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प्रभात की कविताएँ 

  • golchakkarpatrika
  • Jan 19
  • 3 min read

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कैसे पहचानूँ तुम्हें


सब इकसार लग रही हैं

खेतों से भरोटे उच-उच कर जाती हुई 

कैसे पहचानूँ तुम्हें

ये भी मालूम नहीं

तुम्हारे भरोटे में सरसों थी कि चना था


एक साथ गा रही थीं सब

फागुन की चाँदनी में

कैसे पहचानूँ तुम्हारी आवाज़

तुम्हारा बोल मैंने

कोरस में सुना था


बार-बार याद करने पर भी 

झलक ही दिखती है तुम्हारी

कैसे पहचानूँ तुम्हें

तुम्हारा चेहरा मैंने

होली की लपट में देखा था।



गिलोल


स्कूल के सभी कमरों पर ताले लटके थे 

सूने परिसर में सात-आठ साल के दो बच्चे 

खड़े-खड़े पेड़ में झाँक रहे थे

क्या कर रहे हो यहाँ?

कुछ नहीं उन्होंने कहा

जेब में क्या है?

फाख्ता

गिलोल से मारी है उन्होंने बताया 

उस सर्द सुबह में वे उसे वहीं 

कूड़े के ढेर में आग लगाकर

भूनने वाले थे

बिना नमक मिर्च डाले ही

खाने वाले थे

स्कूल की छुट्टी थी 

भूख की नहीं।



शिक्षिका


स्कूल आते-आते कहाँ खो जाती हैं लड़कियाँ 

खोज रही है शिक्षिका साड़ी को ऊँचा लेती 

काले पानी की नालियाँ

उफनकर रास्ते में आ जाती हैं यहाँ 

सूअर लोटते हैं कीचड़ भरे गढ्ढों में 

भूख मिटाते भिखारी बच्चे हैं, जहाँ है खोमचा 

साइकिल, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर सवारों की 

लीचड़ हरकतों को अनदेखा, अनसुना करती 

दौड़ती सी चलती जाती है‌ बस्ती में 

लड़कियों का पता लगाती

कोई सिलाई कर रही है

कोई मज़दूरी करने गई है

कोई होटल में है कोई बगीचे में कोई खेत में 

सिन्दूर बह रहा है किसी की माँग में

बंद कोठरी से निकालना पड़ रहा है किसी को 

अब इससे कैसे कहे स्कूल आने के लिए 

जिसकी बग़ल में रो रहा है नवजात 

शिक्षिका को मालूम है सब कुछ तब भी 

जाने क्या हुमरा सी आती है जी में 

भटकती है एक घर से दूसरे में 

जिरह करती

मैं बात करूँगी तुम्हारी अम्माँ से 

फीस भी भर दूँगी

मैं कहाँ कहती हूँ कि बारहवीं तक पढ़ाएँ

कम से कम इस-इस साल

नवीं में तो पढ़ा सकते हैं तुझे अभी।



बचत


इच्छाएँ तो बचती 

जिनके पीछे

भागा-भागा फिरा

सारी उमर


कितना बचा-बचा कर

रखा था जिन्हें

लम्बी उदासी से

घिर जाने पर भी


जिनमें जान ही नहीं

उन इच्छाओं से 

अब मोह भी नहीं


तुम्हारी आँखों ने

कहा था कभी मुझे 

निर्मोही


तब कितना

मोह था मन में


ऐसा होता है जीवन में

बचत करते-करते

बीत जाती है उम्र 

बचता कुछ भी नहीं।



बुढ़ापा


बच्चे बड़े हो गए हैं 

घर से बाहर

उनकी अपनी नई दुनिया है

उसी में बनाएँगे वे अपना घर


यहाँ इतना धीमा है सब कुछ

कहते हैं वे 

बहुत धैर्य चाहिए

यहाँ रहने के लिए 

इतना ज़्यादा धैर्य 

कि गुस्सा आता है


बूढ़े होते माँ-बाप सोचते हैं

धीमा ही होता चला जाएगा 

यहाँ तो सब कुछ

तो क्या बढ़ता ही चला जाएगा 

तुम्हारा गुस्सा हम पर

ख़ैर तब तुम आओगे ही क्यों इधर 

हम अपनी ही उम्र के गुस्से का 

शिकार हुआ करेंगे जब-तब


ऐसी ही दुनिया बनायी थी हमने

जिसमें हमारे बच्चे

ऐसे ही बड़े हो सके


वे ठीक वैसे ही हैं

जैसा हम उन्हें देखना चाहते थे

सुखी सम्पन्न और सुरक्षित

जबकि ये दुनिया नहीं थी 

सुखी सम्पन्न और सुरक्षित


अब हम अगर फाँस की तरह हैं

तो क्यों न निकाल फेंका जाए हमें

अब जब धीमापन भी 

थम गया है जीवन में

अब तो पानी ही नहीं 

हमारे समय के दरिया में


अब तो साँसें ही चील हो गई हैं

रह रह कर झिंझोड़ती हैं काया को 

कँपा देती है अस्थि पंजर 

हाँफता है चौंसठ वर्षों का

समूचा जीवन।




प्रभात मिट्टी और लोक के प्रतिष्ठित कवि हैं। 


कविता संग्रह : 'अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ (साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली),  और 'जीवन के दिन' (राजकमल प्रकाशन)।


कई लोकभाषाओं में स्थानीय स्तर पर समुदायों के साथ काम करते हुए बच्चों के लिए पचास से अधिक किताबों का सम्पादन-पुनर्लेखन। एकलव्य, जुगनू, एनबीटी, रूम टू रीड, लोकायत आदि प्रकाशनों से बच्चों के लिए पानियों की गाड़ियों में, बंजारा नमक लाया, कालीबाई, रफ्तार खान का स्कूटर, साइकिल पर था कव्वा, घुमंतुओं का डेरा, अमिया, ऊँट का फूल, कैसा-कैसा खाना, लाइटनिंग, पेड़ों की अम्मां, आओ भाई खिल्लू आदि तीस से अधिक किताबें प्रकाशित ।


लोक कवि धवले पर केन्द्रित किताब सेतु प्रकाशन से प्रकाशित। कहानीकार डॉ. सत्यानारायण पर मोनोग्राफ राजस्थान साहित्य अकादमी से प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन से समय-समय पर कविताएँ प्रसारित। विभिन्न पाठ्यक्रमों में कविताएँ, कहानी और नाटक शामिल। मैथिली, मराठी, अंग्रेजी, पंजाबी आदि भाषाओं में कविताओं के अनुवाद।


पुरस्कार/सम्मान : युवा कविता समय सम्मान (2012), सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार (2010), बिग लिटिल बुक अवार्ड (2019), बिनोद कोरिया अवार्ड (2023), नेहरू अकादमी, राजस्थान का बाल साहित्य सम्मान (2023)।


ईमेल : prabhaaat@gmail.com 



5 Comments


Leena
Nov 18

Agar is samay ke ek Kavi ka naam Lena ho to mai Prabhat ka naam loongi . Unse ek bhi mulakat nhin hai unki kavitaon se hai

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Kumar Arun
Nov 14

गहरे सरोकार की कविताएं .. माटी से उठते गंध से शब्द .. कहन की अपनी ही राह .. कहीं से बुलाकर न शब्द को लाना है, न बातों को - वे जुट आते हैं .. और बुन जाता है जाड़े में बच्चों के पुलोवर सा गर्म और आश्वस्तिदायक ..

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कुमार अरुण
Jan 21

बहुत सुंदर कविताएं !

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यादवेन्द्र
Jan 20

प्रभात हमारे समय के सबसे under rated कवि हैं जिनकी कविता का एक एक शब्द तेजी से विलुप्त होती जाती संवेदना का दस्तावेज़ है। बहुत संभाल के रखना होगा इस दुर्लभ कवि को, महापलय के दिनों में ये याद दिलाएंगे कि हम पहले क्या थे।

यादवेन्द्र

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शंकरानंद
Jan 20

प्रभात हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। ऐसे कवि जिनकी कविताएं लोकगीत के शोक की लय जैसी बांध लेती हैं।उनकी कविताएं कील की तरह स्मृति में धंस जाती हैं। उनकी कविता के दुःख की धाह से बचना लगभग नामुमकिन है।ये कविताएं ऐसी ही हैं।

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