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भूकंप-कथा (जो बचा रह गया)

  • golchakkarpatrika
  • Jun 18
  • 10 min read

Updated: Oct 4

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बैंकॉक उतना ही हसीन था जितना रोज़ होता था। एक सादा दिन की शुरुआत सादा तरीक़े से हुई थी, अपनी सहज  सुंदरता के साथ। नदी में मालवाहक नौकाएँ, स्कूल जा चुके बच्चे, जिम से लौटकर दफ़्तर के लिए तैयार होते लोग। दिन बढ़ रहा था सुकून से। बदल रहा था वह खाने से निबट कर आराम फ़रमाती स्त्रियों में, ब्रेक में दफ़्तर के गलियारे में सिगरेट फूँकते दोस्तों में, नज़रें बचाकर गुपचुप बतियाते प्रेमी-प्रेमिकाओं में। सप्ताहांत था। शाम की तैयारियों में जाने कितने मन मुब्तिला थे- पहने जाने वाले कपड़े, नयी जगहों की निशानदेही, घर पर आने वाले मेहमानों के लिए पकवानों की सूची, पसंदीदा शराब की बोतलें, नये कॉकटेल की रेसिपी, हैप्पी ऑवर्स, नाच-गाना, ख़्वाब, कहकहे, पूर्ण विराम। 


इन दिनों नित्य सुबह नन्हीं पीतचटकी की सुरीली बोली पर एम्बुलेंस की व्यग्र आवाज़ की परत पड़ी रहती है। इधर सुबह आँख खुली, उधर हड़बड़ी में भागती एम्बुलेंस का हॉर्न कानों को भेदता निकल जाता है। यह सिलसिला बहुत पुराना नहीं है। उस रोज़ से शुरू हुआ जब धरती यूँ थरथरायी थी जैसे थरथराता है शाख पर बचा रह गया आख़िरी पत्ता, अपने उद्गम स्थल को छोड़ता जल अथवा भग्न हृदय का स्वर। अकुलाता रहा था सब- उस दिन, आने वाले बहुत दिनों तक, चिरकाल  तक। 


धरती ने किसी क्षण करवट बदलना तय किया होगा। ज्यों किसी नाटक का एक एक्ट ख़त्म और दूसरा शुरू। दृश्य बदल गया। धरती को ऐसे क्रोध में पहले कभी नहीं देखा था। उसका डिगना ऐसा नहीं था जैसे डिगता है हमारा संतुलन पहाड़ों पर चढ़ते हुए, वह तो ऐसा था जैसे समंदर की भीतरी चट्टानों से टकरा कर कश्ती डिगती है। सिहरन भरे छोटे भूकंप बचपन में कुछ-एक दफ़ा अनुभव किए थे पर वह खेल की तरह याद में थे। यह जो मन पर सदा के लिए कचोट बन कर रह जाने वाला था, पहला ही था। वह जो दिनों तक नींद से चौंका कर उठाने वाला था, वह जो सिर पर पंखे के गिर पड़ने का, चलने पर फ़र्श के धँस जाने का भय जगाने वाला था, वह जो हफ़्तों-महीनों बाद भी इमारत के सिहरने का भ्रम जगाने वाला था, वह जो सुकून से बैठते ही देजा-वू देने वाला था। वह सब कुछ जिसे मेडिकल की भाषा में ‘पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर’ कहा जाता है। 


कुर्सी हिली, किताबों की रैक हिली, तस्वीरों के फ्रेम हिले। टीवी हिला, टीवी के भीतर के लोग हिले। अविश्वास से देखा मैंने। वॉलपेपर उखड़ रहे थे, दीवारें टूट रही थीं। यह ख़्वाब हो सकता था या कल्पना, पर यह यथार्थ था। सामने थीं पारदर्शी आदमकद खिड़कियाँ, वे भी हिलीं किंतु उनके काँच अभी अक्षुण्ण थे। काँच के उस पार ऊँची-ऊँची इमारतें हवा में झूल रही थीं, तराज़ू के पलड़ों की तरह। क्या यह हमारे साथ घट रहा है? क्या हमारे साथ कुछ और भी घटने वाला है? कड़-कड़-कड़ पत्थर गिरने की आवाज़ें, चीत्कार, क्रंदन। बच्चे! क्या इस क्षण के बाद उन्हें देख पाऊँगी? वे चोटिल तो नहीं होंगे? उन्हें पीड़ा तो नहीं होगी? उनकी पीड़ा को दूर से सोखने का जादू क्योंकर न हुआ? उन्हें आलिंगन में लेने की  ख़्वाहिश ने सिर उठाया। स्कूल जाने में होती देरी के कारण रोज़ का यह नियम आज टूट गया था। मैं रोज़ की तरह रोशन के साथ दफ़्तर क्यों नहीं गई? एक दूसरे की बाँहों में बँधे, मृत्यु की गोद में जा समाने वाले प्रेमियों का सौभाग्य मुझे क्यों नहीं प्राप्त हुआ? जो बचेगा, वह बीत चुके व्यक्ति के बग़ैर कैसे रहेगा? फ़ोन हाथ में था। अगर एक कॉल करने का समय है तो किसे फ़ोन मिलाऊँ? आख़िरी आवाज़ जिस से लिपट कर इस संसार से प्रस्थान करूँगी। हज़ारों मीलों की दूरी पर बैठे कितने लोग हैं जिनका प्रेम मुझे जीवित रखता है। उन्हें अंतिम विदा भी अगर न कह सकी तो! 


छत में दरारें पड़ना शुरू हो गई थीं। कुछ भी रोकना संभव नहीं था। तिनका-तिनका जोड़ा घर आँखों के आगे दरक रहा था। मैं कुछ नहीं कर सकती थी वहाँ से भागने के सिवा। ‘सर्वाइवल इंस्टिंक्ट’ अपने पैर फैला रही थी। मैंने घर से दगा किया और बाहर निकल गई। पीछे पलट कर देखा तो तेज़ आवाज़ के साथ घर के बाहर वाली दीवार फट चुकी थी। लिफ्ट को देख कर अनदेखा किया और फायर एग्जिट  की ओर बढ़ गई। नौ फ्लोर सीढ़ियाँ धड़ाधड़ उतर गई। पीछे देखने का साहस तक न हुआ। लोगों का विलाप, मलबा गिरने का गर्जन, धरती का उद्वेप सब बढ़ते जा रहे थे। जीवन भर जिन चीज़ों के लिए परिश्रम किया वे पीछे छूट रही थीं। यह सब न रहा तो! हम ही नहीं रहे तो! जीवन क्षणिक है, प्रकृति की सत्ता के आगे दुर्बल है, मृत्यु की निर्जनता में इसे अकेले ही प्रवेश करना है। 


नीचे पहुँची तो दृश्य भयातुर, अवाक् था। लोगों का रेला ऊपर से नीचे उतर रहा था, पनियल आँखों में बेयक़ीनी लिए कि जो हुआ वह सच था या भ्रम। नंगे पैर भागते लोग। भागते हुए चोटिल होते लोग। नीचे आकर ऊपर की ओर तकते लोग। पचास फ्लोर माचिस की डिबिया हों जैसे या जेंगा के ब्लॉक्स। धड़ाधड़ नीचे गिर सकते हैं या अंत तक टिके रह सकते हैं। कौतूहल का वीरान जंगल सबकी आँखों में उगने लगा था। एक गर्भवती स्त्री अपने कुत्ते को गले से लगाये रो रही थी। वह बयालीसवें तले से नीचे आयी थी। एक बच्चे के तलवों में काँच चुभ गया था, वह पीड़ा से कराहता हुआ अपनी माँ को पुकार रहा था। एक स्त्री घुटनों से बहते ख़ून को भूल कर अपने प्रेमी को चूम रही थी। एक वृद्ध जो पैंतीसवें तले से उतरा, उसे साँस नहीं आ रही थी, वह लगभग अचेत हो चुका था। सब ओर थे हाथ थामे, एक-दूसरे को सांत्वना देते लोग। रोते हुए लोगों के आँसू पोंछते ख़ुद रो देते लोग। एक-दूसरे से प्रश्न करते लोग। उत्तर किसी के पास नहीं थे। भय, आशंका से त्रस्त सभी। जो हो सकता था, वह न होने की आश्वस्ति अभी दूर थी। अभी जो हो गुज़रा, उसके आघात से वे आकुल थे। 


धरती जो टनों-मनों बोझ लादने के बाद भी टस से मस नहीं होती, वह किसी आदमखोर का शिकार बनते व्यक्ति की तरह थरथरायी थी। इमरजेंसी के सायरन शहर भर में बज रहे थे। सारी गाड़ियाँ ज्यों सड़कों पर उतर आयी थीं। ड्राइविंग सीट पर ख़ामोश बैठे लोगों के चेहरे पर उड़ती हवाइयाँ। तौलिया लपेटे, बाथरोब पहने अपनी लज्जा को परे रख दुपहिया वाहनों पर अविलंब जाते लोग भी थे। अपने परिवार के पास पहुँचने की उत्कंठा। क्या मृत्यु का भय कुछ खोने का और खोये हुए को पाने का भाव जागृत कर देता है? 


कई घंटों में इंच भर रेंगती गाड़ियाँ किंतु सब्र तब भी नहीं छूटा था। कहाँ जा रहे थे ये लोग? घर? घर के भीतर कोई नहीं जा सकता था। सभी इमारतों में हदबंदी कर दी गई थी। दोबारा भूकंप आने का भय। लोग अपनी इमारतों के आगे बैठे थे। छोटे बच्चों को धूप से बचाने की जुगत करते, भूखे-प्यासे, निस्तेज आँखों में अनमनापन लिए। विशालकाय मॉल बंद हो गये थे, चौबीसों घंटे खुली रहने वाली दुकानें भी। शहर निस्तब्धता की ओर बढ़ रहा था। सारा ताम-झाम समेट कर संन्यास ग्रहण करता हुआ। अपना ग्लैमर उतार कर शहर सज्जाहीन हो गया था, मेकअप उतारे किसी अभिनेता की तरह। लोग नज़दीकी शहरों में पलायन कर रहे थे। जीवित रहने की उदात्त चाहना लोगों को भागने पर मजबूर कर रही थी। शहर के शहर ध्वस्त हो जाते हैं तब लोग कहाँ जाते हैं? शायद खंडहर बन चुके शहर में अपना अतीत खोजते होंगे, अपने वर्तमान को आश्रय देने के लिए। 


दूर से दिखाई पड़ने वाली विभीषिकाओं पर हम सहानुभूति जताते हैं। कभी उनके बारे में सोचकर एक-दो रातों की नींद ग़ारत करते हैं। लोगों के दुःख को समझ-बूझ कर उस से जुड़ने का प्रयत्न करते हैं। संवेदनाएँ प्रेषित करते हैं और फिर लौट जाते हैं अपने जीवन में जहाँ वे बातें सुदूर कहीं घटी हुई घटनाएँ बनकर स्मृति के ऐसे कोष्ठक में बंद हो जाती हैं जो दोबारा नहीं खुलता। अत्यंत निकट आकर विभीषिकाएँ जब हमसे सट जाती हैं तब हम जान पाते हैं कि कुछ घटनाओं पर शब्द काम नहीं करते, किसी की चिंता से चिंतामुक्त दिन नहीं लौटते, बजते हुए फ़ोन पीड़ाओं को नहीं सोखते, हाल लेने का उपक्रम घाव पर बैंडेड भले ही लगा दे लेकिन घाव भरता नहीं। तभी हम यह भी अनुभव कर पाते हैं कि हम कितने अवश हैं। प्रकृति की अग्नि दृष्टि क्षण भर में सब कुछ राख कर सकती है। हम छोटी-छोटी बातों को पकड़ कर बैठे रहने वाले— सारी समस्याएँ-दुविधाएँ, सारे संकट-अज़ाब नगण्य हो जाते हैं जब ज़िंदा बचे रहने की दौड़ में शामिल होना पड़ता है। 


कुछ घटनाएँ ट्रॉमा बनकर हमसे गठजोड़ा कर लेती हैं। मस्तिष्क के ऐसे कोनों में घुसपैठ कर बैठती हैं जहाँ से उन्हें बाहर निकालना असंभव हो जाता है। नसों में तरल बन कर बहते हुए, एक रोज़, पत्थर की दरारों में जमे पानी की भाँति जम जाती हैं। जब हम केंद्र में होते हैं तब जान पाते हैं बाक़ी सब परिधि पर हैं। यह एक नुकीले मरकज़ पर घूमने की मानिंद होता है। कोई सामान्य दिन एक साथ सभी के लिये असामान्य हो उठेगा यह कहाँ कोई जान पाता है। जब तक मालूम पड़ता है तब तक वक़्त का सीना कीलों से बिंध चुका होता है। 


पड़ोसी देश, म्याँमार,जो इस भूडोल का एपिसेंटर था, में तबाही मची हुई थी। विकराल वीडियो मोबाइल के स्क्रीन पर खुले हुए थे। भूकंप की भीषणता बैंकॉक से कहीं अधिक थी, क्षति भी। उनके लिए भय, सांत्वना, सहानुभूति से सभी के शब्द पगे हुए थे पर उनके लिये हम परिधि पर थे। वे जो अनुभव कर रहे थे, हम उसके आसपास भी नहीं फ़टक सकते थे। दो देशों की पीड़ा एक केंद्र से उपज कर भी बहुत अलग थी। नुक़सान मापने का कोई स्केल नहीं होता। एक दुख, दूसरे दुख को अमान्य नहीं करता। 


लोगों की दृष्टि में कोई शहर किस हद तक सीमित हो सकता इसका एक उदाहरण बैंकॉक है। बैंकॉक का नाम सुनकर एक ही तस्वीर उभरती है जो उसकी बाक़ी तस्वीरों पर चस्पाँ हो जाती है। बैंकॉक ने अपनी इस तस्वीर को मिटाने का प्रयत्न भी नहीं किया, खुले मन से सबकी मेहमानदारी की।  दुनिया के हर कोने से लोग रास-रंग के लिए बैंकॉक आते हैं। आने वाले लुत्फ़ पाते भी हैं। किसी क़िस्म की रोकटोक नहीं, नैतिकता का कोई बंधन नहीं। यहाँ के लोगों की ख़ुशमिज़ाजी के सब क़ायल हैं किंतु हँसते-हँसाते रहने वाले खूब बातूनी लोग आज एकदम मौन थे। 


इस शहर की ऊँची इमारतों में से एक ज्वैलरी ट्रेड सेंटर, जहाँ उनसठ मंज़िलों पर जेमस्टोंस के ऑफिस स्थित हैं, में घोषणा की जा रही थी कि इमारत में प्रवेश के लिए आधा घंटा दिया जाएगा। अपना सामान सुरक्षित कर, ऑफिस बंद कर सभी यहाँ से निकल जाएँ। सब हतप्रभ। पूरा दफ़्तर कैसे सुरक्षित किया जा सकता है। वर्षों की संचित सारी पूँजी यहीं है। अरबों के व्यापार का केंद्र यह भवन अगर मिट्टी में मिला तो अनेक लोगों का भविष्य दाँव पर लग जाएगा। व्यापारियों की कनपटियाँ और मुट्ठियाँ पसीने से भीगी हुई थीं, उनकी आँखें शून्य में स्थिर। दूसरा कोई रास्ता नहीं था। अपने दफ़्तरों को तालाबंद करते हुए उन आत्मविश्वासी हाथों में झुरझुरी भरी हुई थी। इमारत को अगले कुछ रोज़ के लिए सील कर दिया गया था जब तक यह तय नहीं हो जाता कि वह प्रवेश के लिए निरापद है अथवा नहीं। चमचमाते पन्ने-माणिकों का भविष्य गर्त का अँधेरा भी हो सकता था। नये-नये आये लड़के जिन्हें पिता का क़र्ज़ चुकाना है, छोटे भाई-बहनों की तालीम के लिए पैसे भेजने हैं। भारत में परिवार की आँखें ही प्रतीक्षारत नहीं हैं, पेट भी प्रतीक्षारत है। परिवार का संग, त्योहारों की ख़ुशी, पहचाने हुए का मोह छोड़कर जिस काम के लिये अजाने देश में हैं, उसी पर संशय की तलवार आ लटकी है। वे भी हैं जिनकी उम्र यहीं गुज़र गई। पीछे देश में न घर बचा न परिवार। जो है यहीं है। यह ख़त्म होने का अर्थ उनके लिए अंत है। थके कदमों से वे जा बैठे हैं बाहर सड़क पर कि कुछ ऊँच-नीच होने पर अपनी बाँहों के दम-ख़म से वे उसे रोक लेंगे। 


(गगनचुंबी इमारतों के इस शहर की पसंद बदलने वाली थी। आने वाले समय में आसमान छूते घरों की बजाय ज़मीन से लगते घरों को तरजीह मिलने वाली थी। रियल एस्टेट की सारी डायनामिक्स बदलने वाली थी।) 


बच्चे स्कूल वैन में थे। उनकी छुट्टी जल्दी कर दी गई थी। रोज़ की तरह बच्चों के बीच नोक-झोंक, हँसी-ठट्ठा। उन्हें नहीं मालूम था कि यहाँ पहुँचने में उन्हें कई घंटे लगने वाले थे। रास्तों को जोड़ने वाले पुलों का इस्तेमाल न करने की हिदायत जारी हो गई थी। फ़ोन से बच्चों की हँसी झर रही थी। उन्होंने कहा, “हम घर आ रहे हैं।”


घर! घर नहीं था। घर उनके लिए हमेशा से सुरक्षित जगह रही है। ऐसी ‘स्पेस’ जहाँ सब ठीक रहता है। जहाँ तसल्ली है, तोष है। बाहर कितना भी कुछ भी बिगड़ गया हो, यहाँ आते ही सब ठीक हो जाता है। जहाँ उनके माता-पिता होते हैं जो उन्हें सुरक्षित रखते हैं। उन्हें मालूम नहीं था कितना नुक़सान हुआ है, होने वाला है। जीवन की गति उनके लिए बदली नहीं थी, अभी तक वही थी। उन्हें नहीं मालूम था शहर भर का घर दीवारों के बाहर आ गया है, कि घर पर जो दाग पड़े हैं उन्हें भी क्षत कर देने वाले हैं। कई घंटों की मशक़्क़त के बाद, तरह-तरह की अफ़वाहों से गुज़रते हुए वे घर पहुँचे तो प्यास से  हैरान-परेशान थे। आरामदायक, गुदगुदे बिस्तर से निकल कर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर आ खड़े होने का उनका यह पहला अनुभव था लेकिन हमें देखते ही वे हमसे लिपट गये। हमें देखकर वे ऐसे खुश थे ज्यों बहुमूल्य कोई चीज़ उन्हें मिल गई हो। उनके पास सुनाने को कहानियाँ थीं, सुनने को भी। वे यथार्थ की गहराई में धँस कर भी आहत नहीं थे। वे बीच सड़क पर खड़े होकर भी परेशान नहीं थे। मैंने पूछा, “डर तो नहीं लगा?”


जवाब मिला, “नहीं, डर किस बात का। हम आपके पास आ रहे थे।”


हमें कुछ हुआ तो इनके यक़ीन का क्या होगा। इनके लिए ख़ुद को बचाये रखना कितना आवश्यक है।  मैंने उन्हें बाँहों में भींच लिया। ये सलामत रहें तो घर का जन्म कहीं भी हो सकता है। घर के बीज तो हम ख़ुद में छिपाये फिरते हैं इसीलिए सैकड़ों बार उजड़ने के बाद दोबारा स्थापित हो जाते हैं। इसीलिए तहस-नहस हो गये देश फिर से बस जाते हैं। इसीलिए टूट चुके व्यक्ति अपने ज़ख्मों को मेडल की तरह पहने फिर से उठ खड़े होते हैं। पृथ्वी एक दिन ख़त्म होगी तब भी मनुष्य बचे रहने का विकल्प खोज लेगा। रोप देगा अपनी उम्मीद, अपना प्रेम- दरख़्त होने के लिए। 


शाम ढले इमारतों का प्रवेश खोल दिया गया था। अपने ही घर के भीतर घुसते हुए लोग दुविधा में थे। किसी के घर की छत उड़ी हुई थी, किसी की दीवार। कहीं टाइल्स टूट कर बिखर चुकी थी। दरवाज़े अपनी जगह से खिसक चुके थे। वाटर टैंक फट गये थे। नुक़सान का सही अंदाज़ा अभी नहीं था। इमारतों की नींव कितनी मज़बूत है यह जाँच-पड़ताल से मालूम होगा। लोग तय कर रहे थे मरम्मत का काम कब शुरू करवाया जाये। सुरेंद्र वर्मा ने सत्य लिखा था, ‘जीवन का अंकुर बहुत क्रूर है। वह साँस लेने के लिए नयी भूमि स्वीकार कर ही लेता है।’ निशानों के साथ ही सही, घर अब भी घर थे।




दिव्या विजय हिंदी की सुपरिचित युवा लेखिका हैं।


कहानी संग्रह : अलगोज़े की धुन  पर, सगबग मन, तुम बारहबानी

डायरी : दराज़ों में बंद ज़िंदगी


अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय व लेखन।


मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट, मुंबई लिट-ओ-फ़ेस्ट 2017 से सम्मानित। ‘अलगोज़े की धुन पर’ के लिए 2019 का स्पंदन कृति सम्मान। ‘सगबग मन’ के लिए 2020 का कृष्ण प्रताप कथा सम्मान। ‘सगबग मन’ के लिए 2023 का ‘जानकीपुल शशिभूषण द्विवेदी सम्मान’। 



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