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जनमेजय की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Jul 28
  • 3 min read
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दूसरी ओर


मैं दीवार के दूसरी ओर खड़ा हूँ

इसके परिदृश्यों के बाहर

और यह समय की इकाई से 

मेरा माप ले रहा है

अपने किसी अनुभव की तरह


मेरे जन्म से पूर्व 

ब्रह्माण्ड एक बिन्दु भर था

और बचपन में ही 

गणित की पुस्तक में 

मैंने पढ़ लिया था :

एक बिन्दु से अनंत रेखाएं गुज़र सकती हैं


फिर भी मैं दीवार के दूसरी ओर खड़ा हूँ

और मैं यह भी जानता हूँ कि

एक दिन असंख्य अनुभवों वाला यह संसार

मेरी दरारों में

अपना अपेक्षित जंगल बना ही लेगा

और यह महत्वहीन होगा कि 

मैं कौन था।



अपने-आप से अनुपस्थित


कुछ दिन होते हैं, जब 

अपने-आप से अनुपस्थित मैं

अपने बिल्कुल ख़ाली आत्म में

भटकता हूँ


अपना प्रतिनिधित्व करती आवाज़ें 

शनै: शनै: अपनी प्रतिध्वनियों में टूटती हैं

और मृदु संगीत अपना सिर पटकता है।


मैं पुन: जैसे अपनी सर्दियों में हूँ

-वही खुला, विस्तृत चट्टानी मैदान

-आग में लकड़ियों के जलने की आवाज

-और लाखों-हज़ारों वर्षों की ऊँचाई से

  गिरता एक पत्थर


मैं चुप था और प्यासा था

लेकिन एक चीज़ और भी थी

जो अब मुझे याद नहीं। 



मुझमें एक विचार


मुझमें एक विचार को होना होता है;

मैं इसके लिए ख़ाली जगह 

जुटाने में व्यतीत होता हूँ


वस्तुएं मुझमें गिरती हैं तब ही

जब उन्हें पकड़ने के लिए 

मैं वहाँ नहीं होता हूँ


और इस तरह मैं अपने साथ 

लुका-छिपी का खेल खेलता हूँ


मेरी आँखें बहुत ही गहरी साधारण हैं,

वर्ष वहाँ गति के कगार पर 

भविष्य से वर्तमान की ओर 

रेंगते चले आ रहे हैं


लेकिन मैं इस तरह भी हूँ 

कि मैं हस्तक्षेप से परे हूँ, जैसे 

मैं अपने आप में इतना अधिक हूँ


और एक सुस्जित अफ़रा-तफ़री में 

गहराई तक गर्क हूँ, जिसके नीचे 

कोई अँधेरा भी नज़र नहीं आता 

जहाँ निराशा के आकस्मिक क्षणों में

मैं डूब सकूँ


मुखौटों जैसे चेहरें अपनी आँखों का विस्मय चुप रखते हैं-

इतना सारा खालीपन भरा क्यों नहीं जाता?

और दिखाई भी क्यों नहीं देता?

आख़िर कौन इसे पी रहा है?



हिलती दीवार पर


सर्वप्रथम एक फूल आता है,

फिर उसका रंग और

उसके बाद सम्पूर्ण चित्र

वहाँ उस हिलती दीवार पर


वहाँ उस हिलती दीवार पर 

एकटक साधारण-सा मौन

फिर उसका चेहरा 

बिना आवाज़ किए आता है

वहाँ उस हिलती दीवार पर


वहाँ उस हिलती दीवार में 

एक दरवाज़ा है जो नहीं हिलता

हर बार अपनी ही जगह खुलता है;


वहाँ उस हिलती दीवार पर। 



त्रिभुज


मैं नयी कविताओं के बारे में सोचता हूँ

और अपनी खो गयी किताबों के बारे में

और देखते ही देखते 

यहाँ एक त्रिभुज उभरने लगता है


अपनी दृष्टि की अंतिम सीमा के छोर पर

खड़े वृक्ष में बैठी चिड़िया के मौन में

मैं दूसरी चिड़ियों का स्पंदन सुनता हूँ

अपने हिस्से के मौन में उगी

खरपतवारों के बीच बैठकर


हवा में लड़खड़ाते हुए तैरती

नि:शब्द समय से निर्मित 

उनके डैनों की आवाज़ 

जल की परत पर

धीरे-धीरे उभरता स्पंदन और

दलदली मिट्टी में आ धँसते उनके पंजे


फिर उनमें से कोई 

अपने मज़बूत पंख धूप में फैलाकर

अपनी नुकीली चोंच मेरी खरपतवारों में

यकायक भरपूर उतार देता है

और मेरा त्रिभुज काँप उठता है।



उत्तर


उस किताब में लिखा था–

“मुझे लगा जैसे मैं 

अब साँस नहीं ले सकूँगा।“


आगे पढ़ने से पहले 

मैंने रुककर 

अपने स्याह फेफड़ों में

एक लंबी गहरी साँस ली…


और

मैं वहाँ शब्दों को चुनने लगा 

इन चुने शब्दों का

एक-एक कर दूर तक

मैंने पीछा किया।


लेकिन किताब अंत तक 

मेरे लिए बंद रही

लेकिन वही किताब मुझे

एक सिरे से दूसरे सिरे तक

उधेड़ती चली गयी… 


और

तब मैंने जाना

मैं प्रश्नों का एक पुंज था

और अब तक प्रत्येक उत्तर

मात्र एक तमाशा!



घुलना सिसकी में 


दिन बीतते-बीतते 

एक अँधेरा 

मेरे अंदर से रिसता हुआ  

मेरे चारों ओर फैल जाता है

 

मेरी छटपटाहट दुबक जाती है इस अँधेरे में

उस बालक की तरह

जो डरावनी कहानी सुनते-सुनते  

रजाई ओढ़ 

सोने का बहाना करने लगता है

 

हताशा में उम्मीद के लिए 

या फिर छिपने के लिए  

कल्पना के हिरन पर सवार 

यादों के पीछे 

मैं अपनी बंद मुठ्ठियों को खुली छोड़ देता हूँ

जहाँ से

दो-एक नाम 

दो-एक चेहरें 

दो-एक देह 

पोरों के रास्ते 

मेरे अंदर धँसते हुए 

घुलते जाते हैं मेरी सिसकी में

आधी-अधूरी नींद के स्वप्निल कोटर में

घुले 

कल्पना और स्मृति की तरह।



जनमेजय युवा कवि हैं। वेब पत्रिका पोएम्स इंडिया, घुड़सवार, सेतु व हिन्दी हाइकु में उनकी कुछ रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं।



         

















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