कुमार मुकुल की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Nov 7
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आख़िर जाना कहाँ है हमें…
मोबाइल पर पहले फ्रोजन का गीत
लेट इट गो... लेट इट गो...
फिर राज कपूर और नंदा पर फ़िल्माया एक गीत…
कि बग़ल के कमरे में परीक्षा की तैयारी कर रहे बेटे का टोकना...
थोड़ा और धीरे पापा
फिर फ़ैज़ को गाते अमानत अली...
अगर शरर है तो भड़के और फूल है तो खिले...
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रकम...
फिर यह छोटा सा कमरा
पीली दीवारों पर पीली पड़ती एसएफएल की रोशनी में
कुछ कहता सा अमृता शेरगिल के सेल्फ पोट्रेट की नक़ल
और पेंसिल से उकेरे गए मीर तक़ी मीर
नाकामियों से काम लेते
और बाहर होती टिप-टिप बारिश
घिरता अंधेरा
फिर भागता रिक्शा
धूप बदली धूप
खुलता बंद होता छाता
घर से बस अड्डे
फिर घर फिर बस अड्डा
आख़िर जाना कहाँ है हमें…?
मनुष्यों से आपका पाला कम पड़ा है श्रीमान
आपके सींग नहीं हैं श्रीमान
फिर क्यों बिना वजह क्रोध में
अपना चेहरा बिगाड़ते रहते हैं
श्रीमान आपके पास पैसा है
जेबकटी का
उसे आप सींग की तरह नहीं दिखा सकते
क्रोध आप में व्यक्तित्व की जगह
पशुत्व को स्थापित कर रहा
मनुष्यों से आपका पाला कम पड़ा है श्रीमान
आपकी आँखों में सियारों जैसी चमक है
श्रीमान आपने सही कहा- मैं बहुत सीधा हूँ
उन्हें भी सही कहा आपने- कि ज़्यादा चतुर न बनें वो
श्रीमान
चतुराई और जेबकटी
हम सबके वश में कहाँ।
क्या वे मेरा अस्तित्व प्रमाणित करती हैं
क्या आधी रात को
मेरी पदचापों पर भूंकते कुत्ते
प्रमाणित करते हैं मेरा अस्तित्व
कि मैं उनके नामी बेनामी मालिकों के
साम्राज्य की क्षणभंगुरता में
कुछ हिस्सा बंटा न लूँ
या मेरी अंतरलय से
तारतम्य बिठाता सा
एक क़तरा चाँद
या सो रहे स्मृति जल में
कंकड़ सी गिरती उसकी छाया
सितारों सी कंपाती उसे
क्या ये सब
मेरे अस्तित्व के प्रमाण हैं
क्या
वह मेरी उपस्थिति है
जिसे टिन रबर प्लास्टिक के
चलंत डब्बों में सवार यमदूत
कुचलते
निकल जाना चाहते हैं
अपने-अपने गर्क की ओर
या कुछ खूंटों-खंभों पर
तामीर की जा रही
चाँद से काले धब्बों सी दीखती
इमारतें... क्या वे
मेरा अस्तित्व प्रमाणित करती हैं।
नोएडा
आगरा से भी ज्यादा
पागलपन की धुन में
भागते हैं यहाँ
टिन-रबर-कचकड़े के चलंत डब्बे
पाँव-पैदल के लिए
बेहोश होकर पसर जाने को फुटपाथ हैं
पेड़ जो बचे हैं
उनके नीचे समोसे-जलेबी-भूजा के ठेले हैं
और भीतर की सड़कों पर
ट्रक हैं छोटे-बड़े
अपना पिछवाड़ा सटाए
इधर का माल
उधर करते हुए।
कोरोना काल
मौतें हैं बस चारों ओर
और सरकार बहादुर हैं
किसी और की दरकार कहाँ
शव वाहिनी गंगा है
और भगवा-पीले कफ़नों से पटे
तट हैं उसके।
बच्चे कितने प्यारे होते हैं
बच्चे कितने प्यारे होते हैं
साफ़ है कि ऐसा कहते हुए
मैं अपने बेटों की बाबत कह रहा होता हूँ
और उन बच्चे-बच्चियों के बारे में
जिन्हें मैं
थोड़े समय, कुछ महीने या कुछ साल
दुलार सका
उन सब में मैं अंतर नहीं कर पाता
सिवाय इसके कि मेरे बच्चे
सबसे ज़्यादा समय मेरे साथ रहे
नतीजा उनके प्रति प्यार
अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँचा
क्या लड़कों की जगह मुझे लड़कियां होतीं
तो उतना ही प्यार करता उन्हें
या ज़्यादा प्यार करता हुआ
उनका जीना मुहाल कर देता।
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं प्राणवायु सांस लेता हूं
बाक़ी सब हवाबाजी करते हैं
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं जल पान करता हूँ
बाक़ी सब पानी पानी करते हैं
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं अग्नि पर अन्न पकाता हूँ
बाक़ी सब भूनते खाते हैं
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं अखिल व्योम में नेत्र खोलता हूँ
बाक़ी सब प्रदूषित वातावरण में आंखें फोड़ते हैं
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं धरती माता की गोद में शयन करता हूँ
बाक़ी सब भुइयां लेटते हैं
मैं विश्वगुरु हूँ
मैं शमश्रु बढ़ाता हूँ
बाकी सब मलेच्छ, दाढ़ीजार मुच्छड़ हैं
मैं विश्वगुरु हूँ
वसुधैव कुटुंबकम हमारा आदर्श है
और राम भरोसे यथार्थ।
कवि रिल्के के लिए
जब वह
कलम पकड़ता है
तो देवता लोटने लगते हैं
उसके क़दमों की धूल में
पुनर्जन्म के लिये
तब
अपनी निरीहता और विस्फार
उन्हें सौंपता हुआ
रचता है वह उन्हें
ख़ुद को प्रकृतिमय करता
सोचता
कि प्रबल होते मनुष्य की
नित नूतन कल्पना
कहाँ तक
संभाल सकेगी
इस अबल का बोझ।
वहाँ मेले में
वहाँ मेले में
रोशनी थी बहुत
पर इससे
मेले के बाहर का अंधेरा
और गहराता सा डरा रहा था
एक जगह लाउडस्पीकर चीख रहा था
... लड़की लड़की लड़की...
बस अभी कुछ ही देर में जादूगर
इस लड़की को नाग में बदल देगा
लड़की लड़की लड़की...
वहाँ मंच पर दो लड़कियां
चाइनों की तरह
मुस्कुरा रही थीं
और कर भी क्या सकती थीं वो
...फिर गाना बजने लगा...
सात समंदर पार मैं तेरे पीछे....
अब लडकियां नाचने लगी थीं
फिर मोटी सी लड़की ने कुछ इस अदा से
अपनी ज़ुल्फ़ें झटकारीं
कि सामने नीचे ज़मीन की गर्द उड़ चली
...यह देख मेरे साथ बैठी बच्ची
ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा ...
उसकी आँखों में एक सरल रहस्य
जगमगा रहा था।
लगाम किसके हाथ है
मेरी मीठी बातों से बचना जरा...
बातचीत में जब तब कहता मैं
तो चिढती, कहती वो
राजकुमार हैं न एक आप ही
आप तो राजकुमारी हैं न
घुड़सवारी करती हैं
रायफल दागती हैं
पर पथरीले परकोटों से बाहर
मत दौड़ा लीजिएगा घोड़े
नहीं तो भरम टूट जाएगा
दो पल में
कि लगाम किसके हाथ है...।
कुमार मुकुल वरिष्ठ कवि-लेखक एवं पत्रकार हैं।
कृतियाँ : छह कविता संग्रह प्रकाशित। 2012 में 'डाॅ लोहिया और उनका जीवन-दर्शन', 2020 में 'हिन्दुस्तान के 100 कवि' काव्यालोचना प्रकाशित। 2014 में हिन्दी की कविता : प्रतिनिधि स्वर में शामिल। 2015 में ‘सोनूबीती-एक ब्लड कैंसर सर्वाइवर की कहानी’ का प्रकाशन। 'वेद-वेदांग कुछ नोट्स’ और बाल कहानियों का एक संकलन हाल में प्रकाशित।
पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन। कुछ विश्व कविताओं का अँग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद।
ईमेल : kumarmukul07@gmail.com
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क्या वे मेरा अस्तित्व प्रमाणित करती हैं
और वहाँ मेले में - ये दो कविताएं मुझे बहुत अच्छी लगीं। कलेवर में छोटी पर बात बड़ी कहती हुई।
यादवेन्द्र
सबकुछ के बीच कविता संभव .. यही चुनौती भी है
बिना डर के अपनी बात रखी गयी है कविता के फ्रेम में .. कविता के क्या फ्रेम ? नहीं, प्रश्न नहीं .. तबतक 'कविता के फ्रेम' ही कहूं ..
कहीं धीमा सुर .. और सुन पड़े, और बहूं - इतने हारमनी में विचार ..
वर्तमान हो, अतीत हो - प्रश्न जरूरी हैं ..
हवाबाजी से संभाली जा रही एक व्यवस्था - और चेतावनियां ..
और रिल्के - खूब ! खूब !