हिमांशु विश्वकर्मा की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Aug 15
- 4 min read

बावर की वनकन्या
पिता की मृत्यु पर
अनाथ नहीं हो जाती बावर की वनकन्या,
वह जीती है दाड़िम, बेडू और महासू
की छत्र-छाया में
तमसा के घाट को पार करती हुई,
तट पर भेड़ों को सुनाती है
अपनी व्यथाओं के गीत
गोधूलि होते ही वह लौटती है
दहलीज़ पर
टिकाकर घास के गट्ठर को
पिरोती है
जीवन के हिस्से से
पहाड़ की तस्वीर
तमसा के घाट पर ही
रोके जाते हैं उसके पैर
फिर एक बार
टूटती है
उस पर लाँछनों की शमशीर
तब चंद रातों को सजाने,
बहाया जाता है उसको मैदानों की ओर
बेच दिये जाते हैं
उसके स्वपन
ताकि उसके जीवन में
राजमा बोते
साधु हुए पिता की
फूँकी जा सकें
असंख्य चिताएं!
जब खुले आसमान से
बंद कंक्रीट के डब्बों भीतर काटे उसने
दो ग्रीष्म, दो शरद और दो शिशिर।
उसने कुरेदी दीवारें
नोचे कंचुक और शिराएँ
उसने काटना चाहा स्नायु तंत्र
नए मालिक ने
रुधिर में भरनी चाही सभ्यता की गन्ध।
परंतु
विदुर होती है वनकन्या
वह जानती है बचाव के तरीके
उसको पता होता है
जान हथेलियों पर रख
पहाड़ पर अगर
बन्दूक़ से
भालू मार गिराना है
तो ढलान की तरफ़
भागना होगा।
पर
मैदान समतल होता है
पशु को मार गिराने का
तरीक़ा भी
यहाँ समतल ही होगा
दो बसंत, दो सावन, दो हेमंत भोगने के
बाद
भोर में
घुघुतों* के डैनों सी फड़फड़ाती
वनकन्या जब लौट आती है
अपने पर्यावास में
उजास से भर जाता है
माँ का चेहरा
अम्मा के गालों पर उगे ओस के फूल
झरते हुए पूछते हैं
सबला के हाल।
*घुघुतों- फ़ाख्ता (कुमाऊनी लोककथाओं का एक पक्षी)
बेटी के भाग जाने के बाद
अभी…
हाँ !
अभी से ही सुनाई देने लगा है उनको
लाम की आवाज़ों का तीव्र स्वर
हाँ!
अभी-अभी चढ़ने लगा
माथे पर समाज की आस्थाओं का ज्वर,
अचानक ही परिवार का मान,
कुलीन कुंठाओं का भार ढोने लगी हैं
जँभाधूत-कुमथले
एक ही रात में
अचानक!
पाँच फुट रड़ गई
सारी यादें,
ठीक
बेटी के
भाग जाने के बाद
आतंक से घिरे
पिता के कदम होने लगे तेज़,
आंसुओं से अधिक बरसने लगे ख़्याल
माँ के मन को निचोड़ते हुए
बहने लगी चाँद की रोशनी के बीच
सर्द-पौष की रात में जुगनुओं सी
आज तक जो कभी नहीं सोचा गया
ना जिस वक्तव्य की कल्पना की गई हो
पर वह कर बैठी
अपने मन की इच्छा को पूर्ण
जिसे समझा गया विद्रोह,
आत्मघाती
और
अनैतिक।
रमणीय चट्टी
तथाकथित रमणीय चट्टी में
बसा था एक ग्राम
जहाँ के
दैवीय नदी तटों पर
घुला करती थीं शामें,
प्रेम और विश्राम!
पंडों-पूँजीपतियों के अधिकार से पहले
वहाँ बसा करते थे लोग!
लोकजीवन था।
बसावट थी
रहवास था।
हम जब भी मिला करते
जलती धुनी के समीप
होती थी
क़िस्सागोई!
कमरू के लड़के ने निकाल ली थी भल
फ़ौज की दौड़!
पर बेटी घस्यारिन है अभी भी
पार्ट-टाइम स्कूल जाती है अभी भी।
इस छुट्टी गाँव से लौटकर जग्गू
काट ले आया था
रामबाढ़ा की दुकान के लिए
चीड़ का चॉपिंग बोर्ड!
बड़ा बेटा
सूबेदार केशव दा का
तो जर्मनी में शैफ़ लग गया,
छोटा वाला केदार घाटी में
खोल बैठा है होटल और कैंपिंग साइट
परंतु करता है ठेकेदारी।
आजकल
उसकी ईजा ढूँढ रही है ब्वारी।
और
बग़ल के ग्राम प्रधान की ईजा
नसों के दर्द से
अब खड़ी नहीं हो पाती
उनके चेहरे पर उसके साथ बैठती हैं
सैकड़ों मक्खियाँ!
तथाकथित रमणीय चट्टी में
बसा है एक ग्राम
जहाँ अब दैवीय नदी तटों पर
धुलती हैं हर वक़्त
सहस्र धार्मिकों की असंख्य पीड़ाएँ,
ढेरों वस्त्र, निर्वस्त्र लोग और टनों मल।
आँखें देखती हैं
अजीब तरह के अव्यवस्थित दृश्य
यहाँ आकर नहीं करता कोई,
ऐसी कल्पना
ठीक तीन साल पहले नहीं थी
यह दुनियाँ यहाँ।
अब!
ख़ूब मच्छीबाज़ारी है
मैली-कुचैली गलियाँ हैं
साथ खूब-मक्खीमलि दुकानें।
खूब खच्चर,
खूब रोड किनारे ठेलों के साथ
भरपूर दुर्गंध की घुसपैठ भी!
यहाँ गर्म कुण्ड में सरकारें सेंकती हैं
अनगिनत हाड़-मांस के पुतले,
खुलेआम नग्न,
बेतरतीब और बेहया होकर
ठूस रही हैं घाटी में असभ्य व्यवस्था
लोकल चालाक है
उन्होंने ठेके पर थमाए हैं
रोज़गार के पिट्ठू
प्रवासी बंधुओं के हाथ में,
हैली एक अलग तरह का विध्वंसी है
हाय!
कभी ना ख़त्म होने वाला शोर!
घाटी के बच्चे
नहीं पढ़ पाते हैं इस धूम में अपना भविष्य!
इस खरीद-फरोख्त में
घाटियाँ हो गई हैं तंग और उद्वेलित
पर लोग नहीं हैं अब भी चिंतित
नहीं दिखाई देती उनको
कूड़े और मल पड़ी
खो रही हैं
अपने उद्गम को ही
तथाकथित दैवीय नदियाँ और पहाड़।
हिमाल में अब बिक चुकी हर नदी,
हर जंगल,
हर तख़्त के साथ।
धीमे-धीमे
रहवास ख़त्म हो रहा है अब पहाड़ों से
खो रहे हैं
अब कंठों से रहस्यमयी गीत!
निर्फुल्ली* सी
तुम भी उसके अथाह प्रेम में डूब जाना
जैसे डूबती है अस्ताचल पर
चरवाहों के सुरम्याले* गीत
और बंसी की न्यौलियाँ
हिमाल के ह्यू जैसा
घुलनशील होते हुए भी रखना
अपना अलग वर्चस्व,
जमना और खिलना
दूब और निर्फुल्ली सी
देहली और आँगन की दीवार पर
बिखरना
पानी के छीड़* सा
महेशर-गमरा को बुलाते रहना
रमना आठों-सातों में
हुड़के की थाप पर
हर भादो
जब बसंत लौटेगा
पद्म, प्योली, बुरूज़ और भीटारू
फिर उठेएंगे
तब लौट आएगी बैंडेड ज्यूडी*
और
बिखेर देंगे प्रेम की सुगंध
तुम्हारी देह के
मर्मस्थल पर।
* निर्फुल्ली- नीले फूल वाला एक जंगली औषधीय पौधा, सुरम्याले- सुहाने, ज्यूडी- एक तितली की प्रजाति , छीड़ -झरना
हिमाल ने
ऊँची-सीधी छाती ताने हुए
हिमाल ने
सबके हिस्से का प्रेम संभाल कर रखा
ईजा को काटने के लिए
चौमासी घास दी,
तो बौज्यू* और पूरन दा को
डोक्के* भर मच्छी,
कका को रोपाई के लिए
ख़ूब पानी दिया
तो नब्बू को अन्न उगाने के लिए
एक हौल* बैल और खेत दिए।
जग्गू दा और दीवान दा
की मुरलियों में न्योली बसाई
तो कुङगा* को ऐंड़* सिखाई।
बौजी को खूब धीनाली दी
तो काखि* और
जेठज्या को पानी का घट।
बुबु को घर दिया, ज़मीन दी।
तो अम्मा को पहाड़ों का पौर* रखा,
सबको कुछ ना कुछ दिया हिमाल ने
मुझे और पवन को
खूब हिसालू दिए,
काफल दिये,
माल्टा दिए,
घाम दिया,
बर्फ़ दी,
और
आग की सिकी
दो जून की रोटी दी।
*बौज्यू- पिता, डोक्के- रिंगाल से बनी पीठ पर लादे जाने वाली शंकुकाकार टोकरी, हौल- जोड़ी, कुङगा- कुसुम (कुङगा) मेरे दादा की बड़ी बहन, ऐंड़- पहेलियाँ, काखि- चाची, पौर- रक्षक
हिमांशु विश्वकर्मा युवा कवि हैं। इससे पहले उनकी कविताएँ सदानीरा में प्रकाशित हुई हैं।
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