रुत बरसन की आई (बारिशें और रेगिस्तान)
- golchakkarpatrika
- Jul 10
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कुदरत की हज़ारों रंगों की कारस्तानी बादल की इक बूँद पर निर्भर है, यह बात मेरे गाँव व पूरे रेगिस्तान में उस वक़्त चरितार्थ हो जाती है जब उगाणी (पूर्व दिशा की) कांठल की ढलती शाम की बरसात अपने पूरे वेग से रेत से मिलने को आतुर हो आती है। इकरंगी रेत जब अपना बलुआपन छोड़कर गहरा भूरापन ओढ़ लेती है और तालरों में कुछ ही देर में पानी चाँदी के रंग में चमकने लगे तब घरों के दरवाज़ों पर चुनरी का पल्लू मुँह में दबाए पशुओं की देखभाल करते पति को देखती पत्नी की आँखें स्वर्ण-भष्म सी आभा लिए चमक उठती हैं।
जब-जब घिरते हैं बादल उससे ठीक पहले वायु का वेग बना लेता है रेतीला बवंडर। उस वेगवान बवंडर से रेगिस्तानी कभी नहीं चिढ़ते। उन्हें मालूम होता है कि इस आँधी के बाद मेह (बरसात) है। रेगिस्तान में तो मुहावरा भी चलता है। आँधी लारे मेह (आँधी के पश्चात बारिश ही है)। दु:ख के बाद सुख अवश्य आता है, ठीक वैसी ही मान्यता रही यह भी। आँधी के लहरकों के बीच रेगिस्तानियों के नथुनों तक पहुँच जाती है मिट्टी की महक जो बारिश की आहट भी अपने साथ लिए आती है।
चरवाहे किसी ऊँचे टीले पर खड़े होकर निहारते रहते हैं बादलों के घेर-घुमेर को। उनकी एवड़ छिप जाती है किसी बड़ी कैर-झाड़ी की ओट में। एवड़ के शावक कुलांचें भरते-भरते करते रहते हैं झाड़ी के चौफेर उछल-कूद। बादलों की गाज के साथ ही बिजली के झबूके रहकर-रहकर चमकाते रहते हैं टीलों की बलुआ रेत को। झाड़ी से निकलती गोह को देखकर चरवाहे मचाते हैं उसे भगाने का हल्ला, उनकी मान्यता है कि गोह पर बिजली गिरने की संभावना अधिक होती है। चरवाहे भी छिपा लेते हैं कांसे के बर्तनों को, मान्यता कांसे पर भी गोह वाली ही। बिजली गिरने के उदाहरणों के साथ ही बुजुर्ग चरवाहा देता है अन्य चरवाहों को इन दो वस्तुओं पर बिजली गिरने की संभावना के प्रमाण।
ओरण (लोकदेवी-देवता के नाम पर दान हुआ लंबा भूभाग जिसका निजी इस्तेमाल पूर्णतः वर्जित है) की नदी जो पहाड़ के पानी को ओरण तक ले आती है। रेत को संग गहने पर अपना रंग बदलकर सफ़ेद झागों से भरी हुई अपने साथ बहाकर लाती है पूरे रास्ते के बरस भर में काल कवलित हुए जानवरों की हड्डियाँ, रोहिड़ा व खेजड़ी के सूखे बड़े ठूंठ। प्रकृति अपनी स्वच्छता का बंदोबस्त करती है निज के ही हाथों। पहाड़ों से लेकर रेगिस्तान तक जब-जब लगाती है बारिश का झाड़ू, हटा लेती है अनचाहे बसाव जो ठूंठ बनकर आ खड़े होते हैं उसके तय रास्तों में।
खेतों में खेजड़ियों के झुरमुट तले इकट्ठा हुआ पानी जान पड़ता है किसी परदेसी की याद में बहाए गए आंसुओं का संग्रह। रह-रहकर वायु के झोंके उस इकट्ठा हुए पानी में भर जाते हैं तरंग, लगता है जैसे गर्मी की तपत से दाझते खेतों के सीने को आसमान थपकी देकर सहला रहा हो। घर के पास मगरों (पथरीली भूमि) की ढलान में बने तालाब धीरे-धीरे बढ़ाते जाते हैं अपनी जल-राशि।
किसी तालाब के जल-भराव को बारिश के बीच देखना मेरी बचपन की बड़ी इच्छाओं व आदतों में से एक रहा। हम पाल पर खड़े जाळ के वृक्ष की ओट लेकर देखते रहते मगरों के ढलान से उतरते पानी के बड़े-छोटे नालों को, वे जाकर समा जाते नाडी के जल में, बीचोंबीच उगे खेजड़ी के पेड़ का तना जैसे-जैसे डूबता पानी में, वैसे-वैसे हम लगाते जाते पानी के भरने का अंदाज़। बारिशों का बाँहें फैलाकर स्वागत कोई करता है तो वे हैं छोटे-छोटे तालाब। तीन तरफ़ से पाल और एक तरफ़ से खुले ये तालाब किसी साधु का अक्षयपात्र जान पड़ते हैं। बच्चे खुश होते हैं नहाने की आशा से, रेगिस्तान के चरवाहे पिता खुश हो रहे पशुओं के पानी के प्रबंध को लेकर, चिड़ियाओं से लेकर रेगिस्तान के हरिण तक राजी होते हैं तालाब पर।
रुक-रुक कर तेज़ होती बारिश की कभी तेज़ ध्वनि पूरे धोरों में इस तरह आवाज़ करती है जैसे धोरे की तलहटी में हज़ारों घोड़े एक साथ दौड़ रहे हों। ढलते सूर्य की आभा बादलों पर पड़ती है और बादलों की चमक जब पड़ती है धोरों में खड़ी विशाल जाळों पर, तब उनके पत्तों का रंग हल्के हरे से बदलकर अचानक ही हो जाता है गहरा हरा। उन्हीं जाळों के घने पत्तों के बीच बरसात से बचते मोर लगाते हैं रुक-रुक कर टहुके। पूरे डेर में मोरों की आवाज़ बरसाळे के आगमन के हर्ष का मुख्य उद्घोष जान पड़ती है।
झोंपड़ियों के छजों से खींपों (एक झाड़ी जिसे छजा बनाने में काम लिया जाता है) की पतली-पतली तृण श्रृंखलाओं का सहारा गहकर उतरने लगती हैं बूँदें। गोबर के आँगन में बन जाती हैं छोटी-छोटी धाराएँ और उस पर पड़ती बारिश का शोर घर को अलग नाद में भर जाता है। बच्चा दौड़ता है एक झोंपड़े से दूसरे झोंपड़े तक और उसकी माँ फटकार रही है उसे पिता से शिकायत करने की धमकी के साथ –
“आउण दे थारे सतोळ नों, मेथरी नीं संधाऊं तो कए।” 'मेथरी सांधणी’ अर्थात् एक औषधीय लड्डू जो अक्सर रेगिस्तान में सर्दियों में बनता है पर अब यह मुहावरा बन गया। उस मुहावरे को बच्चे की माँ ने वाक्य-प्रयोग में लाया, पिता से मिलने वाली सज़ा को उसने लड्डू की उपमा दी। लोक हर दिन एक नया मुहावरा बुनता है। बारिशों के दिनों में कितने ही मुहावरे बच्चों के कानों में सुनाई पड़ते रहते हैं।
बाप भी बाहर से आकर जोर से डपट लगाता है बेटे को –
“छोरा थारी पांखड़ी चुळी पी का, डोक्टर गोढी कंधोळी भराणै री'ज तेवड़ी है।”
पिता ने दो मुहावरे काम में लिए 'पांखड़ी चुळी पी' मतलब हुआ 'मनोरोगी' या पागल होना। और 'कंधोळी भरने' का अर्थ हुआ बारिश से बीमार होने पर उपचार में खर्च होने वाली राशि, नुक़सान के रूप में। इन्हीं मुहावरों के बीच रुक जाती है बारिश और खेतों में दी हुई तवी के लंबे चीरे में पानी बड़े वेग से बहने लगता है। गाय के बछड़े उस भराव में अपनी उमंग नहीं रोक सके और कूद पड़ते हैं उसमें, खेत के अंतिम छोर तक पहुँच कर वापस लौटते हैं बाड़ की ओट में खड़ी अपनी माँ के पास। बकरी के बच्चे चढ़ जाते हैं झोंपड़े की चोटी पर और वहाँ से सीधे कूदते हैं कभी पास के कणसारे की चोटी पर तो कभी पास ही की गोबर की भींत पर। आसपास के युवक पिता देखने लग जाते हैं अपने-अपने टांकों में उतर आए पानी का भराव। कोई कहता है अभी भरा ही जा रहा है तो कोई कहता है मेरे तो अधिक बड़ा नहीं था इसलिए भर गया पूरा।
इतने ही में चूल्हे में उठता धुंआ घरों में बनने वाली साक-सब्जी की सुगंध को भी अपने साथ वातावरण में घोल रहा होता है। सीमेंट के बोरों से बनी लंबी दरियाँ बिछ जाती हैं आंगन में व किसी गर्म तासीर की कोई रेसिपी सुरड़कों के साथ प्रवेश करती है पिताओं और शिशुओं की देह में। अंधेरे के घिरने के साथ ही घरों से कुछ दूर धोरों की ओट के खेत जिन्हें डेर कहा जाता है, उन खेतों से आती है डेडरों (मेंढ़कों) के टर्राने की अगणित आवाज़ें और इसी के साथ आवाज़ आती है किसी बुजुर्ग बा की –
“गाय कळीजी पी तवी मों छेका आओ रा” (गाय कहीं कीचड़ में फंस गई है, निकालने में मदद करने ज़रा आना)। यह अधिकारपूर्वक आदेश कोई पड़ोसी जिस अपनत्व या जिस उम्मीद से देते हैं बस उस उम्मीद का नाम रेगिस्तान है।
हम परदेस में रहने वाले रेगिस्तान के युवा जब अपनी माँओं से बतियाते हैं इन दिनों तो एक ही बात बार-बार पूछते हैं, “बारिश कैसी है वहाँ?” क्योंकि हम ही जानते हैं कि गायों और पशुओं से भरे परिवार का आसरा यह चौमासे की बारिशें ही तो है। ‘एक सूखा हमारे घरों की अर्थव्यवस्था को पाँच बरस पीछे ले जाकर खड़ा करता है’, यह दुर्दांत स्वप्न हमें परदेसों में भी सुकून से सोने नहीं देता है। जिनके हिस्से नहरें आईं, उनके जीवन में ख़त्म हो गई होगी बारिश की उमंग, जिनके हिस्से शहरों की गलियाँ आईं, शायद उनके लिए भी ख़त्म हो गई हो बारिश की उमंग। पर हमारी आँखें बादलों और आसमान को आज भी एक आस भरी निगाहों से देखती है। और हमारे घर की बूढ़ी माँएं मालाओं में जपती हैं बादलों के बरसने का जाप और आसमान को तककर आंगन बीच बैठी-बैठी कहती जाती हैं- गायों रै भाग रौ (गायों के लिए), कीड़ी नै कबुड़ां रै भाग रौ (चींटियों और पक्षियों के लिए), साधु रै भाग रौ (साधुजनों के लिए), बाळ-बच्चां रै भाग रौ (बाल-बच्चों के लिए) बरसजे थूं ( बरसना तू), आ रुत बरसण री आई।
जब बरसने लगता है गरज-गरज कर तो बुढ़िया माई के चेहरे पर उतर आती है दंतविहीन मुस्कान। वह चारपाई पर बैठे-बैठे उसी मुस्कान संग देखती रहती है बच्चों के पानी के साथ छपाक-छप के करतब। वह जानती है कि बाजरे के दाने और बच्चों के शरीर अब एक रंग के होंगे। बच्चों के पैरों की उमंग व ताल के साथ वह भी बरसते मेह में गुनगुनाने लगती है –
आज उत्तर धर धूंधळौ,
बूठौ म्हारै डाडाणै रै देस,
झुलतौ मादळियौ।
तेजस मुंगरिया राजस्थानी व हिंदी में कविता व गद्य लेखन में सक्रिय हैं। राजस्थानी में ‘डांडी रौ उथळाव’ नाम से काव्य-संग्रह प्रकाशित। ईमेल : tejmal00095@gmail.com
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