाले लोग, जो दूसरों को डराने की कोशिश करते हैं, असल में स्वयं भीतर से डरे हुए होते हैं।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .. बिल्कुल जैसी उम्मीद होती है आपसे .. सभी कविताओं ने मन को छू लिया लेकिन पहली कविता पढ़कर मन में एक डर सा समा गया ..भगवान आपको सदा स्वस्थ रखें !
प्रथम अवसर रहा इन्हें पढ़ने और जानने का। अब तो बंध गया हूँ। संतुष्टि के करीब ही हूँ।
waah.. badhia shuruaat. Parajay Ka Geet sabse achhi hai in sab me se. Poet aur Editor ko badhai.
बहुत आभार और शुभकामनाएं!