विधान गुंजन की कविताएँ
- golchakkarpatrika
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उस दौर में
उम्र के साथ हमें
अपनी स्थिति का अंदाज़ा
होता जा रहा था
यह वह दौर था,
जब सामाजिक बदलाव और क्रांति
जैसे विचारों पर
बुनियादी ज़रूरतों का प्रेत मंडरा रहा था
तब हमारे लिए सरकार बदलना
क़ातिल का चेहरा बदलना
और मंत्रिमंडल,
परीक्षा-पत्र में पूछा जाने वाला
दो नंबर का सवाल मात्र था
हम समझ चुके थे :
क्रूर समय, कायरों के लिए
महज़ तरक़्क़ी का मौक़ा है,
जहाँ रीढ़ की हड्डी का समझौता
महज़ एक लकड़ी की कुर्सी से होता है।
और इक्कीसवीं सदी का आदमी,
आदमी नहीं, शतरंज का मात्र प्यादा है—
जिसके पास ज़ुबां है,
पर उसके बोलने पर बाधा है।
अनभिज्ञता
तुम नहीं जानते
कि क्या सोचते हैं तुम्हारे पिता तुम्हारे बारे में
क्या हैं तुम्हारे व्यक्तित्व के बारे में उनकी राय
तुम्हारी अनुपस्थिति में
तुम्हें नहीं मालूम
तुम्हारे भाई, बहन और दोस्तों ने
तुम्हारी जो तस्वीर बना रखी है
उनमें कैसे दिखते हो तुम!
न ही तुम जानते हो
तुम्हारे पड़ोसी, सहपाठी और तमाम
रिश्तेदारों के बीच एक तुम
बन चुके हो अब कितने किरदार
महज़ तुम्हारी माँ और
एक स्त्री के सिवा जो तुम्हारी प्रेमिका है
किसी ने नहीं मिलवाया इस जहाँ में तुम्हें
तुम्हारे तुम से बरखुरदार!
आयु
बिता चुका हूँ जब
इस संसार में
एक शेर के जीवनकाल से दुगुना वक़्त
देख चुका हूँ गोरैया की क़रीब आठ पीढ़ियों को
काट चुका हूँ इस धरती पर
एक घोड़े की आयु के समान जीवन
और, जब हो चुका हूँ
भगत सिंह की मृत्यु से चार वर्ष बड़ा!
सोचता हूँ :
क्यों हुआ है मेरा जन्म
हूँ किसलिए दो तलवों पर मैं
अब तलक व्यर्थ खड़ा?
महज़ तुम्हारी मान्यताओं की नदी नहीं है गंगा
गंगा मेरी स्मृति का सबसे रूहानी नाम
वह नाम
जिसमें मेरी उम्मीद और स्वप्न की
अनगिनत मछलियां
तैरती हैं
जिसके किनारे पर मेरा मछुआरा दिल
गुज़ारता है अपनी रातें
और जिसके तट पर बंधी नाव में सवार मेरी आत्मा
एक सतरंगी मछली की तरह तैरती है
मेरे जीवन की धमनियों और शिराओं में लहू की तरह
जिसकी श्रद्धा ने
मेरे नास्तिक मन के सबसे पवित्र कोने को
पूर्णतः नास्तिक होने पर लगाया प्रश्नचिह्न!
नहीं, मेरी आत्मा के अंतस में विराजने वाली नदी
तुम्हारी मान्यताओं की नदी नहीं
न ही निकली है यह किसी ईश्वर की जटाओं से
किसी वेद और पुराण के पन्नों से निकलकर तो
बिल्कुल भी नहीं आई वह यकायक!
गंगा मेरी स्मृति की वह नदी है
जो उतरी थी मेरे अंदर सबसे पहले
वह नदी जिसके तट पर हुआ मेरा जन्म
जिसका पानी मेरी माँ के सीने से उतरा मेरे अंदर उसके गर्भकाल में
जिसकी बूँद से बना मेरी माँ के छाती का दूध पी कर
खोली थीं मैंने अपनी आँखें
जिसके घाट पर मेरे जाने के बाद
मेरे नास्तिक तन को विसर्जित कर उनकी अस्थियों पर मेरे प्रियजन लिख देंगे मेरे इस सफ़र का आखिरी पड़ाव
कहते लौटेंगे मेरे कुछ दोस्त कि लौटूंगा मैं फिर इसी नदी के तट पर किसी शहर
और इसके तट पर शुरू हुआ मेरा सफ़र
ख़त्म हो जाएगा इसके घाट पर!
कबूलनामा
कहने से झूठ
अच्छा है कि मैं करूं
सर झुकाते हुए यह कबूल
कि नहीं कर सका मैं
अपने दिल मे रह रही उस नन्ही सी चिड़िया को जुदा
नहीं मार सका मैं अपनी आत्मा के तालाब में
पत्थर
नहीं हो सका मुझसे मेरी प्रतिबद्धता का
बाल भी बांका!
सच है कि
बदलते चले गये नाम शहरों के
मुख्तलिफ होता गया मेरे घर का पता
उतरते चले गये लोग
ज़िंदगी की बस से
यात्रियों की तरह
रेलगाड़ियां भी बदलीं मैंने अनेक
सबसे पसंदीदा कुर्ते ने भी
खो दिया अपना रंग
बढ़ गए वापस मेरे बाल और दाढ़ी
मगर उसका प्यार बचा रहा एक सब्ज़ पत्ते की तरह
मेरे सूखे हृदय की शाख पर
बची रही उसके लौट आने की उम्मीद,
वादों की तरह जीवित रहा वह
मेरी पलकों के ताख पर।
कठिनतम दिनों में
अपने सबसे कठिनतम दिनों में
नहीं दूंगा आवाज़ तुम्हें ईश्वर
चाहे करनी पड़ें मुझे दो-चार और असफल कोशिशें
अपने दिल को तसल्ली देने की खातिर,
करने पड़ें चाहे जितने भी जतन
प्रकृति के सबसे नायाब प्राणी का मान बचाए रखने की खातिर
दुःख की असहनीय पीड़ा के पार जाने के बाद भी
मैं थामना चाहूंगा तुम्हारी जगह एक स्त्री का दामन
तुम्हारी चौखट पर असंख्य निराश लौट चुके आदमियों
के माफिक नहीं कहूंगा अपने साथ हुए अन्याय को
तुम्हारी मर्ज़ी।
न ही दोहराऊंगा पूर्वजन्म जैसी खोखली कहानियों के
बेबुनियाद पाठ!
गुनगुनाता रहूंगा अंत तक मैं एक स्त्री से बिछड़ने का शोकगीत
गाना पसंद करूंगा अपने अंतिम पलों में भी
किसी स्त्री से मिलन का प्रेम-राग।
योगदान
कुम्हार का घर महज़
मिट्टी और चाक से ही नहीं चलता था
कुम्हार का घर चलाने में
उन पत्थरों का भी योगदान रहा,
जिनकी वजह से
अक्सर फूट जाया करते थे
मटके।
पाने के लिए नहीं
उसे पाने के लिए नहीं
उसका होने के लिए हुआ है मेरा जन्म
जैसे तितलियों और फूलों का जन्म
रंगों की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए
जैसे आग का अविष्कार
देह को ऊष्मा देने के लिए हुआ
फेफड़ों ने जैसे बनाया
हवा जैसी अदृश्य चीज़ को
जीवन की सबसे उपयोगी चीज़
महज़ उसका अपने तलवे और सर के बीच
साबुत खड़ा होना ही
भरता है मेरे निराश जीवन में
रंग, ख़ुशबू, संगीत और उम्मीद।
ख़ालीपन
ख़ाली बोतल
प्यासी है
पानी की तक रही है वह राह
वह चाहती है जल्द से जल्द
दूर हो उसका यह खालीपन
थक चुकी हैं उसकी आँखें इतनी
कि गिर सकती है
हल्की हवा के झोंके से भी वह
पानी पानी कहते हुए मेज़ से कभी भी!
लिव-इन
यह प्रेम में पड़े किसी युगल की
बेख़ुदी की कहानी नहीं
बल्कि एक सामाजिक बदलाव है;
जिसे बीसवीं सदी ने इक्कीसवीं सदी के लिए
पहले तय कर रखा था
यह क़िस्सा किसी लड़की और लड़के के
समाज, गाँव और परिवार से दूर जाने मात्र का भी नहीं
बल्कि तुम्हारी नफ़रत और हिंसा से अलग
ढाई अक्षर से अपनी दुनिया निर्माण करने का प्रयास है!
लिव-इन क़ी खबरों को पढ़ते या सुनते वक़्त
तुम्हारे मस्तिष्क ने तुम्हारे ज़ेहन में
जिस बदचलन औरत और असामाजिक पुरुष के साथ
एक कमरे क़ी झूठी तस्वीर बनायी
उनमें वे तमाम जगह अनुपस्थित रहीं
जहाँ वे एक साथ रहे इससे पूर्व!
नहीं लिखा तुम्हारे अख़बार ने
न तुम्हारे सरपंचो ने ही दिया तुम्हें
उनकी बगावत का वाजिब हिसाब;
कि कितने वर्ष रहे वे
एक दूसरे क़ी आँख, दिल, रूह, ख्वाब और इंतज़ार में
उस कमरे में रहने से पूर्व एक साथ!
युवा कवि विधान गुंजन (जन्म : 24 मार्च 1995) की कविताएँ वागर्थ, आजकल, बया, कृति बहुमत, समकालीन जनमत, कविकुंभ, इरावती, पहली बार, कारवां, पोषम पा आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ईमेल : Vidhan2403@gmail.com
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जहां रीढ़ की हड्डी का समझौता
महज एक लकड़ी की कुर्सी से होता है
'आयु' खूब ! खूब !
गंगा मेरी स्मृति की वह नदी है
जो उतरी थी मेरे अंदर सबसे पहले
अपने सबसे कठिनतम दिनों में
नहीं दूंगा आवाज तुम्हें ईश्वर
...
दुःख की असहनीय पीड़ा के पार जाने के बाद भी
मैं थामना चाहूंगा तुम्हारी जगह एक स्त्री का दामन
कुम्हार का घर चलाने में
उन पत्थरों का भी योगदान रहा
जिनकी वजह से
अक्सर फूट जाया करते थे
मटके
महज उसका अपने तलवे और सर के बीच
साबूत खड़ा होना ही
भरता है मेरे निराश जीवन में
रंग, खुशबू, संगीत और उम्मीद
लिव-इन
रुक न सका .. बढ़ावा गया - पढ़ता गया .. विस्मय में डूबा…