सुधीर डोंगरे की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jun 3
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Updated: Jun 3

प्रेयसी के पिता की मृत्यु
(I)
उसकी आँखों में पिता की मृत्यु निरंतर घट रही है। उसकी अकस्मात हँसी के क्षणों में पिता दूर कहीं किसी नक्षत्र में पहली बार आँखें खोल रहे हैं।
वह धीमे-धीमे चल रही है,
धीमे-धीमे बन रहा है संसार।
वह पहली बार किसी कवि की कविता में कर रही है प्रवेश।
मैं उसके होने को उससे अधिक अनुभव कर रहा हूँ।
(II)
वह तब चीख-चीखकर रो रही थी
मैं तब उसके मुस्कुराने को याद कर रहा था।
वह सबकुछ भूल चुकने के बाद
अब सबकुछ नये सिरे से बुन रही है।
वह इन दिनों मुस्कुराना सीख रही है।
मैं इन दिनों
उसकी चीख-पुकार को अपनी कविताओं में छिपा रहा हूँ।
(III)
वह आधी रात को अपने पिता को याद कर रही है।
उसके पिता मेरी कविताओं में हिचकी ले रहे हैं।
(IV)
वह स्वप्न में
पिता के शव को झिंझोड़, झिंझोड़कर
उनसे लौट आने का आग्रह कर रही है।
मैं नींद से उठकर रात के तीन बजे
कविताएँ लिख रहा हूँ।
किंतु
उसका आग्रह स्वीकार हुआ
यह बताने का मेरे पास कोई उपाय नहीं।
प्रेयसी का विवाह
(I) विवाह पूर्व विदाई
वह अपने पर से उतारकर मेरी देह के स्पर्श की स्मृति को सालों पुराने अपने उस लिबास में छिपा रही है जो उसे अब छोटा होने लगा है और हमेशा हमेशा के लिए अपने पिता के घर पर ही छूट जाने वाला है।
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मेरी अँगुलियों से हटाकर अपनी कविताओं में रख रहा हूँ उसके वक्ष के स्पर्श की स्मृति जिन्हें अब कभी नहीं पढूंगा मैं।
(II) विवाह के दिन
रंग को गहरा करने उसके पांवों की मेंहदी में उतर आयी है मेरी आँखों की नींद।
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मेरी आंखों में उभरने से मना कर रहा है एक दृश्य जो दूर कहीं घटित हो रहा है उसकी आँखों के सामने।
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आज अपने पर से, मेरी देह के स्पर्श की स्मृति उतारकर उसे स्नानागार की दीवार पर टांग वह स्नान के लिए चली गई है लौटने पर जिसे अब वह कभी धारण नहीं करेगी ।
(III) विवाह के सालों बाद
मेरी देह के स्पर्श की स्मृति उसके पिता के घर के स्नानागार की दीवार में टंगी उसकी प्रतीक्षा में बूढ़ी हो रही है।
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आज अचानक उसे स्मृत हो आयी स्नानागार की वह दीवार जहाँ वह रखकर भूल आयी थी अपने कुंवारेपन का झीना लिबास।
सुधीर डोंगरे एक युवा कवि हैं। उनकी कविताएँ पहली बार इस प्रस्तुति में प्रकाशित हुई हैं। ईमेल : dongresudhir287@gmail.com
मैने सुधीर डोंगरे को पहली बार पढ़ा... और कई बार पढ़ा। जिस सघनता के साथ वे प्रेयसी और अपने संबंधों के बारीक आवरण एक एक कर उठाते हैं (शालीनता को बगैर ताक पर रखे)वह एकदम तरल दृश्यबंध है। उन्हें मेरी बधाई और गोल चक्कर पत्रिका को धन्यवाद इस युवा कवि से मिलाने के लिए।
यादवेन्द्र
सुंदर