जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jan 7
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प्राथमिकता का व्याकरण
बहुत जटिल होता है प्राथमिकता का व्याकरण
वैसे यह निर्भर करता है व्यक्ति-व्यक्ति पर
पर नहीं बदलते प्राथमिकता
कुछ बदल लेते हैं करवट की तरह
अधरों पर लिए क़ातिल मुस्कान
कुछ के बारे में आप अनुमान लगा सकते हैं
कुछ के बारे में हो सकती है दुविधा
पर कुछ परे होते हैं अनुमान से ब्रूटस की तरह
हालाँकि उनके पास जायज़ वजह नहीं होती
जैसी थी ब्रूटस के पास
एक दिन जब आपको
सबसे अधिक ज़रुरत होती है किसी विश्वसनीय की
और आप उठाते हैं नज़र
तो कोई नहीं दिखता है उनमें से दूर-दूर तक
जिन पर आपने किया होता है अपने कन्धों-सा भरोसा
वे कहीं ओझल हो जाते हैं सफलता और सुख के जादुई कोहरे में
आपकी शिकायत उलझ कर रह जाती है
कभी मुस्कान तो कभी आँसुओं के भीगेपन में
यह प्राथमिकता भी कमाल की चीज़ है
पल भर में बदल देती है रिश्तों का छंद!
एक लोकतांत्रिक समाज की रक्त-मज्जा में
किसी समय किसी ने कहा होगा—
थोड़ा झुक जाता तो काम हो जाता उसका
आख़िर तने रहने से मिला क्या?
लोग उसको लाँघकर निकल गए आगे
ऐसी बातों को सूक्ति की तरह स्वीकार करते हुए
प्रचारित किया दुनियादार लोगों ने
समय बीतता गया और लोग दुहराने लगे आदत की तरह
सामंती विकृतियों वाली ऐसी सूक्तियाँ बदलते समय में भी :
थोड़ा झुक जाता तो क्या बिगड़ जाता
थोड़ा सह लेता तो छोटा नहीं हो जाता
आदमी को आना चाहिए अपना काम निकालना
ज़रूरत पड़ने पर गधे को बाप बनाना पड़ता है
मर्द बनता है लेकिन मुँह नहीं खोल पाता बीबी के आगे
अच्छे दिनों में लोग तैयार हो जाते हैं बनने को साला
लेकिन दुर्दिनों में कोई तैयार नहीं होता बहनोई बनने को भी
इसी तरह बहुतेरी सूक्तियाँ बनीं स्त्रियों के लिए
और चल पड़ीं
और चलती रहीं अनवरत :
ढाई गज की जबान है इसकी
अचार डालेगी अपनी सुन्दरता का
कूदते हुए चलती है लड़कों की तरह
कोई लिहाज नहीं है इसमें किसी का भी
बच के रहो इससे, पानी उतार देती है यह
कोई शऊर नहीं है, कैसे निभायेगी ससुराल में
आदि-आदि
और न जाने क्या- क्या!
और इस तरह
एक बन रहे लोकतांत्रिक समाज की रक्त-मज्जा में
घुसी रह गईं सामंती विकृतियाँ अपने भदेसपन के साथ।
जीवन का तर्क
रात भर नींद नहीं आई
रात भर कोई सपना नहीं आया
न आया ऐसा कोई विचार
जिससे ख़ुशगवार हो जाए
आने वाली सुबह
बहुतों की बहुत-सी रातें
कट जाती हैं इसी तरह
बहुतों की तो उम्र भी
जो लोग तय करते हैं जीवन का तर्क
अक्सर वे जान ही नहीं पाते जीवन को।
नींद
आज महीनों बाद सोया थोड़ी अच्छी नींद
आज महीनों बाद अपनी सी लगी रात
वैसे भी नींद न हो तो बिखर जाती है रात
भली नहीं लगती कोई भी बात
अनमने से दिखते हैं अपने ही हाथ
प्रिये!
हर जागरण के बाद ज़रूरी है नींद जल की तरह
हर नींद के बाद ज़रूरी है जागरण हवा की तरह।
सपनों को नींद
बगुले की तरह उज्जर दिन
निकल आया है आखेट में
उसने पहला प्रहार किया है मेरे मन पर
अव्यवस्थित सा हो गया है आत्मा का ध्यान गृह
देखता हूँ चारों ओर
प्रिय तुम कहाँ हो?
सच है
मन की बेचैनी पहचानती हैं पुतलियाँ
लेकिन पुतलियों का सूनापन कौन पहचानेगा
इस हाहाकारी समय में आत्मा के सहचर के सिवा
देखो, जहाँ भी हो लौट आओ साँझ से पहले-पहले
भूल जाओ पूर्णता
वह सनातन भ्रम है दर्शक दीर्घा का
कभी पूरी नहीं होती कोई भी यात्रा
अधूरेपन में ही जीवित रहते हैं स्वप्न
इसलिए हे प्रिय, हे आत्म सखी
लौट आओ इस उज्जर दिन के रात में विलीन होने से पहले-पहले
सुनो, विलम्ब न करना
संभव है राह तकते-तकते नींद आ जाए सपनों को
फिर कैसे जगाऊंगा उन्हें!
विचार
विचारों की बस्ती से कुछ लोग
बेझिझक उठे और चल दिये
अपनी दिलपसन्द मंज़िल के वास्ते
और कोई उम्र भर बैठा रहा
छूटे ख्यालों के पैताने।
पुराना मन
वहीं खड़ा हूँ उसी बिंदु पर शून्य में ताकता
जहाँ से हाथ छुड़ाकर चली गईं थीं तुम
कई बार लगा जैसे पलट आओगी
कम से कम देखोगी एक बार मुड़कर
पर यह भ्रम था मेरे मन का
उसी पुराने मन का जिसे पहचानती थीं तुम शायद
बहुत जल्द तुम निकल गईं
बहुत-बहुत आगे
मैं निर्निमेष ताकता रहा भटकसुन्न बन
क्या करूँ बदल ही नहीं पाया अपना मन
चलो, ख़ुश रहो तुम
मैं भी ठीक ही हूँ अपने पुराने मन के साथ।
लगाम
जिन लोगों ने दिखाई मुझे राह
जिन लोगों ने वक़्त-बेवक़्त पहचानी मेरी आह
जिनकी गझिन संवेदना का नहीं लगा पाया मैं थाह
उनमें से अधिकतर लोग अब नहीं हैं मेरे आसपास
लेकिन मेरी साँसों में बचा है उनका विश्वास
कठिन से कठिन दिनों में भी
मैंने कभी किसी को सीढ़ी नहीं माना
जो चला कभी मेरे लिए एक भी क़दम
उसकी स्मृति को बचाया है मैंने आँख के पानी की तरह
जीवन के ऊँच-नीच में जब कभी मिलता है
थोड़ा समतल और बावरा मन होने लगता है तुरंग
तो उसी पानी को बना लेता हूँ लगाम।
पत्र एक मित्र को
सुनो, उदास मत हो इस तरह
कोई मोल नहीं इन आँसुओं का!
असमय की धूप नहीं टिकती है देर तक
जिस तरह आती है वह
चली भी जाती है उसी तरह
रोक लो ख़ुद को
संभाल लो अपनी धड़कनों को
उसकी छाया के पीछे मत दौड़ो
उसने धीरे से दामन छुड़ा लिया है तुमसे
उसे नहीं लौटना अब तुम्हारे सिरहाने
देखो, टटोलने से भरती नहीं है ख़ाली जगह
कई बार कुछ चुभ ज़रूर जाता है अनपेक्षित
अब तुम्हीं सोचो
अपने ही घाव को कुरेदकर क्या मिलेगा तुम्हें
चुभन के सिवा
इस राख में अब आग का कोई अवशेष नहीं है
जिसे तुम समझ बैठे थे अपना वह अब कहीं और है
संभलो!
और उठो राख के ढेर से
अभी बाकी हैं बहुत से काम ऐसे
जिन्हें करना है तुम्हें अनिवार्यतः
तुम बीच में छोड़ नहीं सकते उन्हें
वरना क्या जवाब दोगे खुद को!
जितना था तुम्हारे हिस्से में उस धूप का ताप
उतना बचा कर रख सको तो रख लो
अपनी आत्मा के कोटर में प्रकाश की तरह
और सुनो, भूलना मत कभी—
दूसरों से की गई उम्मीद
अन्ततः दुःख का व्याकरण रचती है।
जीवन-समीकरण
जिन पुतलियों में कभी प्रतीक्षा होती थी मेरी
अब वहाँ कोई और रहता है
किसी की उपस्थिति से खनकता था जो मन-इकतारा
अब वह उदास रहता है
सुबह-शाम का क्रम नहीं बदलता
परिस्थितियाँ बदलती हैं मन बदलता है
और धीरे से बदल जाता है जीवन-समीकरण
आज जो प्रिय है बना हुआ कंठहार
वह कल भी रहेगा इसी तरह
क्या पता?
जल्दबाज़ी में लिए गए निष्कर्ष हमेशा सुखद हों
यह ज़रूरी तो नहीं
सदियों का संचित अनुभव बताता है
कि जीवन का गणित बिल्कुल भिन्न है अंकगणित से
यहाँ चाहे जितना कर लीजिए कोशिश
दो दूनी चार नहीं हो पाता है
और कभी-कभी तो इसका परिणाम
शून्य भी आता है।
किसी छूट गए से संवाद
अभी-अभी गुज़रा तुम्हारे घर के बिल्कुल पास से
इतने पास से
कि सुन सका साँस तुम्हारे घर की
पर रुक न सका चाहकर भी
सोचा
जब बीत जाएगी ठंड और
बदल रहा होगा मन मौसम का
तब आऊँगा तुमसे मिलने
मध्य मार्च की किसी तिजहरी में
जब तुम अलसाई सी समेट रही होगी
अलगनी पर फैलाए कपड़े
तब न सिर ढका होगा न चेहरा
देखना मुझे पूरा-पूरा
शायद दिखे मेरा मन भी
पर देखकर घबराना नहीं
बिल्कुल भी नहीं
ज़रूरी नहीं हर बीत गए को पहचानना
वर्तमान की तरह।
प्रश्न
रात का है ये गहन सन्नटा
लेकिन मन में है ज्वार भाटा
सब लगता है ख़ुश-ख़ुश सा भरे पेट को
पर बहुतों के पास नहीं कल का आटा
बताओ नींद कैसे आएगी भ्राता!
जिधर कोई रास्ता ही नहीं जाता
उसने जबसे होश संभाला
सोचता रहा बस दूसरों की ख़ुशियों के बारे में
इस प्रक्रिया में कई-कई बार रूठीं उसकी ख़ुशियाँ उससे
फिर भी उसने नहीं बदला स्वभाव
वह कभी सोच भी नहीं सकता
किसी की ख़ुशियाँ छीनने के बारे में
किसी पल के सबसे महीन हिस्से में भी
उसके बारे में तो स्वप्न में भी नहीं
जिसके लिए उसने अपना सब कुछ लगा दिया दाँव पर
फिर भी एक दिन उससे कहा उसने—
मुझसे मेरी ख़ुशियाँ मत छीनो…..
उसकी बात सुनकर काठ मार गया उसको
जीवन में पहली बार उसे महसूस हुआ
जैसे किसी भ्रम के अँधेरे में चलते-चलते
वह उस ओर बढ़ गया था
जिधर कोई रास्ता ही नहीं जाता।
जितेन्द्र श्रीवास्तव प्रतिष्ठित कवि-आलोचक हैं। हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लेखन-प्रकाशन। इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर, बिल्कुल तुम्हारी तरह, कायान्तरण, सूरज को अँगूठा, जितनी हँसी तुम्हारे होंठों पर, काल मृग की पीठ पर, उजास, कवि ने कहा, बेटियाँ, रक्त-सा लाल एक फूल, स्त्रियाँ कहीं भी बचा लेती हैं पुरुषों को (कविता); तेरे खुशबू में भरे ख़त (कहानी); भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का मानुष-मर्म, सर्जक का स्वप्न, विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता, उपन्यास की परिधि, रचना का जीवद्रव्य, कहानी का क्षितिज, कविता का घनत्व, आस्था और विवेक (आलोचना)।
कई कविताओं का अंग्रेजी, मंदारिन और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। लम्बी कविता सोनचिरई की कई नाट्य प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। कई विश्वविद्यालयों के कविता केन्द्रित पाठ्यक्रमों में कविताएँ शामिल हैं। कविताओं पर देश के कई महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में दस से अधिक शोधकार्य हो चुके हैं।
अब तक कविता के लिए 'भारत भूषण अग्रवाल सम्मान' और आलोचना के लिए 'देवीशंकर अवस्थी सम्मान' सहित हिन्दी अकादमी दिल्ली का 'कृति सम्मान', उ.प्र. हिन्दी संस्थान का 'रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, उ. प्र. हिन्दी संस्थान का 'विजयदेव नारायण साही पुरस्कार', भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का 'युवा पुरस्कार', 'डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान', 'परम्परा ऋतुराज सम्मान', ‘गोपालकृष्ण रथ स्मृति सम्मान’ और ‘स्पंदन कृति सम्मान’ ग्रहण कर चुके हैं।
ई-मेल: jitendra82003@gmail.com
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