आसित आदित्य की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Mar 18
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एक बरस में बारह मास नहीं होते अब
तुमने आते ही
घाम पर मुँह बिचकाया था
और धर ली थी
खटिए की पाटी
सबने कहा जेठ है, जेठ है
मैंने चुपके से बुदबुदाया था : सावन है
मैंने देखा था अपनी आँखों से
दूधमुँही पत्तियाँ भर रही थीं किलकारियाँ
खेत सो रहे थे पीली चादर ओढ़े
ज्यों गाँजा फूँका थका-हारा मज़दूर
ऋतु प्रसव वेदना से गुज़र चुकी थी
सबने कहा नया है जग
सो है बसंत
लेकिन मैं, केवल मैं— जिसका
बारहमासा बरसता था तुम्हारी रक्तिम आँखों से—
जानता था
और अबकी किसी से कहा भी नहीं
(ख़ुद से भी नहीं)
कि तुम जा चुकी हो
और बरसात होती है दिन–रात
और अबकी टीला डूबना तय है
और ये फिर सावन है
और अबकी हरजाई है।
प्रदर्शन
मृत्यु की दिशा में
जो होते हैं अग्रसर
वे मर ही नहीं जाते हमेशा
ग्रीष्म में
नदी को देखो
पतझड़ में
वृक्ष को
और आधी रात
मुझे।
अपनी अजनबियत का चोगा
हर सड़क में
दिखती है मुझे
रौंदी गई सड़क कोई
हर शहर में
है दिखता
शहर दूसरा
(जिसे सींचा लहू से अपने)
हर लैंपपोस्ट से बहती
वही पुरानी पीली रोशनी
उदास!
जैसे पूरे मोहल्ले की
लूटी गई हो अस्मत
हर भूख में
खाई रोटी
हर दुःख में
बहाए आँसू
कुछ टूटा-सा है दिखता
हर आस में
अपनी ही असमय मृत्यु
हर लाश में
नहीं है दिखता
तो मुझमें मैं
जो
रीता-बीता
जिसे सबने
गाया-भुलाया।
आदर्श व्यक्ति
आम के बगीचे में लेटे हुए
अचानक उसे हुआ मालूम
कि उसे करेला बहुत पसंद था
कबाड़ी के यहाँ से उठा लाई एक किताब पढ़ते हुए
उसने देखा : उसके भीतर बैठा था उकड़ू
उसके बचपन से एक पुस्तक-प्रेमी
नास्तिकता की थाप पर डोलते हुए एक रोज़
उसे अपने आस्तिक न हो पाने पर झल्लाहट हुई
डूबते-डूबते उसने तैरना सीखा
सोनागाछी में सीखा प्रेम
न झुकने के कारण घेर लिया गया लकड़हारों द्वारा
ऐसे नहीं
जैसे आता है आँखों के नीचे काला धब्बा
भादो की बरखा की तरह उसके सम्मुख आए सत्य
और सत्य की तरह आई उसकी मृत्यु
सबने कहा— अलविदा कहने तक का
वक़्त नहीं दिया वक़्त ने उसे
मैंने सोचा— यदि मिल गया होता तो जानता
कि अलविदा जैसा होता नहीं कुछ
कहने वाला चला जाता है
उसके जाने के बाद आने वाले कई-कई बरस
दुआर छेके बैठी रहती है उसकी विदाई
दूर तक नज़र
सामने वाले कमरे में
सोता है एक बूढ़ा
मैं नहीं सो पाता
सो उसे
सोते हुए देखता हूँ
मैं नहीं सो पाता
सो
सोचता हूँ
(या कि सोचता हूँ
नहीं सो पाता इस कारण?)
कि किसी रोज़
सो जाएगा बूढ़ा
मैं
तभी भी नहीं सो पाऊँगा
और बूढ़े को सोते हुए भी
नहीं देख पाऊँगा।
जागो ग्राहक, जागो
उन दिनों
कितने छोटे तो हुआ करते थे रास्ते
घर से निकलता ही था कि बाज़ार आ धमकता था
अब घर से निकलता हूँ काम के लिए
तो बीच में रोटी, दवाई, ईएमआई के
जाने कितने जानलेवा मोड़ पड़ते हैं
जस-जस बढ़ी उम्र बाज़ार बढ़ा, ज़रूरतें बढ़ी
और बहुत बुनियादी ज़रूरतों और उनकी पूर्ति के
बीच की दूरी की तरह ही बढ़ी
नैसर्गिक मैं और कामचलाऊ मैं के बीच की दूरी
सोम से शनि सुबह-सवेरे
थोड़ा और सो लेने का सुकून सिकुड़ा
यों जैसे सिकुड़ी बचपन की उफनती नदी।
सरस्वती से सरस्वती की भाषा में
जिन दिनों
दुनिया के सीने ताला जड़ा था
और ऑनलाइन क्लासेज के बहाने
जननांगों पर हाल ही में उगे बालों वाले शरीर
हो रहे थे
मिया खलीफाओं तथा जॉनी सिंसों से परिचित
मैं अपने कमरे में बिस्तर पर पेटकुइयाँ पड़ा
एक शहर को लाँघ
तुम्हारे शहर आने के गुणा-गणित में व्यस्त था
उस नगर
कहते हैं कभी तीन नदियाँ मिला करती थीं
अब दो मिलती हैं
नदियाँ धीरे धीरे मिटती हैं
इतनी धीरे कि मछलियाँ नहीं मरती
मैं उस नदी के सूखने की भाषा में
तुम्हें विदा करता हूँ, करता रहा हूँ
धीरे-धीरे, बेहद धीरे
इतना धीरे कि मेरे प्यार
नहीं मरेगी हमारे प्रेम की एक भी मछली
मैं हर मछली को दूँगा अवकाश
वे तलाश लेंगी ठौर–ठिकाना, नया आशियाना।
अनुत्तरित
मई का महीना
मई की सी गर्मी—
रगड़कर खैनी
दबाता हूँ होंठ व दाँतों के मध्य
पन्नों के बीच
बढ़ता हूँ करने आलिंगनबद्ध उसे
कि
पत्तों की डरावनी सरसराहट
जिसमें दब जाती है
कबूतरों की गुटूर–गूँ
उठाता हूँ चेहरा
देखता हूँ खिड़की के बाहर
लू!
लू में विचरते हैं शैतान—
काँपता है स्मृति का तार
घुन खाए वाद्ययंत्र का
जो छूटा पीछे
परन्तु
जिससे
मोह न छूटा
सोचता हूँ
भीतर चलती है कौन–सी लू
कहाँ से कर गया प्रवेश
भीतर जो है बैठा
शैतान?
नहीं
नहीं मिलता उत्तर
और
शाम हो जाती है
प्रवास
और फिर
होता है यूँ कि
नदी की नाव
बरगद की छाँव
वो जो थी— धूल सना उसका पाँव...
रेलगाड़ी की सवारी बोगी में हो सवार
आ बसता है बित्ता भर शहर में
हाथ भर का गाँव-जवार।
प्रथम स्पर्श
बहुत बाद में जाना
कि पच्छु वाली चमरौटी में रहती थी वो
हालाँकि उसके नाम का अर्थ
अब तक नहीं जान पाया
चनरी...
चनरी कहते थे सब उसे
चनरी कहते हैं सब उसे
चनरी कहेंगे सब उसे
क्यों कहते थें
कहते हैं
कहते रहेंगे...
कितने जान पाएँगे?
बरस के अन्तिम महीने की एक रात
वो चनरी ही थी जिसने
मेरे फेफड़ों को धुकधुकाने हेतु
किया था मज़बूर
वो चनरी ही थी जिसने
गाँव भर बाँटी थी इमरती
वो चनरी ही थी जिसने
पहली दफ़ा छुआ था मुझे
पहली दफ़ा गोद में उठाया था
बरस-दो बरस-चार बरस बाद
परदेस में रहते हुए
एक रोज़ आएगा गाँव से फ़ोन
सुनूँगा कि चनरी मर गई...
सोचता हूँ कि उस रोज़
जब मर जाएगी चनरी
मर जाएगा चनरी का स्पर्श
क्या मैं अपनी देह पर
उसका स्पर्श महसूस कर पाऊँगा?
क्या इतना बरसों में मैंने
उसका स्पर्श महसूस कर पाया है?
माँ ने छुआ मुझे
बाप ने छुआ
बुआ-दादी-चाचा ने
रिश्तेदारों-कामगारों ने
चंद प्रेमिकाओं और कुछ वेश्याओं ने भी
क्या कभी
पल भर को भी
चनरी की चमाईन– खुरदुरी उँगलियाँ
रेंग गईं देह पर मेरी?
क्या पिछले अट्ठाईस बरसों में
एक बार भी
मेरे वर्तमान में नहीं सरक आया
अतीत मेरा?
दिसंबर की एक ठंडी रात?
लालटेन का उजियारा?
साँस का पहला आना-जाना?
नहीं जानता
बहुत कुछ नहीं जानता
मैं बहुत कुछ न जानने को
अभिशप्त हूँ (?)
परन्तु जेठ की इस दुपहरी
अपने चुने हुए एकांत में
जानता हूँ
कि कर रहा हूँ
चनरी को याद मैं
चनरी— जिसने कभी मुझे राह दिखायी थी
चनरी— जो मेरी पहली मार्गदर्शक बनी
चनरी— जिसका स्पर्श अपनी देह पर लिए फिरता हूँ मैं।
मन : कुरुक्षेत्र
शहर ‘अ’ में
हो रही है बमबारी
उखड़ी बाज़ू, फटे पेट वाला बाप
मलवे में ख़ोज रहा है अपना बेटा
शहर ‘ब’ में
लगा है मेला
जहाँ शहर ‘अ’ के हालात से
अनजान एक बच्चा
बन्दूक के लिए कर रहा है अपने बाप से ज़िद
शहर ‘अ’ व शहर ‘ब’
एक बड़े शहर के दो छोर हैं
मैं उस
बड़े शहर का
स्वामी हूँ।
आसित आदित्य युवा कवि एवं अनुवादक हैं। विभिन्न पत्रिकाओं व वेब पोर्टल पर कविताएँ व अनुवाद प्रकाशित। फ़िलहाल गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेश में रहते हैं। ईमेल : aaditheloafer@gmail.com
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