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राजनंदिनी रावत की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • 5 days ago
  • 2 min read
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राजनंदिनी रावत की कविताएँ


(1)


निकल आएगा शरीर से

मांस का एक टुकड़ा,

उसके जैसा ही

नहीं होगा उसका मस्तिष्क

नहीं होगा उसका हृदय

होगी बस योनि

लाएगी यौनिकता का भय

उसके केश सर्पों के गुच्छे होंगे

बाँधा जाएगा रबर से

उसकी छाती पर ज्वालामुखी फूटेगा

उसका शरीर लावा में बदल जाएगा

वह बन जाएगी घातक

वह शस्त्रहीन स्त्री तब भी घातक

वह वस्त्रहीन स्त्री तब भी घातक

वह सशरीर स्त्री तब भी घातक

गुफा से निकलेगी, चिल्लाएगी—

नारीवाद नग्नता नहीं

अपने अनुसार साँस लेना है।



(2)


मेरी देह पिंजरे में है,

मेरा मन ब्रह्मांड में।

सुनाई देती रही घुंघरुओं की छम-छम,

करते रहे मेरा मति-भ्रम।

सदियों से कुछ वाक्यों की पुनरावृत्ति होती रही है—

स्त्रियो! पर्दा करो

स्त्रियो! पैदा करो

स्त्रियो! सहा करो

स्त्रियो! देवी बनो

स्त्रियो! स्त्री रहो

घर की दीवार पर नहीं,

माथे पर बना लूंगी स्वास्तिक

चारों दिशाओं से हो जाऊँगी मुक्त

टाल दूंगी सारे द्वंद्व युद्ध।

निकल आऊँगी शास्त्रों से बाहर

ढूंढ लूंगी अपना ग्रह

बन जाऊँगी बुद्ध

खा जाऊँगी उन्हें,

बने अगर रक्तबीज।



(3)


कंकाल हो जाना कला है

जीवन की मृत्यु शैय्या पर लेटे

इच्छामृत्यु का वरदान नहीं मिलता—

अश्वत्थामा हतो हतः

अर्द्धवाक्य भ्रम के लिए गढ़े जाते हैं

अपना उद्धार स्वयं करना होता है

मुक्ति के रास्ते नहीं मिलते

भक्ति का भाव अर्थहीन लगता है

मन की कोई स्मृति नहीं होती

जीवन का गद्य गीता नहीं होता

सब कुछ भ्रम है

हमें सच में एक 

दूसरी दुनिया की ज़रूरत है।



(4)


शब्दों की दुनिया में

अर्थों का कोई वजूद नहीं है


कलम की स्याही और बहता रक्त एक है


मनुष्य जीवन 

माटी का घड़ा नहीं, उसमें रखा पानी है

जो कभी लाल हो जाता है,

कभी नीला पड़ जाता है


मुक्ति के मार्ग में 

बुद्धि का कोई प्रयोग नहीं है

सब बुद्ध हैं,

कोई भी बौद्ध नहीं है।



(5)


संभोग आत्म-खोज है

मैंने उससे कहा—

वह एक जोड़ी स्तन और योनि के बीच रहा

मैं आत्म-खोज से मनोविज्ञान की ओर बढ़ गई

वह चला गया

मैं लेटी थी

मैं शब्द शून्य थी

भाव शून्य थी

मैं दो स्तन थी

मैं एक योनि थी

मैं स्त्री थी

मैं मनुष्य थी?



(6)


मैं जनती रहूँगी बच्चे

हो जाऊँगी बूढ़ी

नहीं माँगूंगी संभोग

नहीं माँगूंगी प्रेम

नहीं माँगूंगी स्वतंत्रता।



(7)


बराबर चिन्ह का प्रयोग 

जब मैंने स्कूल में सीखा था,

तब क्यों नहीं लिखा था—

वूमन = मेन।



(8)


मैं एक जोड़ी स्तन और योनि हूँ

मैं मस्तिष्कहीन हूँ

मेरे उद्धार के लिए देवपुरुष जन्म लेते हैं

पर्दा मेरा सुरक्षा कवच है

ऑनर के लिए की गई मेरी हत्या वध है

यह संसार मेरे लिए यातनागृह नहीं, स्वर्ग है!



(9)


वह ज़्यादा कामुक हो जाती है

जब टूटती है

वह ज़्यादा परिपक्व हो जाती है

जब सिगरेट पीती है

वह ज़्यादा खतरनाक हो जाती है

जब अपनी ज़िम्मेदारी खुद लेती है

स्त्री स्वयं से प्रतिशोध लेती है

जब छली जाती है

अपनी कोमलता से,

अपनी करुणा से,

अपने स्त्रीत्व से

एक बैख़ौफ़ चलती स्त्री,

एक सम्पूर्ण क्रांति होती है।



(10)


प्रसव की पीड़ा में जब कराहूँगी

भूल जाऊँगी सदियों की घुटन

दूँगी जन्म एक जीव को

बचा लूँगी पूरा ब्रह्माण्ड।



राजनंदिनी रावत युवा कवयित्री हैं। अहा ज़िंदगी, राजस्थान पत्रिका और जानकीपुल में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। ईमेल : rajnandinirawat9999@gmail.com


1 Comment


Guest
a day ago

स्त्री के जीवन संघर्ष का यथार्थ चित्रण जिसमें स्त्री के सभी रूपों, अवस्थाओं और वेदना-पीड़ाओं का जीवंत वर्णन है। स्री पृथ्वी धरती सृष्टि है, पर सदा ही समर्पण ही करना पड़ता है योनि धारिका बनकर स्तनपान कराकर ।

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