शंकरानंद की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Feb 13
- 5 min read

जन्म की बात
उम्र और तकलीफ़ के बढ़ते जाने से
दिल डूबता है
अपनी छाया को देखना और
रात को छूना एक जैसा है
जबकि न जाने कितने बीज झड़े
मिट्टी में गड़े
सड़े कितने बीज
इसका कोई हिसाब नहीं
लेकिन जन्म की बात
अक्सर याद आती है बुढ़ापे में
कैसे गूंजी थी बच्चे की किलकारी
कैसा दरका था घर का
वर्षों पुराना सन्नाटा
जब कुछ नहीं होता
उम्मीद के बदले
तब उम्मीद का
झिलमिल चेहरा होता है
वह कभी पीछा नहीं छोड़ता
लोग बदल जाते हैं
भाषा बदल जाती है
प्यार का मतलब बदल जाता है
एक समय के बाद
घृणा और अपमान का
उम्र के साथ बढ़ते जाना
एक दिन स्वप्न का अंत कर देता है
दिल में दर्द होने
आत्महत्या करने और
एक दिन सोने के बाद
कभी नहीं उठने की
कलपती बेचैनी में भी
मृत्यु की याद
हरगिज नहीं आती
जन्म की बात याद आती है।
उदासी से बचना
रंगों की बात करना
उदासी से बचने का
एक तरीका है
ये तरकीब बहुत देर तक
काम नहीं आती
मीलों दूर का दुःख भी
इतना पास है
जितनी अपनी देह की गंध
रोज़ की मुश्किल वही होती है
गड्ढों और खाइयों से भरी
रोज़ की नींद वही
सघन वन जैसी
स्वप्न वही रोज़ भोर का तारा
लेकिन उनका होना
इतना बेपरवाह है कि
मैं परास्त हो जाता हूँ हर बार
उन्हें सँभालने और बचाने में
सच और झूठ का
कुछ पता नहीं चलता
ग़लतफहमियों के बीच
बचने और मिट जाने का अंतर
इतना मामूली है कि
जो उँगली एक पल पहले
धार की सराहना करती है
सब्जियाँ काटते हुए
वही अगले ही पल
चाकू से कटकर
लहूलुहान हो जाती है।
नाम का चेहरा
बचपन के नाम वाला चेहरा
बड़े होने के बाद
बिल्कुल बदल जाता है
इतना बदल जाता है कि
उसी नाम का आदमी
सही नहीं लगता
लगता है जैसे कोई और
मिल गया है उसमे और
वह उसे ख़त्म कर रहा है
विश्वास नहीं होता
उसके होने पर
इतनी संदिग्ध हो जाती हैं
उसकी आदतें और इच्छाएं
नाम रखते समय की छवि
वह भरोसा जो अटूट था
वे सपने जो भविष्य को रच रहे थे
सब खंडहर में बदल जाते हैं
जैसे वहाँ कोई रहता तो था
लेकिन अब नहीं रहता
कितना सोचते हैं
नाम रखते समय लोग
हरेक पहलू पर विचार करते हैं
लेकिन वे भूल जाते हैं कि
सिर्फ़ नाम भर रख देने से कोई
उस जैसा नहीं हो जाता
ठीक उसी तरह
जैसे बीज से पता नहीं चलता
वह छाया की कौन सी परिभाषा का
उदाहरण बनेगा
वह छाया देगा भी कि
ठूंठ बन कर ही
इस पृथ्वी पर
गुज़ार देगा अपने दिन
कोई नहीं जानता।
जो सिखाते हैं बर्बर होना
वे कौन लोग हैं जो
बच्चों की मासूमियत छीन रहे हैं
डरा रहे हैं उन्हें
जो पूरी धरती लांघना चाहते हैं
उनके लिए घर में ही खड़ी कर दी दीवारें
वे कोई और नहीं
उन्हीं के साथ रहने वाले हैं
जिन्हें चहकने से आपत्ति है
जो ज़रा सी चीख बर्दाश्त नहीं कर सकते
बच्चे अगर जोश में कुछ कह दें तो
इस निगाह से देखते हैं
जैसे कोई दुश्मन को देखता है
धीरे-धीरे ऐसे ही बदल जाता है दृश्य
ऐसे ही एक भय फ़र्श पर फ़ैल जाता है
जबकि वहाँ बच्चे खेलते हैं बेफिक्र होकर
वे घर में नहीं खेलेंगे तो
खेलने जाएंगे कहाँ?
इस तरह धीरे-धीरे
जो सिखाते हैं बच्चों को बर्बर होना
वे नहीं जानते दरअसल कि
उनकी दी हुई चालाकी और
उनका बच्चे के मन में भरा हुआ ज़हर
उनके ही ख़िलाफ़
इस्तेमाल होने वाला है अंततः।
जगह छेंक कर रखना
जो ख़ुद नहीं चल सकते
वे रास्ता रोक कर खड़े रहते हैं अक्सर
इधर-उधर देखेंगे
चेहरा पहचान करने की करेंगे कोशिश
वे सब कुछ करेंगे
लेकिन रास्ता नहीं देंगे आसानी से
जगह बहुत बड़ी चीज़ होती है
इसका पता हाल के दिनों में चला
जब भाई ने घर में हर खाली जगह पर
रख दिया अपना सामान और
ज़िद पर अड़ गया कि ये जगह अब उसी की है
बाद में ख़ाली करवाने के लिए पंचायत बुलाई गई
पुलिस को ख़बर की गई
दो-चार लोग आए और
सबने विरोध किया
भाई ज़िद करता रह गया कि
मेरा सामान जहाँ रखा है घर में वह जगह मेरी है
जगह छेंकना दरअसल एक आदत है
इसका संबंध अंततः आज़ादी से है
जो ख़तरे में रहती है हर पल
एक की आज़ादी
दूसरे के लिए कोई मायने नहीं रखती
जो जगह छेंकने की आदत में जी रहे हैं
वे सिर्फ़ अपने बारे में सोचते हैं
उन्हें मतलब नहीं कि
सामने कोई खड़ा है और उसे बैठने की ज़रूरत है
कोई ऊंघ रहा है
उसे सोने की जगह चाहिए
कोई जल्दी में है तो उसे दिया जाए रास्ता
वे इस बारे में ज़रा भी नहीं सोचते
इसलिए जब भी देखें कोई छेंक कर रखी हुई जगह
एक बार तसल्ली कर लें कि कहीं
उसने आपकी जगह तो नहीं हड़प ली है।
एक लोटा पानी
जिनकी दीवारें एक हैं
वे भी इस तरह देखते हैं एक-दूसरे को कि
निगल लेंगे अगले पल
आँगन में गिरे हुए पत्तों के लिए
लड़ने वाले नहीं जानते कि
उनकी लड़ाइयां हो चुकी हैं बेजान
जहाँ लड़ना चाहिए
वहाँ चुप्पी है
जहाँ साथ बैठकर पीना चाहिए पानी
वहाँ देखना भी चुभता है कांच की तरह आँखों में
आवाज़ हौसला देती है सन्नाटे में
पीठ पर हाथ हो तो ताकत मिलती है
लेकिन यह आसान नहीं उनके लिए
जो ख़ून बहाते हैं दो धुर ज़मीन के लिए
एक लोटा पानी का गिरना पड़ोस में
इतना भारी पड़ जाता है
कभी दो दीवारों के बीच कि
एक का माथा फूटता है
दूसरे की टूटती हैं हड्डियां
फिर भी उफान पर है बदले की भावना
यह और कुछ नहीं
बस मिटा देना चाहती है उन्हें
जिनकी दीवारें
एक दूसरे से इस तरह सटी हैं कि
उनमें हवा की जगह नहीं।
देखने से इनकार
कोई दिखना चाहता है
ताकि एक नज़र पड़ जाए
उसकी हालत पर
वह जो लापता हो गया है पूरे दृश्य से
हर नक्शा आज
उसके बिना पूरा किया जा रहा है
वह जो नक्शे की नींव है
लेकिन फेंक दिया गया है बाहर
इन दिनों एक योजना के तहत
उसके चेहरे गायब हो गए हैं तस्वीरों से
वह चाहता है कि बस एक बार
कोई देख ले
टोक दे कोई
पूछ ले एक बार हाल
कोई कसम खाए हुए है कि
चाहे कुछ भी हो जाए
देखना नहीं है उस तरफ़।
शंकरानंद सुपरिचित कवि हैं। इनकी कविताएं हिंदी की लगभग हर महत्वपूर्ण पत्रिका एवं वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुकी हैं।
कविता संकलन : ‘दूसरे दिन के लिए’,’पदचाप के साथ’,’इंकार की भाषा’ और ‘समकाल की आवाज’ श्रृंखला के तहत चयनित कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित।
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताएँ प्रसारित। पंजाबी, बांग्ला, मराठी, गुजराती, नेपाली और अँग्रेज़ी भाषाओं में कविताओं के अनुवाद भी प्रकाशित।
पुरस्कार/सम्मान : कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार, राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार और मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार।
ईमेल : shankaranand530@gmail.com
%20(3).png)





मार्मिक, छूने वाली कविताएं
.......कलपती बेचैनी में भी
मृत्यु की याद
हरगिज नहीं आती
जन्म की बात याद आती है।.....
कवि शंकरानन्द की इस कविता में न केवल विषय नवीन है बल्कि दृष्टि भी दिल को स्पर्श कर रही हैं। मनभावन रचना लगी। इसी तरह *उदासी से बचना* कविता भी उदासी को शब्दों में रच देने कलात्मक प्रयास लग रही है, उम्दा कविता। *नाम का चेहरा* कविता भी विचारशील रचना लगी। *जो सिखाते हैं बर्बर होना* कविता केवल विचारप्रदान रचना है ,इस कविता में कवि की भीतर का मर्म कहीं खो गया है। समग्र रूप से कहूं तो सभी कविताएं शंकरानन्द की संवेदनाओं और विचारों से वाबस्ता कविताएं हैं।
कवि को बधाई, शुभकामनाएं।
नरेश चन्द्रकर
समकालीन व प्रसांगिक कविता.