हॉली मैक्निश की कविता
- golchakkarpatrika
- Aug 5
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हॉली मैक्निश की कविता
अनुवाद : यादवेन्द्र
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रायोजित विश्व स्तनपान सप्ताह हर वर्ष 1 अगस्त से 7 अगस्त के दरम्यान मनाया जाता है।
शर्मिंदा
मैं अक्सर सोचती हूँ पब्लिक टॉयलेट्स में दूध पीना
कहीं उसको क्रुद्ध तो नहीं करता
फैसले लेने की मनमानी से
और ख़्वाह-मख़्वाह की विनम्रता ओढ़े-ओढ़े
अब मैं खीझने लगी हूँ
कि मेरी बच्ची की शुरू-शुरू की घूँटें
सराबोर हैं मल की दुर्गन्ध से
हर वक़्त घबरायी और असहज रहती
जन्म के बाद के महीनों में जब-जब उसको दूध पिलाती
जबकि चाहा सबकुछ अच्छा हो उसके सुंदर जीवन में
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मुझे आठ हफ़्ते लगे जब हिम्मत जुटा पायी
कि निकलूँ सबके सामने शहर में
और अब लोगों की फब्तियाँ हैं
नश्तर की तरह आर-पार काटने को आतुर...
भाग कर घुस जाती हूँ टॉयलेट के अंदर
इसमें भला क्या है जो अच्छा लगे...
मुझे शर्म आती है कि
मेरे बदन की पल भर की कौंध कैसे लोगों को ठेस मार देती है
जिसकी मैंने कोई नुमाइश नहीं लगाई
न ही उघाड़ कर दिखलाती ही हूँ
पर लोग हैं कि मुझे घर के अंदर बंद रहने की हिदायत देते हैं
एक सहेली को धक्के मार-मार कर
लगभग फेंक दिया लोगों ने बस से नीचे
और दूसरी औरत को खदेड़ दिया
बच्चे सहित पब से बाहर…
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जीसस ने इस दूध को पिया
ऐसा ही सिद्धार्थ ने किया
मुहम्मद ने किया
और मोज़ेज ने किया
दोनों के पिताओं ने भी ऐसा ही किया
गणेश शिव ब्रिजिट और बुद्ध
सब के सब ऐसा ही करते रहे
और मैं पक्के भरोसे के साथ कह सकती हूँ
कि बच्चों ने भूख से पेशाब के भभकों को
बिलकुल गले नहीं लगाया
उनकी माँओं को मुँह छुपाने के लिए सर्द टॉयलेट की सीटों पर
मजबूरी में घुसकर बैठना पड़ा लज्जापूर्वक …
वह भी ऐसे देश में जो अटा पड़ा है
वैसे विशालकाय इश्तहारों से
जिनमें यहाँ से वहाँ तक चमकते दमकते हैं
स्तन ही स्तन...
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प्रदूषण और कचरे से बजबजाते शहरों में
उनको ख़ूब अच्छी तरह मालूम है
कि बोतल का दूध पीने वाले ढेरों बच्चे मर जाते हैं
शहरों में तो पैसों की लूट पड़ी है जैसे हों मिठाई
और हम चुका रहे हैं भारी क़ीमत उसकी
जो कुदरत ने हमें नियामत बख्शी है बेपैसा
शहरों के अस्पताल में पटापट मर रहे हैं बच्चे
उलटी-दस्त से पलक झपकते
माँओं का दूध पलट सकता है पल भर में यह चलन
इसलिए अब नहीं बैठूँगी सर्द टॉयलेट की सीटों पर
चाहे कितना भी असहज लगे बेटी को सबके बीच दूध पिलाते
यह देश अटा पड़ा है
वैसे विशालकाय इश्तहारों से
जिनमें यहाँ से वहाँ तक चमकते-दमकते हैं
स्तन ही स्तन...
अब हमें यहाँ-वहाँ बच्चों की दूध पिलाती माँओं को
देखते रहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
समसामयिक विषयों पर मुखर प्रतिक्रिया देने वाली स्कॉटिश माता पिता की संतान अत्यंत लोकप्रिय युवा "स्पोकन वर्ड" कवि हॉली मैक्निश 1983 में जन्मीं। अब तक उनकी सात किताबें प्रकाशित हैं। कुछ म्यूज़िक एलबम भी। यूट्यूब, इंस्टाग्राम और फेसबुक पर बहुत बड़ी संख्या में प्रशंसक।
160 देशों में सक्रिय बेबी मिल्क एक्शन नामक संगठन की पैट्रन जो स्तनपान को बढ़ावा देने और बेबी फीडिंग उद्योग के भ्रामक प्रचार को रोकने की दिशा में काम करता है। इन्होंने स्तनपान से जुड़े लज्जाभाव और परेशानी को व्यक्त करने वाली कविता "इम्बैरेस्ड" (जिसका अनुवाद ‘शर्मिंदा’ शीर्षक से यहाँ प्रकाशित किया गया है) लिखी जो यूट्यूब पर लाखों लोगों द्वारा दुनिया भर में देखी और सराही गयी। कैम्ब्रिज में रहने वाली मैक्निश के कविता संकलन और एल्बम बाज़ार में हैं और स्लैम पोइट्री के अनेक ख़िताब वे जीत चुकी हैं। वास्तविक घटनाओं से उपजी इस कविता को लिखने के बारे में वे बताती हैं :
"यह कविता मैंने अपनी छः महीने की बच्ची के सो जाने पर पब्लिक टॉयलेट में लिखी। मैं दिनभर बेटी के साथ शहर में यहाँ-वहाँ घूमती रही और जब उसको दूध पिलाने लगी तो सामने से किसी ने कॉमेंट किया कि इतने छोटे बच्चे को लेकर मुझे घर में रहना चाहिये, बाहर निकलने की क्या दरकार है। छोटे बच्चों को हर दो-तीन घंटे बाद भूख लगती है और उन्हें दूध पिलाना पड़ता है, और हर दो-तीन घंटे बाद काम-धाम छोड़कर घर भागना मुमकिन नहीं है- वैसे भी यह तर्क निहायत मूर्खतापूर्ण है। पर यह कॉमेंट सुनकर मैं शर्म से भर उठी और अगले छः महीने बच्ची के साथ अकेली होती तो दूध पिलाने के समय भाग कर टॉयलेट में घुस जाती- साथ में ब्वॉयफ्रेंड, दोस्त या माँ हुई तो अलग बात है। मुझे ऐसा करते हुए हमेशा अपने आपसे घृणा हुई पर करती क्या- डर, घबराहट और झेंप घेर लेती। अब जब टीवी या मीडिया के बारे में सोचती हूँ तो अजीब लगता है कि न किसी सोप में न किसी कार्टून में या और न कहीं और ही किसी स्त्री को बच्चे को दूध पिलाते हुए दिखाते हैं- भूल कर भी नहीं। अंग्रेज़ और अमेरिकी इस बात से डरकर बहुत दूर भागते हैं- मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है। मुझे अपने देश की संस्कृति बेहद अजीब लगती है जहाँ लोग-बाग पैसों से हर सूरत में चिपके रहते हैं। मुझे बड़ी शिद्दत से महसूस होता है कि कुदरत ने जो नियामत हमें बिना कोई मूल्य चुकाये बख्शी है- अपने शरीर को लेकर मैं उन ख़ुशनसीबों में शुमार हूँ- उसके लिए भारी-भरकम राशि ख़्वाह-मख़्वाह चुकाते रहने वाले माँ-पिता की तादाद हमारे समाज में कम नहीं है। ख़ुद मेरी अनेक सहेलियाँ हैं जिनका बच्चों के लिए फॉर्मूला ख़रीदते-ख़रीदते दिवाला निकल जाता है पर उन्हें अपना दूध पिलाने में शर्म आती है। आख़िर हम खरबपति कंपनियों को वैसी चीज़ से मुनाफ़ा क्यों कमाने दें जो हमारे शरीर में बग़ैर कानी कौड़ी चुकाये भरपूर मात्रा में उपलब्ध है। मार्केटिंग की यह कितनी कुशल रणनीति है कि हम ऐसा कुछ करना अनुचित समझने लगते हैं- यह सोच, सोच कर मैं हर आते दिन ज़्यादा उदास हो जाती हूँ। अब वह दिन दूर नहीं जब हम टेस्कोज़ मॉल में पसीने की बोतल ख़रीदने जाया करेंगे और रात में पढ़ने के लिए इलेक्ट्रॉनिक किताबें— पढ़ें और साथ साथ ख़रीदे हुए पसीने की बूँदें अपने बदन पर मलते रहें। आप इन्तज़ार कीजिये…। मेरा ऐसा कोई आग्रह नहीं है कि दूसरों के विचार बदल डालूँ, बस यह चाहती हूँ कि मेरी बात लोगों तक सीधे-सीधे पहुँच जाये- जब यह बात लोगों की समझ में आकर प्रतिध्वनित होने लगती है तो बहुत ख़ुशी होती है। स्तनपान पर लिखी इस कविता के बारे में ढेर सारे लोगों ने मुझे ईमेल किये, उसको बार-बार पढ़ा सुना और आश्वस्त हुए, और घर से बाहर निकल कर स्तनपान कराते हुए ज़्यादा सहज महसूस किया।”
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