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मिर्ज़ा ग़ालिब : आशिक़ या शायर

  • golchakkarpatrika
  • Sep 23
  • 6 min read
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इस मज़मून में मैने गली क़ासिमजान (ग़ालिब की गली) से उन अशआर को तशरीह (व्याख्या) के लिए चुना है जिनमें ग़ालिब साहब बतौर आशिक़ अपने ख़यालात और जज़्बात का इज़हार कर रहे हैं। आइए ग़ालिब साहब के पुरमआनी (अर्थपूर्ण) और पुरलुत्फ़ (मज़ेदार) शेर से मज़मून का आग़ाज़ करते हैं- 


"यार से छेड़ चली जाए असद' 

गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही"


मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि अगर महबूब वस्ल (मिलन) पर राज़ी नहीं है तो भी उससे मुसलसल (लगातार) वस्ल (मिलन) की ख्वाहिश करते रहो जिससे छेड़ का सिलसिला तो क़ायम रहे।


इक तरह से शायर को मालूम है कि वस्ल (मिलन) इक नामुमकिन शय है लेकिन वो महबूब से वस्ल ख्वाहिश फ़क़त (केवल) इसलिए करते हैं कि वो ख़फ़ा हो, दुशनाम दे यानी वो चाहते हैं कि राब्ता (connection) बना रहे। मुहब्बत न सही बातचीत या छेड़ की सूरत में ही राब्ता बना रहे जिससे दिल में मोहब्बत की गर्मी और ख्वाहिश की शम्मा रौशन रहे।


"बोसा नहीं ना दीजिए दुशनाम ही सही 

आख़िर ज़बाँ तो रखते हो गर वहां नहीं"


इस शेर में गिला (शिकायत) भी है और शरारत भी है। ग़ालिब साहब कहते हैं अगर तुम मुझे बोसा (चुम्बन) नहीं देना चाहते हो तो ना दो लेकिन अपनी ज़बान से कुछ तो कहो भले वो गाली ही क्यूँ न हो क्यूंकि तुम्हारे पास ज़बान तो है भले ही बोसा देने के लिए होंठ न हों।


ग़ालिब को महबूब की चुप्पी तो बिल्कुल भी गवारा नहीं है। वो चाहते हैं वो उनसे बातें करे भले ही वो उन्हें बुरा भला ही क्यूँ न कहे। तभी तो ग़ालिब यूं भी कहते हैं- 


"इतने शीरीन हैं उसके लब की रक़ीब 

गालियां खाके भी बेमज़ा न हुआ"


यहाँ ग़ालिब महबूब की ज़बान इतनी मीठी और प्यारी है कि उसने जो गालियां भी रक़ीब (प्यार में प्रतिद्वंदी) को दीं वो भी उसके लबों की तासीर से मीठी या मज़ेदार हो गईं। यही वजह है कि वो गालियां खाने के बाद भी अफ़सुर्दा (दुखी) नहीं हुआ जबकि रक़ीब को इश्क़ से कोई मतलब नहीं वो तो हवसपरस्त है और ख़्वाहिशात के पीछे भागने वाला है। 


ग़ालिब के ये अशआर इस जानिब इशारा करते हैं कि ग़ालिब महबूब की ज़ाहिरी ख़ूबसूरती से ज़ियादा उसकी ज़बान (भाषा) के हुस्न के शैदाई हैं लेकिन अगले शेर में ग़ालिब की नाराज़गी की इंतहा है- 


"क्या ख़ूब! तुमने ग़ैर को बोसा नहीं दिया 

बस चुप रहो हमारे भी मुँह में ज़बान है".


शेर का ज़ाहिरी मआनी तो बिल्कुल वाज़ेह (स्पष्ट) है लेकिन यहाँ "हमारे भी मुंह में ज़बान है" का इक मआनी ये भी हो सकता है कि ग़ालिब महबूब से बेतरह नाराज़ हैं और उन्हें उसकी वफ़ा पर ज़र्रा बराबर यक़ीन नहीं है। वो कहना चाह रहे हैं कि अगर मेरी ज़बान खुल गई तो तुम शर्म से ज़मीन में धंस जाओगी। 


इन अशआर को पढ़कर हमें यूं महसूस हो सकता है कि ग़ालिब फ़हाश (अश्लील) बातें करते थे तो आइए आगे देखते हैं कि क्या ये बात सच है? 


"सोहबत में गैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू

देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिज़ा किए"


ग़ालिब कहते हैं कि पहले मेरा महबूब इस क़दर शर्मीला था कि बड़ी मिन्नत के बाद कहीं इक बोसा दिया करता था लेकिन अब वो बग़ैर कहे बोसा देने लगा है। मुझे ये डर है कि कहीं ये बुरी आदत उसे रक़ीब की सोहबत में रहने से न पड़ गई हो। इक तरह से ग़ालिब को महबूब की ये हरकत बड़ी ही नागवार गुज़री है।


"करता है बस कि बाग़ में तू बेहिजाबियाँ 

आने लगी है निकहते गुल से हया मुझे" 


मैं तो फूलों की ख़ुशबू को ही बेहिजाब या बेशर्म समझता था। मैं उन पर ताने कसता था कि हवा चलने पर वो फूलों के पर्दे से बाहर आ जाती हैं। वैसे तो महबूब का बेहिजाब, बेबाक और बेशर्म होना भी उसकी इक अदा ही कहलाती है जैसे उसका हिजाब उसकी शर्म उसकी परदादारी इक अदा है। लेकिन फिर भी ग़ालिब कहते हैं कि महबूब की बेहिजाबियाँ (बेशर्म होना या पर्दे से बाहर आ जाना) देखकर वो बू-ए-गुल (फूलों की ख़ुशबू) से शर्मसार हैं क्यूंकि वो तो ख़ुशबू से भी ज़ियादा बेशर्म है।


इन दोनों अशआर से साफ़ ज़ाहिर है कि ग़ालिब को महबूब की शोख़ बातों से ऐतराज़ नहीं लेकिन बेशर्मी से सख़्त ऐतराज़ है।


"ज़िक्र उस परिवश का और फिर बयां अपना

बन गया रक़ीब आख़िर, था जो राज़दान अपना"


इक तो मेरे परी जैसे हसीन ओ तरीन महबूब की बात और फिर मेरा अंदाज़ -ए- बयां (कहने के ढंग) दोनों ने मिलकर मेरे राज़दान (ऐसा दोस्त जिसे अपने राज़ बताए जाएं) पर ऐसा जादू डाला कि वो भी मेरे महबूब का आशिक़ बन गया यानी वो दोस्त से रक़ीब (प्रेम में प्रतिद्वंदी) बन गया। यहां महबूब की ख़ूबसूरती का बयान तो ज़रूर है लेकिन उससे ज़ियादा अपने अंदाज़-ए- बयां की तारीफ़ है, ख़ुदबीनी (आत्म मुग्धता) है, नर्गिसियत है।


"देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क़ आ जाए है

मैं उसे देखूं! भला कब मुझसे देखा जाए है"


ग़ालिब कहते हैं कि मेरी बदकिस्मती का क्या ठिकाना है कि जब मैने उसे देखा तो मुझे अपने आप पर ही रश्क़ आ गया इसलिए मेरे दिल को ये बात भी गवारा न हो सकी कि मैं उसे देखूं। इसलिए मैं उसे देखने से भी महरूम (वंचित) रह गया। 


"गरचे है तर्ज़े तग़ाफ़ुल परदादारे राज़-ए-इश्क़ 

पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है"


अपने इश्क को छिपाने के लिए उसकी महफ़िल में हम बेगानों की तरह रहते हैं लेकिन उसको देखकर हम कुछ यूं खो जाते हैं कि हमारी मुहब्बत का राज़ उस पर अयां (ज़ाहिर) हो जाता है यानी वो समझ जाता है कि उसका सेहर (जादू) हम पर चल गया है। वैसे वो ये अपनी बातों से ज़ाहिर नहीं करता है ताकि मेरे राज़-ए- दिल का कुछ पर्दा बाक़ी रह जाए।


"हो गई है ग़ैर की शीरीन बयानी कारगर 

इश्क़ का उसको ग़ुमाँ हम बेज़बानों पर नहीं"


ग़ालिब बड़े मशक़ूक़ भी रहा करते थे यानि शक्की थे। देखिए यहाँ‌ वो किस नाज़-ओ-अदा से कह रहे हैं कि ग़ैर (रक़ीब) ने अपनी मीठी ज़बान का जादू चला दिया है जिससे महबूब उसे ही अपना आशिक़ समझने लगा है। शरारत देखिए कि इस क़दर बोलने के बावजूद फ़रमा रहे हैं साहब कि हम चुप रहते हैं कुछ बोलते नहीं, इसी सबब से महबूब को हमारे इश्क़ पर यक़ीन नहीं है।


"आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब 

दिल का क्या रंग करूं ख़ून-ए-जिगर होने तक"


इश्क़ के मुआमलात में जल्दबाज़ी से काम लेने से बात बिगड़ सकती है और इश्क़ के कामयाब होने के लिए सब्र-ओ-तहंम्मुल से काम लेना ज़रूरी है लेकिन इस दिल का क्या करूं जिसे विसाल (मिलन) की बेक़रारी है। जब तक इस तमन्ना से जिगर ख़ून हो कर काम तमाम हो तब तक इसकी तस्कीन के लिए क्या करूं?


फिर से उनका शोख़ रंग देखिए- 


"बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह 

जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है"


महबूब मेरा इतना शातिर है कि अपने दिल के राज़ नहीं खोलता है लेकिन मेरे दिल पर पूरी निगरानी है। दिल ही दिल में वो शादमां (ख़ुश) है कि महबूब की बेचैनी और बेक़रारी बढ़ती ही जा रही है और फ़ौरन से पेशतर वो बोसा देने के लिए तैयार होने वाला है। मफ़हूम यूं हुआ कि महबूब चाहता है कि वो अपनी मुहब्बत की शिद्दत का इज़हार भी न करे और उसे ग़ालिब की क़ुर्बत भी हासिल हो जाए।


"हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमा नहीं

इक छेड़ है, वगरना मुराद इम्तिहाँ नहीं"


यहाँ पर ग़ालिब कह रहे हैं कि मेरा महबूब मुझ पर ज़ुल्म इसलिए नहीं करता है कि वो मुझे वफ़ाशियार नहीं समझता है। मेरे महबूब को मुझ पर पूरा ऐतिमाद (यक़ीन) है। वो तो सिर्फ़ हँसी ठिठोली की ग़रज़ से ऐसा करता है। आइए अब इस दिलकश शेर की जानिब चलते हैं- 


"है बस कि हर इक उनके इशारे में निशा और

करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमां और"


महबूब मुझसे मुहब्बत जताता है तो भी मुझे उसके जज़्बात सच्चाई से आरी (ख़ाली) नज़र आते हैं। मैं हैरानकुन रह जाता हूँ कि ये मोजिज़ा कैसे हो गया? मुझे उनके बारहा (बार-बार) इज़हार में बेतरह (बहुत ज़्यादा) फ़रेब पोशीदा (छिपा) नज़र आता है। इक तरह से ग़ालिब चाह रहे हैं कि महबूब उन्हें अपनी चाहत का यक़ीन दिलाए।


“मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यूँ न जाए 

आस्तान-ए-यार से उठ जाएँ क्या”


ग़ालिब और घबरा जायें। इस शेर में वो कह रहे हैं, भले ख़ून का दरिया सर पर से‌ क्यूँ न गुज़र जाए वो महबूब के दर से उठने वाले नहीं हैं। महबूब उनके साथ चाहे कितनी ही ज़्यादती, कितनी ही जफ़ा, कितना ही जब्र क्यूँ न करे, वो महबूब से मुँह नहीं मोड़ सकते। उसका दर छोड़ कर कहीं और नहीं जा सकते हैं।


इसी बात को वो इस तरह भी कहते हैं-


“उस फितना ख़ू के दर से अब उठते नहीं ‘असद’

इस में हमारे सिर पे क़यामत ही क्यूँ न हो”


यहाँ ग़ालिब उसी बात को और भी पुरज़ोर तरीक़े से कह रहे। कहते हैं कि क़यामत के रोज़ जबकि क़ब्रों से निकलकर मुर्दे भी उठ खड़े होंगे उस रोज़ भी हम अपने महबूब के दर से उठने वाले नहीं है।


देखा आपने?

क्या शोख़ी है!

क्या शरारत है !

कैसी ज़िद है!


ग़ालिब के ही अन्दाज़ में अगर कहें तो-


“बला-ए-जाँ है 'ग़ालिब' उस की हर बात 

 इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या”


वो ख़ुद यूँ ही नहीं कहते कि “ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयॉं और”


आइए मज़मून का इख़्तेताम उन्हीं के इस शेर से करते हैं- 


"खुलता किसी पे क्यूँ मेरे दिल का मुआमला 

शेरों के इंतेखाब ने रुसवा किया मुझे"

 

चूंकि मैंने ऐसे शेर चुने जिन में इश्क़ का बयान था। इसलिए लोगों को मालूम हो गया कि मैं ज़रूर किसी पर आशिक़ हूं या फिर आशिक़मिज़ाज हूँ



नरगिस फ़ातमा युवा लेखिका-टिप्पणीकार हैं। समालोचन पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वह वाराणसी में रहती हैं।



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