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नेहा नरूका की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Jan 15
  • 7 min read



चतुर काव्य के प्रेत


अगर रामचन्द्र शुक्ल टाइप कोई आलोचक ज़िंदा होता तो पता है तुम्हारे बारे में क्या लिखता

वह लिखता, "इन्हें कवि हृदय नहीं मिला है, चार किताबें पढ़कर विद्वानी और भाषा कौशल से अपने कवित्व की धाक जमाना चाहते हैं।"

मेरे जैसे हिंदी पाठक तुम्हें चतुर काव्य का प्रेत कहकर चिढ़ाते और तुम समझते,

ये सब ईर्ष्या-द्वेष से मुझे ट्रोल कर रहे हैं

मैं इक्कीसवीं सदी का महाकवि हूँ।

तमाम ग़लतफ़हमियों के बीच अतिआत्मविश्वास में घिसकर काट लेते तुम अपना लंबा जीवन

बिना यह सोचे कि तुम चारों तरफ़ से कला सामंतों से घिरे हो

किसी जन का तुम्हारे जीवन से कोई नाता नहीं

और इसलिए ही तुम्हारी कविता में भी कोई दम नहीं

सिवाय इसके कि एक बड़ा आलोचक रोज़ शाम को तुम्हारे साथ सिगरेट पीता है और उसकी सिगरेट का पैसा तुम भरते हो

इसलिए नगरश्रेष्ठ कवि कहलाने पर

सबसे पहला विशेषाधिकार तुम्हारा ही बनता है।

तुम्हारी कविता को पढ़ते हुए लगता है

तुम दरअसल कवियों के बीच फँसे हुए एक व्यापारी हो

जिसे व्यापार करने के लिए वस्तुएँ नहीं मिलीं

तो कविता में ही बेचने-ख़रीदने की गुंजाइश खोजने लगा

अब तुम कितना भी बेच लो

एक बात तो तय है कविता के व्यापार से अम्बानी तो नहीं बन सकते

अम्बानी तो सात समंदर पार की बात हो गई

तुम तो मेरे शहर के सबसे पुराने भूरा पंसारी भी नहीं बन सकते

मगर किया भी क्या जाए

मज़बूरी समझती हूँ तुम्हारी

तुमने शब्दों के अलावा किसी और से खेलने का कौशल भी तो नहीं सीखा

अगर सीखते और मुझे कोई जादू आता तो मैं तुम्हें अभिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर या कुमार विश्वास टाइप कुछ बना देती

तुम्हें सफलता की सबसे ऊँची मंज़िल पर बिठा देती

और तब पूछती,

"अब बताओ कैसा लग रहा है चोटी पर पहुँचकर ?"

और मुझे यक़ीन है तुम कहते,

"मुझे कुछ महसूस ही नहीं होता।"



सविता चोर नहीं है


सविता कपड़े धोती है

सविता ढाई सौ रुपए पर इंसान कपड़े धोती है

मोहल्ले की गुप्ताइन ने सविता पर डेढ़ सौ रुपए की चोरी लगाई है

गुप्ताइन का दावा है—

डेढ़ सौ रुपए जब उसने वाशिंग मशीन पर रखे

तब घर में सिर्फ़ कविता थी

सविता महेरी-सी खदक रही है

कौए जैसी चोंच से भारीभरकम पत्थर तोड़ रही है

सूखी आँखों से रोते हुए

हर थके-थकाये वाक्य के अंत में

मंदिर में बैठे ठाकुर जी की सौ खा रही है

गुप्ताइन का आरोप को ग़लत और ग़ैरज़रूरी सिद्ध करने के लिए सविता

अपने दूसरे मालिकों के घरों में हुए अनुभव सुना रही है

कि कैसे शर्मा जी के पेंट में रखी नोटों की गड्डी उसने ही शर्माइन को दी

कैसे वक़ील मेडम अपना घर उसके भरोसे छोड़ कोर्ट भाग जाती हैं

कैसे दुबे की बहू उसे तकिये में भरे नोट का रहस्य बताती है

गुप्ताइन एक ही रट लगाए हैं पैसे जिस वक़्त पर्स से निकालकर वाशिंग मशीन पर रखे घर में उस वक़्त सिर्फ़ सविता थी

गुप्ताइन की कमर में तकलीफ़ रहती है

डॉक्टर ने झुककर काम करने से मना किया है

कमर में बेल्ड बांधे रहती हैं हरदम

मगर डेढ़ सौ रुपए का ये दर्द उनके कमर दर्द को खा गया है

सविता ने गुप्ताइन का काम छोड़ दिया है

उसका कहना है ऐसी औरत के घर में क्या काम करना जो आज डेढ़ सौ रुपए की चोरी लगा रही है

कल न जाने क्या लगा दे

उसने कह दिया है मैंने नहीं चुराए फिर भी अपनी तसल्ली के लिए मेरे हजार में से काट लेना

गुप्ता जी का मेडिकल स्टोर है,

दवाइयों के नाम पर हर तीसरे ग्राहक को चूना लगाते हैं

पर वह चोर नहीं हैं

गुप्ता के सामने जो सरकारी अस्पताल है उसका डॉक्टर दुबे और उसका बेटा खुलेआम मरीजों से फीस वसूलते है पर वह भी चोर नहीं है

वकील मेडम कोर्ट में फर्जी केसों से ख़ूब पैसे छाप रही हैं आजकल 

पर वह भी चोर नहीं है

सरकारी कॉलेज़ के शर्मा जी पच्चीस साल से प्रिंसीपल की केवल कुर्सी तोड़ रहे हैं

पर वह भी चोर नहीं है

गुप्ताइन के मकान में एक लड़की पार्लर चलाती है 

हर महीने किराया लेने के बाद भी गुप्ताइन फ्री का फेशियल, हेयर कट, थ्रेडिंग, बिंदी, काजल डकार चुकी हैं 

पर वह भी चोर नहीं है

केवल सविता चोर है 

चूंकि वह चोर है इसलिए गुप्ताइन उसके डेढ़ सौ रुपए काटकर भी आठ सौ पचास रुपए देने का नाम नहीं ले रही है।



बेला


बेला के फूल की नहीं 

बेला की रस्म की बात है यह

ताऊ ने किया था बेला

कांसे का बेला था 

जिसमें रखे थे तीस हजार

पता नहीं ज़रा से उस बेले में तीस हजार कैसे आ पाए होंगे?

पर उस दिन आए तो थे तीस हजार

गुलाबी साड़ी में लिपटी एक उन्नीस साला लड़की ससुराल पहुँची थी

जिसके चेहरे पर लंबा घूँघट था

और था अनजान रास्ता, अनजान शहर, अनजान गली 

और उस गली में लोहे का एक अजनबी दरवाज़ा!


दरवाज़े से हँसती-खिलखिलाती औरतें एक साथ निकलीं

उनके बाद निकली एक ऑफिसरनुमा औरत

वह ऐसे ख़ुश थी जैसे छाती पर लग गया हो एक और मेडल

उसने आँगन में पहुँचकर रिश्तेदारों से कहा, "तीस हजार जो कम थे टीके में, वो आ गए बेला में।"

फिर उस औरत ने अपने दोनों नथुनों में मेंहदी की सुगंध भरी

नज़र न लग जाए का कोई जंतर किया

और कमरे के अंदर ले आई

पर नज़र तो थी कि फिर भी लग गई

नज़र लग गई नए ज़माने की

फिर तय हुआ बेला में जितने रुपए रखे थे 

कम से कम उतने तो कमाने ही हैं

एक सुबह घर के कोने में जादू घटा 

कांसे का बेला कहीं फूट गया

फूट गई किसी की बेचारगी

कसैला होता गया किसी का कोमल मन

आँगन की दीवारें चिल्लाई असगुन! असगुन!!

एक नदी जो मंडप की मिट्टी में से दिन-रात बह रही थी बहते-बहते पलंग पर जाकर सूख गई

सूखकर रेत हो गई


'पैसे से कुछ नहीं होता'

यह वाक्य अपनी सौ आवर्तियों के बाद बोला

“पैसों से ही होगा सब”

इस तरह उस निश्चित बेले से निकल कर

वह लड़की आसमानी रंग के इस अनिश्चित थाल में आ गिरी

पहली बार जब तीस मिले तो जैसे दूसरा जन्म हुआ था...

मेडल वाली औरत ने कहा, "अरे इसके तो पर उग आए फलाने के पापा !"

फलाने के पापा ने कहा, "तुम तो पर काटने की विशेषज्ञ हो, काट दो!"

"मैं तो उड़ती चिड़िया की गाँड़ में हींग भर दूँ, पर इसकी नहीं भर पा रही हूँ। यह औरत तो चिड़िया से भी तेज़ उड़ रही है।"



लक्ष्य


ऐसा लगता है जैसा मेरा जीवन अब जीवन नहीं रहा

आज़ादी की लड़ाई बन चुका है 

मैं जो भी कर रही हूँ उस सबका बस एक ही लक्ष्य है 'आज़ादी' 


तभी तो मुझे गुप्त रणनीति तैयार करनी पड़ती है

अपनी चमड़ी मोटी करके रखनी पड़ती है

कभी भी खानी पड़ जाती हैं लाठियां

विचित्र-विचित्र समझौते करने पड़ते हैं

इतने विचित्र कि अगर बता दूं तो हँसी के मारे मर जाएँ आप

कभी ख़ाली घर में बम फोड़ने पड़ते हैं

कभी कुछ दिनों के लिए जेल की चहारदीवारी में क़ैद भी रहना पड़ता है


मुझे पता है मुझे कभी भी फाँसी के फंदे पर लटकाया जा सकता है

कभी भी खिलाया जा सकता है सल्फास

आज़ादी के दुश्मनों की बंदूक का छर्रा कभी भी भेद सकता है मेरे माथे को

इसलिए मैं अंदर ही अंदर मृत्यु की तैयारी भी करती रहती हूँ

ताकि जब आज़ादी के लिए जान देने की बारी आए तो कायरता का माफ़ीनामा न लिख बैठूँ


आज़ादी का यह रास्ता जैसे यातनाओं से होकर निकला है

वरना अब तक गुज़रे रास्ते अंगारों से क्यों पटे होते?

काश मेरे पास डेढ़ करोड़ तलवे होते तो मैं इन अंगारों को रौंद देती!

पर मेरे पास तो दो ही तलवे हैं

जो काफ़ी हद तक जल चुके हैं


अपने जले हुए तलवों पर ख़ुद ही मरहम लगाकर 

बार-बार चलना पड़ता है।



सौ साल पुरानी साड़ी 


डिजीटल न्यूज प्लेटफार्म पर निम्नलिखित ख़बर छायी है-

"वड़ोदरा की राजकुमारी राधिका राजे ने जो साड़ी पहनी है, यह सौ साल पुरानी है। इस साड़ी के पल्लू और किनारी पर असली सोने के धागे का उपयोग हुआ है। सोचिए सौ साल पहले भारत में कितनी शानदार कलाकारी होती थी।"

ख़बर के नीचे राजकुमारी का चित्र है।

साड़ी सचमुच शानदार कारीगरी का नमूना लग रही है।

मेरा ध्यान सौ साल पुराने उस बुनकर की तरफ़ जा रहा है, जिसने ये साड़ी बनाई होगी...


कितने दिन में बनाई होगी? 

कैसे बनाई होगी? 

क्यों बनाई होगी? 

पेट भरने के लिए बनाई होगी?

या अपने कला-कौशल की अभिव्यक्ति के लिए?

बुनकर ने किस मकसद से बनाई होगी सौ साल पुरानी यह साड़ी?


वह बुनकर औरत भी तो हो सकती है!

अगर वह औरत थी तो वह कैसी साड़ी पहनती होगी?

सौ साल पहले भारत की आम औरतें कैसी साड़ी पहनती होगीं?

स्मृतियों की पोटली से निकल कर एक साड़ी आई है

घिसी-थिगिली लगी सूत की साड़ी!

जिसे धोने के लिए पहननेवालियों के पास आधा डोल* पानी नहीं है

चित्र में साड़ी की किनोर पर सोना है 

स्मृति में साड़ी की किनोर पर मैल!!

इनमें से किसे कहूँ मैं सौ साल पुरानी साड़ी?


*डोल: पानी भरने का लोहे का गोल बर्तन।



एक दिन


एक दिन सब अपने-अपने जाने को परिभाषित करते हुए कहेंगे—

यह मेरी वृद्धि है

यह मेरे आज का सच है, वह मेरे कल का सच था

तब नहीं थी अक्ल,

अब है

तब नहीं था दुनियादार,

अब हूँ।


बदलाव अच्छा विचार है

पर सबका समुद्र की सबसे बड़ी मछली में बदलते जाना

डराता है।


कोई एक,

जब सबकी ज़िंदगी को,

अपनी मुट्ठी में बंद कर रहा हो

तो डराता है।


मन करता है

रोके उन्हें

पर वे कहते हैं

हमें क़ैद करने की कोशिश मत करिए

हम स्वतन्त्र हैं

हम नीले आसमान में उड़ना चाहते हैं और हमें खुलकर उड़ने दीजिए।


उड़ना किसे पसंद नहीं होता!

हम भी उड़ना चाहते हैं


पर कोई आकाश खरीद कर लें तो उस आकाश में कैसे उड़े हम

कोई आकाश में उड़ने वाले छोटे-छोटे पक्षियों को लहूलुहान कर दे

तो उस आकाश में किस तरह उड़े हम

और कोई आकाश में टांग दे पिंजरे ही पिंजरे

तो उस आकाश में कहाँ उड़े हम


तय तो यह हुआ था कि हम साथ-साथ धरती को खुशहाल बनाएंगे

पर साथ-साथ जैसा कुछ भी तो नहीं हुआ

धरती दुःख से सूख गई


वे हमारे मन से उतरकर

देवताओं के घोड़ो पर बैठे और स्वर्ग की ओर भाग गए

और जाते-जाते कह गए

हम जीत गए

हम जीत गए।


कल की चिंता कलेजा नहीं चीरती

कलेजा तब चिरता है

जब आज चीख-चीख कर डराता है


यह डर न दिन में पीछा छोड़ता है न रात में

कि सब जो आज साथ हैं कल छोड़ कर चले जाएंगे

और इस तरह जाएंगे जैसे चले जाते हैं गधे के सिर से सींग।





नेहा नरूका इस समय की सबसे सशक्त स्त्रीवादी युवा कवियों में से हैं। चंबल क्षेत्र (भिंड-मुरैना) के एक गांव उदोतगढ़ (भिंड, मध्यप्रदेश) में जन्म। वर्ष 2012 से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेब माध्यमों पर कविताओं का प्रकाशन। वर्ष 2023 में 'फटी हथेलियाँ' शीर्षक से पहला कविता संग्रह प्रकाशित। वर्ष 2024 का मध्यप्रदेश का प्रतिष्ठित वागीश्वरी सम्मान प्राप्त।

1 comentario


Kumar Arun
15 ene

अपने अनुभव को, अपने देखने को खास अपनी कहन की माटी से बनाती है , नेहा नरूका, कविता .. पढ़ते पढ़ते लगता है कि ऐसे तो किसी ने नहीं कहा ..

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