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खेमकरण ‘सोमन’ की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Jul 5
  • 4 min read
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कुछ लोग


बस-ट्रेन में कुछ लोग

चढ़ते वक़्त लड़े, उतरते वक़्त लड़े 


बस-ट्रेन में कुछ लोग

बोली-भाषा, धर्म की अगुआई करते वक़्त लड़े

बुराई करते वक़्त लड़े


बस-ट्रेन में कुछ लोग

एक-दूसरे को 

शक्की नजरों से देखते हुए लड़े

पानी की बोतलें, बैग 

कभी पत्थर फेंकते हुए लड़े


कुछ लोगों के पास

कितना वक़्त था।



जल जंगल ज़मीन और हवा 


जल में रहते हुए 

न जल को समझ सके

न जीवन को

लेकिन जीवन भर पता नहीं कहाँ-कहाँ 

किस काम के लिए चढ़ाते रहे जल


जंगल में रहते हुए 

न जंगल को समझ सके

न जंगलीपन को

अन्यथा हमारा यह जंगलीपन ही

बचा ले जाता है जंगल को भी 


ज़मीन में रहते हुए

न ज़मीन को समझ सके

न ज़मीर को,

नहीं तो ज़मीर 

और ज़मीन के साथ ही ज़िंदा होते आज हम 


हवा में रहते हुए

न हवा को समझ सके

न अपनी हवस को

नहीं तो मनुष्य की यह हवस

जिसका कोई भी ओर-छोर नहीं

हवा ज़रूर हो जाती

अब तक। 



ख़ुद को थोड़ा उबालकर लिख


नमक की स्याही से लिख

चमड़ी-ख़ून से लिख

पानी-पसीना, प्यार से लिख

जान, जिगरा-जुनून से लिख


अडिग पहाड़ बनकर लिख

किले की दीवार बनकर लिख

रेत, मिट्टी-पत्थर बनकर लिख

लोहा-तलवार बनकर लिख


हमेशा होश में लिख

कदम बढ़ाकर जोश में लिख

आँखों में आँखें डालकर लिख

ख़ुद को थोड़ा उबालकर लिख


ख़ूब तैयारी से लिख

सबके क़िस्से बारी-बारी से लिख

शोषण की एक-एक कथा लिख

ताकतवर लोगों की व्यथा लिख! 


एक-एक का घटता दाम लिख

गरीब हाथों में काम लिख

चहुँदिशा अमीरों का कुआँ लिख

प्यासी आँखों में धुआँ लिख।



बनना चाहता हूँ 


न पत्थर बनना चाहता हूँ

न फावड़ा

न गोली

न बंदूक

न कील

न हथौड़ा

न बुलडोजर

न दरांती

न तलवार

न दीवार

न पुल

न भाषा शुद्ध

न शांति न युद्ध

न ताकतवर आदमी 


भूले-भटकों की इस दुनिया में 

बनना चाहता हूँ 

पहाड़ों का टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता 

जो पहुँचाकर ही दम लेता है

किसी को

उसके गंतव्य तक।



उतना ही


जितना

बाज़ार के ऊपर का आकाश

दूर कहीं पेड़-पौधे

सड़क किनारे पत्थर

कहीं गिरा हुआ एक फटा नोट

फुटपाथ पर बेरोजगार बैठा लड़का 

वृद्धाश्रम में एक वृद्ध 

और दूर पहाड़ पर नौकरी करता हुआ बेटा

अलग-थलग अकेला

उदास है


उतना ही

अलग-थलग अकेला उदास हूँ

आज मैं।



सरकारी फाइल


बीच बाज़ार 

अपने दोनों हाथों में मेरा हाथ पकड़कर

उन्होंने कहा— बरसों बरस तुम्हें

धीरे-धीरे चलने-खिसकने रेंगने वाली

सरकारी फाइल ही समझता रहा

समझता रहा तुम्हें ज़ाहिल-काहिल रिश्वतखोर

समझता रहा तुम्हें दो कौड़ी का घटिया इनसान

जो पद पर बैठा ताकतवर आदमी

या पूंजीपतियों के चरणों में गिरकर

खाता रहता है उनका जूठा!

लेकिन तुम भी...


उन्होंने थोड़ा रुककर संयमित होकर कहा—

लेकिन तुम भी

ईमानदार अधिकारी के जेब में लगी

कलम साबित हुए जो चलती रही तेज़ 

ख़ूब तेज़,

बिना रुके अविलंब

हर किसी के लिए

हर किसी के हक़ में

आज तुमने हरा दिया मुझे बुरी तरह

तुमने तमाचा जड़ा है मेरे चेहरे पर

मेरी सोच-समझ पर

इसलिए आज मैं 

बहुत ख़ुश हूँ अपनी हार से


उस दिन बारिश का मौसम नहीं था

लेकिन बहुत जोरदार बारिश हुई,

भीग रहा था मैं

हल्का-हल्का काँप रहा था मैं।



उन्होंने कोशिश की


उन्होंने कोशिश की

गरीब बच्चों में

भर सकें आत्मविश्वास का तराना  

वे सफल भी हुए


उन्होंने कोशिश की

कभी बनेंगे नहीं अमीर आदमी का चमचा

किसी के पैरों की जूती

वे सफल भी हुए


उन्होंने कोशिश की

कभी करेंगे नहीं दूसरी जाति-धर्म

और भाषा के लोगों से ईर्ष्या-जलन

वे सफल भी हुए


उन्होंने कोशिश की

नहीं करेंगे अपने पड़ोसियों से लड़ाई

बनाएँगे बच्चों की टीम

जिन्हें विश्वास हो सामूहिकता में

वे सफल भी हुए


उन्होंने कोशिश की

लोगों के अकेलेपन की बंजर ज़मीन पर

बहा सकें अपनत्व

अपने मिलनसार व्यवहार का पानी

वे सफल भी हुए


वे सफल भी हुए

जब दूसरे लोगों की नज़रों की अपेक्षा

उन्होंने सर्वप्रथम अपनी नजरों से देखना-परखना 

और महसूसना शुरू किया

अपने अंदर घुसना शुरू किया

वे सफल भी हुए।



डरना वहाँ-वहाँ


डरना असंगत,

हानिकारक निर्णय लेने पर ख़ुद से

डरना चमचा बनकर जीने वाले

अपने लानत भरे वजूद से

डरना अपनी हानिकारक परछाई से

डरना ज़ख्म देने, दिल-दर्द की दुहाई से


डरना पैरों के नीचे कोई आ न जाए

डरना एक फूल भी कुचला न जाए

डरना कभी सही के पक्ष में खड़े नहीं हुए

डरना उम्र में तो बड़े हुए 

लेकिन क़द में कभी बड़े नहीं हुए


डरना कभी भी किसी को डराने-धमकाने से

डरना अपनी सत्ता की पहुँच दिखाने से

डरना पागल कुत्ते की तरह काटने से

डरना किसी का जूठा पत्तल चाटने से


डरना वहाँ-वहाँ उस जगह पर

जहाँ-जहाँ जिस जगह पर

लगे तुम्हें कि अब डरना चाहिए।



महत्व


कुछ छोटी चीज़ों का महत्व

हमेशा ही

बहुत बड़ा होता है


जैसे लोकतंत्र में जनता

मन में विश्वास 

और

कहीं पर आग लगाने के लिए 

एक चिंगारी।



खेमकरण ‘सोमन’ युवा कवि-कथाकार हैं। कविता संग्रह ‘नई दिल्ली दो सौ बत्तीस किलोमीटर’ और ‘दस्तक-2’ प्रकाशित। उनकी रचनाओं का प्रकाशन परिकथा, पाखी, कथाक्रम, इंडिया टुडे वार्षिकी-2024, गुलमोहर, कथादेश, वागर्थ, कादम्बिनी, पोयम्स इंडिया, पुरवाई, और बया जैसी पत्रिकाओं में हुआ है। ‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब’ में साक्षात्कार संकलित। ईमेल : khemkaransoman07@gmail.com



3 Comments


Guest
Jul 26

बहुत अच्छी कविताएँ है आप इस तरफ तरक्की करते रहें।

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Guest
Jul 26

Congratulations dear.bahot accha likha h.

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Guest
Jul 06

Bahut khoobsurat kavitayen Dr sahab... apki lekhni ko Salam sir ..

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