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आदित्य चंद्रा की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Aug 7
  • 4 min read
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उजाड़ होते मुखर्जी नगर पर 


यह जगह अब ख़ाली हो रही है

कभी न भरने के लिए 

उन्होंने आदेश किया है 

अब यहाँ‌ प्रतिभागियों की कोई जगह नहीं 

कोई कमरा नहीं 

कोई शोर नहीं 


यह मुखर्जी नगर है!

मरे-मरे से जीवन से 

मुक्ति रस खींचने वालों की जगह 


यह नालंदा भी अब उजाड़ हो गया 

किसी दीवार पर कोई विज्ञापन नहीं 

शीलभद्र भी चला गया समय के साथ कहीं 

अब तो मैं हूॅं और ये ख़ाली सड़कें हैं 

जिस पर प्रतिभागी जा रहें हैं और देखते-देखते 

ओझल हो जाते हैं 

कहाँ गए होंगे वे?


किसे पड़ी है इसकी,

वे कहाँ गए

दुखी थे 

कहीं नई दुनिया ढूंढने तो नहीं निकल गए

अरे! मुझे तो साथ ले चलते 

मैं रह गया हूॅं 

मेरे दोस्तो!

मैं उस दुनिया को आकार देने में 

सबसे आगे होना चाहता हूॅं 

मुझे ले चलो 

ले चलो न मुझे भी 


हम अपने सपनों की दुनिया बनाना चाहते हैं 

और आप हैं कि

हमारे स्थानांतरण पर तुले है 

कभी फलां जगह कभी फलां शहर 

हमें हमारे सपने वापस कर दो साहब!

जो आपने अपनी फाइलों में दबा रखे हैं 



पत्थरों को सुनो 


उठो हे! पत्थरों उठो

जबाब दो मेरे प्रश्नों का 

बोलो कुछ बोलो

यूॅं चूप रहकर भी क्या हासिल है तुम्हारा 

पिछली बार जब मैं आया था इन पर्वतों में 

तब ले गया था प्रेरणा तुमसे 

स्थिर और अडिग रहने की 


पत्थरो!

तुम्हारी प्रेरणा ने मुझे कायर बना दिया 

मुझसे प्रश्न पूछे गए 

मैं मौन रह गया 

मैं हिंसा को घूंटों पी गया 

आह तक दबी रह गई कहीं भीतर 

मैं थक गया हूँ तुम्हारी इस झूठी प्रेरणा से 


तुम्हें समझाना होगा मुझे 

भूस्खलन का विज्ञान 

बरसने के लिए 

बनने के लिए एक भीषण प्रलय

जिसमें नष्ट हो जाएं हिंसा और तरह-तरह के विभाजन 


मुझे बताओ कि कैसे बनते हो तुम देवतुल्य 

चलो मत बताओ 

अच्छा! यही बता दो कि 

अच्छा आदमी कैसे बना जाता है 

तुमने तो युगों को देखा है 

अपने ऊपर कई लोगों को स्थान दिया है 

उनमें कोई तो होगा 

जिसमें अच्छे आदमी के गुण हों 

वही बता दो 


कान लगाकर देखूँ तुम्हें 

हाँ, अच्छा, ठीक है!

मैं समझ गया

तुम्हें भी समझना है

पत्थर ने क्या कहा?

तो जाओ जाकर पत्थरों को सुनो 


 

जब तुमसे बोला जाए 


जब तुम से बोला जाए बोलने के लिए 

शांत रहो

वैसे भी क्या बोल सकते हो तुम 

ग़रीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र, कम्यूनिस्ट 

हिंदुत्व और अखंड भारत 

यही बोल सकते हो न…! 


जब तुमसे कहा जाए लिखने के लिए 

मत लिखो

वैसे भी क्या ही लिख सकते हो तुम 

शोषण, तानाशाह, जातिवाद, परंपरा, वर्चस्व 

धर्म, अंधविश्वास, बहुदेववाद, एकेश्वरवाद , जंगल, ज़मीन, जनजाति, पर्यावरण और सनसनीखेज 

यही लिख सकते हो न…!


जब कुछ करने को कहा जाए 

आँखें बंद कर बैठे रहो 

वैसे भी क्या ही कर सकते हो 

प्रेम, नफ़रत, धोखा, नाराजगी, घमंड, गर्व, 

यही तो कर सकते हो न तुम!


तुम कुछ मत करो

सिवा इसके कि एक-दूसरे के साथ रहो 

अपने सबसे अच्छे बर्ताव के साथ 

तुम ये समझ गया न! 

मुझे भरोसा है तुम ये कर लोगे। 



नया पेड़ 


घर के बाहर एक पेड़ था आम का 

अब कहाँ है?

कुछ दिन तक रहा दरख़्त 

धीरे-धीरे शाम ढली

और होती गई वृद्ध

कलरव के इंतज़ार में लद गयी कई शामें,

दरख़्त की चीखों से 

रात भर चलती रही भारी और बोझिल हवा

ऐसे इंतज़ार किए हैं साल दर साल 

किसी ने ख़बर नहीं ली 

किसी ने नहीं पूछा पेड़ का क्या हुआ 

जबकि मौसम दर मौसम 

सालों-साल जो टपकता रहा अर्क 

आत्मसात करते रहे 

जो रिक्त स्थान रह गया है 

नया पेड़ भरेगा।



लाइब्रेरी 


जहाँ मैं बैठता हूँ रोज़

यह एक तीन बाई तीन का डिब्बेनुमा-सा कुछ है 

कुछ लोग कहते हैंं कि यह लाइब्रेरी है 

हो सकती है पर मैं नहीं मानता 

क्योंकि मैं यहाँ से नहीं देख सकता बहुत कुछ 

जैसे मैं अपने कमरे की खिड़की से देखता हूँ 

और लिख सकता हूँ

मैं यहाँ से सब्ज़ी वाले को महिलाओं से बहस करते नहीं देख सकता 

और न ही देख सकता हूँ मैं यहां से 

उन लड़कों को 

जो सामने की इमारत में किसी को रिझाने के लिए 

बालों को करते हैं हेयर ड्राय

और हाँ! कभी-कभी मुँह पर मिट्टी जैसा कोई लेप 

लगाकर बन जाते हैं ऐलियन 

मैं उन्हें यहाँ से नहीं देख सकता 

और जिसे मैं देख नहीं सकता उसे लिखूंगा कैसे 

हाँ, ये हो सकता है 

लिखने की पहली शर्त घिसते रहना हो 


मैं यहाँ से बैठ कर नहीं दे सकता 

भिखारी को दो रुपए 

और न ही शनिदान वाले को कुछ दे सकता 

क्योंकि इसमें फिंगरप्रिंट लगा है 

उसकी पहुँच यहाँ नहीं है 

मैं यहाँ से राजनीति पर हो रही

बहसों में भाग नहीं ले सकता 

जिसके लिए जाना होगा 

पान की दुकान पर या नाई की 

ना ही यहाँ से पता किया जा सकता है 

पड़ोसी के यहाँ बनी सब्ज़ी की महक का 


यहाँ बैठ कर क्या किया जा सकता है 

यही जानना चाहेंगे अब आप 

तो बता दूँ, यहाँ आदमी खट सकता है 

कहीं किसी पद पर पहुँचने के लिए 

पढ़ भी सकता है 

यहाँ आदमी की उम्र ढल सकती है 

यहाँ आदमी जल सकता है

डूब सकता है 

अगले दिन की ख़बर बन सकता है 

आदमी मर भी सकता है यहाँ।



आदित्य चंद्रा एक नवोदित लेखक हैं। यह उनकी कविताओं के प्रकाशन का प्रथम अवसर है।


1 Comment


नीरज
Aug 07

'उजाड़ होते मुखर्जी पर' अच्छी कविता है। अच्छी शुरुआत, प्रकाशन।

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