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शैरिल शर्मा की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Feb 23
  • 3 min read

Updated: Feb 24




श्वेत चंदन

    

करघनी घंटों घुमाने के बाद भी

केश‌ ही सुलझे मन‌ की गिरहें नहीं

दर्पण के सम्मुख स्वयं को देख

यह कैसा अचरज देवी?

      

ये किस दुनिया में

इस दुनिया से चल पड़ती हो

फटी बिवाइयां और धंसी आँखें

किसकी बाट जोहते हुए देहरी की ओर बढ़ती हैं?


मन का आँगन जानता है

अभ्यासी भी है किंतु खो जाने पर

कितना कुछ पा जाता है और

असल दुनिया में आते ही रह जाता है

छला-सा।


गंगा के किनारे धूप दीप अस्थियां ही नहीं

उम्मीद की आस्था भी बहती चली गई

अब लौटना असंभव था और

मेरा पुनः मुड़ना अपशकुन।


सामने पड़ा काजल निहारता रहा नेत्रों की रेख

चूड़ियां कलाई को तरस उठीं,

बिंदिया ललाट पर थिर न सकी

रक्तगर्भा की चाह में जलता रहा मन‌

शेष सभी रंगों से आगे जा चुकी है

जीवन नौका।


चंदा से शीतल मन पर

अंशुमाली का सारा ताप उड़ेल गए विधाता

नेत्रों का जल बाहर नहीं भीतर रिसता गया

वसुधा से गहरे मन की देवी की

अंजुरी में शृंगार का 'श्वेत चंदन' आया।



प्रतीक्षा की परिधि


प्रतीक्षा  

शायद एक वृत्त है  

जो हर सुबह मेरे चारों ओर खिंचता है,  

कभी इतना बड़ा  

कि समूचा आकाश समा जाए,  

कभी इतना छोटा  

कि साँस तक अटक जाए।  


यह एक धीमी आवाज़ है  

जो सुनाई देती है  

जब रात के सबसे गहरे सन्नाटे में  

घड़ी की सुइयां  

अपने पाँव घसीटती हैं।  

यह आवाज़  

शायद समय का गूढ़ सवाल है,  

या शायद  

मेरा ही उत्तर।  


प्रतीक्षा  

एक पेड़ है  

जो हर मौसम में  

अपनी छाल उतारता है।  

वहाँ कोई फल नहीं,  

सिर्फ़ पत्तियों के झरने की गंध है,  

और गंध के भीतर  

एक थरथराती हुई उम्मीद।  


कभी-कभी प्रतीक्षा  

एक पुरानी चिट्ठी की तरह लगती है,  

जिसे बार-बार पढ़ा जा चुका हो  

और हर बार  

उसे थोड़ा और ख़ाली पाया गया हो।  


लेकिन फिर भी  

प्रतीक्षा रुकी नहीं रहती—  

वह चलती रहती है  

पगडंडियों के किनारे,  

पत्थरों की दरारों में,  

उस धूप में  

जो कभी नहीं छूती ज़मीन।  


प्रतीक्षा  

शायद वही है  

जो हमें हर रोज़ रचती है  

जैसे नदी अपने किनारों को,  

जैसे आकाश अपने बादलों को।  

हम जानते हैं,  

उसका छोर कहीं नहीं है,  

लेकिन फिर भी चलते हैं  

उस तक पहुंचने के लिए।



प्रेम…  


एक अदृश्य पुल है,  

जहाँ तुम और ईश्वर  

बिना किसी शोर के मिलते हो।  

यहाँ कोई मंदिर नहीं,  

कोई वेदी नहीं,  

सिर्फ़ तुम हो… और ईश्वर…  

जैसे दो बिंब,  

एक ही आईने के इस पार और उस पार।



जीवन‌ का यमक


अमर-कंटक से निकली थी 

मानो, अमर-कुंठा तक पहुँचेगी 

किसे ज्ञात था

तुम कुंठा और कंटक से आगे का विषय थीं

हिमगिरि सी तटस्थ 

इतना निदाघ किस अंजुरी में था 

जो बह उठती उर अंतर की नर्मदा 


लाख पुकारे जाने पर भी 

कौन सुनेगा शब्दों के मध्य का मौन 

जानती हो जगत मिथ्या है 

यहाँ किस हृदय में है सागर सा असीम प्रेम

गहन उतरने और समाने के बीच की जो दूरी है

नियति की है! मानो

यहाँ सबके हिस्से अग्नीश्वर नहीं आते


अपराजिता-सी तुम 

कितनी बार हारी ख़ुद को

जबकि हर बार दोहराती रही—

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

मन की मन ही जानिए या मनमीत 

ऐसे ही अलंकृत रहा 'जीवन‌ का यमक'



ठग


हम

उन दिनों मिले जिन दिनों 

न ख़ुशी के गुलमोहर खिले थे

न उदासी की पुरवा छाई थी

बस धारा के प्रवाह के साथ 

बह रहा था जीवन

अंजुरी में आई 

ज्ञान की गंगा

प्रेमदात्री यमुना

और आस्था की सरयू 

से तुष्ट होती जा रही थी

मन की सरस्वती 


एक ओर हरि रहे एक ओर हर

अभेद्य दृष्टि से साध लिए थे 

देव! सुघड़ युक्ता ने

उलझे केशों में पुष्प धंसाए

बांच रही थी सूक्ति 

संसार में युक्ति से मुक्ति है 

बच जाएगी आत्मा नर्कगामी होने से

कैसे कथन गढ़ी हो 

पत्र पंकज पर कहाँ टिक पाती 

मोह की कीच

मन हर है हर में हरि है

और हरि में प्रेम!

आसक्ति और मोह का 

कलरव त्याग 

बोली जानते हो प्रेम में 

परमात्मा का वास होता है 

जिससे इह लोक न सधा 

उससे उह लोक न सधेगा

अपने ही हाथों रह जाएगा 

जीवन ठगा सा!

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