ज्योति रीता की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jul 23
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तू भी न, पूरा शेखचिल्ली है!
चुप रहते हुए अब हम थक चुकी हैं
चुप रहने की कवायद से अब घुटन होती है
तुम्हारी जी हजूरी करते हुए एक सदी बीत गई
तुम्हारी एड़ियों के नीचे हमारी पुरखिनें कराह रही हैं
तुम्हारी रसोई से उनके पसीने की बू आती है
तुम्हारे घर और वंश को चलाने में जाने कितनों ने अपने स्वप्न की बलि दे दी
बच्चे जनने और उनकी परवरिश में ही उनकी सारी जवानी खत्म होती रही
तुमने कहा बस तुम्हारे ही इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी है
तुम्हारे क़ैदखाने में छटपटाती देह के साथ हम मजबूर थीं
तुमने दिमाग के अंतिम सिरे तक हमें ग़ुलाम बनाए रखा
तुम कहते रहे हमारी साँस भी तुम्हारी ही देन है
तुम हमें चुप रहने के कई-कई गुर सिखाते रहे
घर से निकलते ही तुम हमें घर की ओर भेज देते
औरतें घर की चीज़ हैं
घर में ही ज़्यादा शोभती हैं
कितना बड़ा षड्यंत्र तुमने रच रखा था
हमारी देह की मांसलता तुम्हारे दिए भोजन से है
हमारी सुंदरता तुम्हारे दिए वस्त्र से है
तुम हमारे लिए सुरक्षा कवच हो
भेड़ियों के भेड़जाल में तुमने ख़ुद को शेर बताया
वह शेर जो हर रात एक बोटी नोच लेता
खून से लिथड़ा शरीर छोड़कर निकल जाता सैर पर
तुमने हमारे शरीर को कोमल कहा
हमारे मांस को जानवरों से ज़्यादा स्वादिष्ट बताया
तुमने औरतों की ज़ुबान को हलक के अंदर ही दबा कर रखने की सलाह दी
निगाह ऊपर होने से आसमान के चिथड़े उड़ जाते थे
सिमटी सकुचाई औरतें तुम्हें ज़्यादा पसंद आईं
औरतों के गाल पर तुम्हारी उँगलियों के निशान से तुम मर्द कहलाए
इन दिनों औरतों की ज़ुबान बाहर आ चुकी है
आँख उठाकर चारों दिशाओं को निहारती है
अच्छे और बुरे में फ़र्क़ करना सीख चुकी है
हाथ की कलाई पहले की बनिस्बत अब मजबूत है
उनके वे अधिकार
जो वर्षों से उनसे मरहूम रखे गए—
या तो उन्हें प्रेमपूर्वक दो
या फिर मैदान मैदान में उतरो
तू भी न, पूरा शेखचिल्ली है!
स्थानांतरण
स्थानांतरण होने से बस जगहें ही नहीं बदलतीं
कई चीज़ें पीछे छूट जाती हैं
कुछ वैसे अपने लोग
जिन्हें दिन-रात देखने की आदत होती है
वे पीछे छूट जाते हैं
आम के पेड़ पर चढ़ती-उतरती गिलहरी
जो छत पर रखा गेहूँ रोज़ थोड़ा-थोड़ा खा जाती
बिल्ली का वह बच्चा
जो बिस्कुट के लोभ में पाँव से सटकर आ बैठता था
फूल का वह पौधा
जो हर शाम मुझसे पानी माँगता था
वह सड़क
जिस पर हर रोज स्कूटी दौड़ते हुए मुझे हर एक छोटे-बड़े गड्ढे का आभास था
वह कमरा
जो काम से लौटने के बाद थोड़ा और खुशनुमा हो जाता
चाय की वह केतली
जो हर सुबह मेरी याद में तैयार रहती
चाय का वह मग
जिस पर मेरे होठों की निशानी है
छत का वह कोना
जो मेरे एकांत का गवाह है
मेरा वह छोटा सा हॉल
जहाँ छुट्टी के दिनों में कोरियन सीरीज देखा करती थी
पिता
जो बाजार से लौटते ही झोले से कुछ-न-कुछ निकाल कर मेरी ओर बढ़ा देते
माँ
जिससे मेरी कभी नहीं बनी
परंतु मेरे दूर होने पर सबसे ज़्यादा चिंता उन्होंने ही की
आस-पड़ोस के लोग
जिनसे मेरी कभी कोई बातचीत नहीं रही
ना उन्होंने मुझे कभी समझा
ना मैंने कभी समझने की कोशिश की
वे मुझे ऐसे देखते जैसे किसी और ग्रह से आई हूँ
मुझे पहला प्रेम भी इसी घर में रहते हुए हुआ था
मेरी कई निशानियां इस घर के कोने-कोने में फैली हुई हैं
मेरे नहीं होने पर जैसे ढूंढता रहा हो मुझे घर
माँ कहती हैं
तुम्हारे नहीं होने पर घर उदास रहता है
आदतों का क्या है
जितना वक़्त वह लगने में लगाती है
उससे कहीं ज्यादा वक़्त वह छूटने में लगाती है
वे लोग
जिन्होंने मुझे कभी अकेला होने नहीं दिया
उन्होंने कभी नहीं समझा बातचीत मुझे ज़्यादा पसंद नहीं
आकर कई घंटे टिक जाते मेरे वातानुकूलित कमरे में
जानने-समझने की कोशिश करते
आखिर क्या है इस कमरे में
जिसमें मैं लगातार घंटों तक टिकी रह सकती हूँ
बहुत कोशिशों के बाद उन्हें मिलता
एक स्टडी टेबल और ढेर सारी किताबें
इस घर ने मुझे मेरे हिस्से का भरपूर सुकून दिया
सुकून भरी नींद भी मुझे इसी घर में आई
प्रेम और अपनेपन का भाव भी इसी घर में मुझे सिखाया
संघर्ष के दिनों में नमक-रोटी के साथ जीना भी सिखाया
कम दूध में अच्छी चाय बनाने के गुर भी
कम वेतन पर पहली नौकरी का सुख भी इसी घर में मिला
इसी घर में मुझे मेरे पढ़ने का कोना दिया गया
किताब की पहली अलमारी भी इसी घर में लगाई गई
पहली किताब के बाद दूसरी किताब की पांडुलिपि (पीडीएफ) भी इसी घर में बनाई गई
कई पत्रिकाएं इसी घर के पते पर हर महीने आती हैं
डाकिए को मेरे घर का पता बखूबी याद है
समय से किताबें पहुँचाने का काम उन्होंने बहुत प्रेम-भाव से किया
मुझे यहाँ के कण-कण से प्रेम है
यहाँ का कण-कण मेरे प्रेम में है
अब जब एक दूसरा घरौंदा बनाने का वक्त है
समेटते हुए
तकलीफ़ का एक झोंका हमेशा पास से गुज़रता है
सब कुछ समेट पाऊं
शायद, वह इस जीवन में संभव नहीं
कितना भी समेट लेने की कोशिश करूं
पर कुछ चीज़ें पीछे छूट जाती हैं।
इस उमस में…
अब लौट जाना चाहती हूँ
दुनिया देखने की चाह नहीं रही
तुमने हवा, पानी, जंगल—सब पर कब्ज़ा कर लिया
कौन-सी धरती मेरी है
यह बताने वाला अब कोई नहीं
अब फेफड़ों में ज़हर का गुबार है
आँखों को दुनिया सुंदर नहीं दिखती
हथेली पहले-सी मुलायम नहीं रही
रीढ़विहीन भीड़ के बीच रहकर
पेडू के दर्द से मामला गंभीर हुआ जाता है
हाथ बढ़ाकर भी, हाथ नहीं आता कोई सुख
शांति की चाह में जंगल भागता हुआ आदमी
फिर लौट आता है शहर—
शहर, जो सदियों से भूखा है
वह एक झटके में निगल जाता है
माई-बाप करता हुआ आदमी चौराहे पर तोड़ देता है दम
बंजर खेत में
निराशा से
ठूंठ पेड़ पर झूलती गयासुद्दीन की लाश पर नहीं होता कोई विचार
इमरजेंसी वार्ड के नज़दीक पहुँचकर नहीं चाहती मुझे मिले कोई वरीयता
न कोई सफ़ेद चादर का बिस्तर
न कोई ख़ूबसूरत नर्स
और न ही रंग-बिरंगी गोलियाँ
मुझे शहर के बीचों-बीच सलीब पर लटका दो
याकि छोड़ आओ जंगल के बीचों-बीच
इस उमस में,
मुल्क को ज़रूरत है
गीत गाती हुई एक चिड़िया की।
हम चूके हुए लोग थे
हम चूके हुए लोग थे
दो वक़्त की रोटी तलाशने में हम पूरा दिन खा जाते
प्यास लगने पर हम छककर पी लेना चाहते थे कोई ज़हरीली शराब
और कोस लेना चाहते थे मनुष्य रूप में मिले जीवन को
जून की धूप भी हमें उतना नहीं जला पाती
जितना हम लोगों के तानों से जल गए थे
उनकी नज़रों से बचने की कोशिश में हम तलहटी तक धंसते जा रहे थे
मन में कितनी ही लालसाएं थीं
जिनको असमय ही मौत के घाट उतार देना पड़ा
रेत पर बैठे-बैठे हमने बना लिया था अपना एक महल
महल के बीचों-बीच खोद ली थी अपने लिए एक क़ब्र
दुख से भरे कंठ में मार जाए लकवा — ऐसा दुआ में चाहती रही
मैं चाहती रही खुल जाएं ईश्वर के अर्द्धनयन
आधी रात गए भूल जाऊं घर का रास्ता
पड़ोसी कहे यह पागलपन है और मुझे मिले थोड़ा सुकून
तपाने के लिए जली हुई आग ठंडक दे रही है
डूबने भर का पानी मेरे तैरने का सहारा है
तथ्य और सच्चाई का समर्थन करने वाला व्यक्ति मेरा प्रेमी हो सकता है
घबराए हुए आदमी से मेरा कोई ताल्लुकात नहीं
हम लांघ आना चाहते थे वह पूरी ज़मीन
जिस पर हमारे लिए बनाए गए थे कई रिवाज़
इन दिनों आसमान की तरफ़ देखना भी दुखद है
बस, दुनिया ख़त्म होने से पहले एक जगह चाहिए
जहाँ पहले से रखे जा सकें ट्यूलिप के कुछ सफेद फूल
और बुदबुदाया जाए आत्मा की शांति के लिए दो शब्द
गोया कि
मैं मृत्यु को प्राप्त एक ज़िंदा लाश हूॅं।।
अहमदाबाद प्लेन क्रैश के बाद लिखी गई कविताएँ
(1) यह मृत्यु का समय है
यह मृत्यु का समय है
मृत्यु मुँह खोल कर निवाला चाहती है
मृत्यु के मुँह को स्वाद लग चुका है
वह रोज़ नए स्वाद के लिए तैयार रहती है
उसकी थाली में रोज़ नए व्यंजन परोसे जा रहे हैं
वह भूख से बिलबिलाती है, उससे पहले भोजन तैयार होता है
भूख लगने का कारण कुछ भी हो सकता है
परंतु
हर परिस्थिति में उसे चाहिए बस पेट भर भोजन
फिलवक़्त मृत्यु को मांस, मज्जा, रक्त की प्यास है
हम किसी भी वक़्त ग्रास बन सकते हैं
यह मृत्यु का स्वर्ण युग है
हमारी सावधानी भी हमें बचा पाएगी—
इसका कोई मनोनुकूल उत्तर किसी के पास नहीं है
हम केरल के सुगंधित मसालों का लेप लगाकर
ख़ुद को तैयार रखें
वह हमारे प्राण और रक्त से कभी भी अपनी भूख और प्यास बुझा सकती है
यह शोक का समय है
हाथ में सफ़ेद फूल लेकर
हम शोकसभा के आदी हो चुके हैं।
(2) 12 जून 2025, अहमदाबाद
देश के करोड़ों लोगों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी किसी के पास नहीं है
उनके पास भी नहीं
जिन्हें ज़िम्मेदारी देकर हमें सुकून से जीना था
हम कहीं भी आते-जाते मारे जा सकते हैं
बस में चढ़ते हुए
ऑटो पकड़ते हुए
खाना खाते हुए
इलाज करवाते हुए
परिवार के साथ हँसते-खेलते साथ चलते हुए
कब मौत आ जाएगी
इसका जवाब किसी के पास नहीं है
करोड़ों लोगों की जान की कीमत क्या होगी?
दो-चार दिन शोक जताकर हम तल्लीन हो जाएंगे
किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं
कि हुए हादसे पर सिर पीटता रहे
कितना लाचार रहा होगा वह पिता
जो अपने नवजात शिशु को गोद में लेकर
स्वयं से पहले उसकी मृत्यु देख रहा होगा
कितना लाचार रहा होगा वह डॉक्टर
जो मांस के लोथड़े को चीर-फाड़कर
उसकी पहचान बता रहा होगा
कितनी निढाल रही होगी वह माँ
जिसका युवा बेटा मेस में भोजन करते हुए मारा गया
यह कौन तय करेगा कि उनकी मृत्यु की जवाबदेही किसकी है?
किसके सिर पर ठीकरा फोड़ा जाए
जीवन का यही सत्य है — मृत्यु तय है
परंतु असमय मृत्यु का दुःख बड़ा होता है
महज़ 40 सेकंड में कई परिवारों की खुशियाँ तबाह हो गईं
कुछ देर पहले जो फलाँ व्यक्ति था
अब वह बॉडी में बदल चुका है
सब एक ही तरह के मांस-मज्जा में तब्दील हो चुके हैं
करोड़ों रुपये का मुआवज़ा देकर भी
उनके परिवारों के दुःख को कम नहीं किया जा सकता
यह राष्ट्रीय शोक का समय है
निवाला खाते हुए भी चेहरा शर्म से झुक जाता है
छोटे-छोटे मासूम बच्चे
जिन्होंने दुनिया को ठीक से समझा भी नहीं
ना ही जी पाए थे अपनी ज़िंदगी
हम उनके लिए अपराधी हैं
इस असुरक्षित हो चुके समय में
बच्चे माता-पिता की गोद में मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं
पत्नी, पति के सीने पर दम तोड़ रही है
बेटी, जो खुशी-खुशी एयरपोर्ट को निकली थी
पिता को बताया था - “यहाँ सब ठीक है”
उसका बोर्डिंग हो गया है
वह वेटिंग लाउंज में बैठी है
अब, पिता शून्य में बैठे हैं
एयर होस्टेस, जो हमें सुरक्षा के नियम बताती हैं
कितने द्वार किस तरफ हैं
ऑक्सीजन कम होने पर क्या करना है
जो हमसे बार-बार पानी, कॉफी पूछती हैं
उनके चिथड़े उड़ चुके हैं
जहाँ मृत्यु हर किसी के चौखट पर मुँह बाए खड़ी है
जहाँ मृत्यु के बाद नेताओं का जलसा होता है
कमेटी गठित होती है
जाँच टीम बनाई जाती है
कितनी ही चीज़ें हैं
जिन्हें दुरुस्त करना बाक़ी रह गया है
कई कामों से भी ज़्यादा ज़रूरी थी
सुरक्षा नियमों की जाँच
तमाम तामझाम के बावजूद
कोई फलाँ व्यक्ति लौटकर नहीं आता
बूढ़ा, कमज़ोर पिता
बेटे का श्राद्ध करते हुए थर-थर काँप रहा है
यह राष्ट्रीय शोक का समय है।
(3) हादसे
मैं युवा हूॅं
इस उम्र में मैंने कई तरह के हादसे देखे हैं
हर दिन यह देश किसी न किसी हादसे से गुज़रता है
अपनी स्वाभाविक मृत्यु मरना अब बहुत कठिन होता जा रहा है
किसी भी काम से निकला हमारा कोई प्रियजन
कभी भी मौत के मुँह में जा सकता है
कभी भी मेरी माँ विधवा हो सकती है
मेरा बेटा अनाथ हो सकता है
सरकार कहती है—
हादसों पर किसी का वश नहीं होता
हर हादसे से निपटने के लिए हम लगातार प्रयास कर रहे हैं
लेकिन हमारी जान-माल की कीमत
बस एक शोकसभा भर है
और अब हम शोकसभाओं के अभ्यस्त होते जा रहे हैं
हम इस असभ्य समय के सभ्य लोग हैं।
(4)
हम चुप हैं
कुछ कहने की हमारी क्षमता लगभग समाप्त होती जा रही है
हम गहन निराशा की ओर लौट रहे हैं
हमें अपनी सुरक्षा का आश्वासन किसी से नहीं मिल पा रहा है
संवेदनाएँ शून्यता की ओर बढ़ रही हैं
डर हमारे भीतर पालथी मार कर बैठ गया है
इस हिंसक समय में गांधी बार-बार याद आते हैं।
(5)
इस देश में और कितनों को मृत्युदंड भोगना होगा
असामयिक मौत से कितनी आत्माएं छलनी होती रहेंगी
जीवित माता-पिता की छटपटाहट को कौन और कब शांत करेगा
क्या संवेदना व्यक्त कर देने से दुःख कम हो जाता है
क्या दुःख में साथ खड़े हो जाने से सच में कुछ घटता है दुःख का
जीवन जो उन्हें देखते हुए जिया जा रहा था—
अब बस अंधेरा है…
कहाँ से आएगी कोई रोशनी
क्या कोई खिड़की खुलने की उम्मीद अब भी बची है
जवाब कौन देगा…?
ज्योति रीता युवा कवयित्री हैं। कविता संकलन : मैं थिगली में लिपटी थेर हूॅं (2022), अतिरिक्त दरवाज़ा (2025)। ईमेल : jyotimam2012@gmail.com
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