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मैदान वाला ख़ाली मकान (कोरियाई कहानी)

  • golchakkarpatrika
  • Oct 2
  • 12 min read
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लेखिका : क्यूंग-सूक शिन 
अंग्रेजी से  हिंदी अनुवाद : विजय कुमार यादव 

आइवी लताओं से आच्छादित यह मकान घास के मैदान के बीचोंबीच स्थित है। इसके पास से गुज़रने वाले लोग इसे उत्सुकता से देखते हैं और यह समझ नहीं पाते कि यह मकान यहाँ क्यों है। इसे देखकर क्या आपको आश्चर्य नहीं होगा कि सिर्फ़ सूखे धान के खेतों से घिरे हुए इस सुनसान मैदान में यह जन-शून्य मकान क्यों खड़ा है? लंबे समय से इस मकान में किसी इंसान की मौजूदगी का कोई संकेत नहीं मिला है और अब ऐसा लगता है कि वहाँ कोई नहीं रहता। यह एक उदास दृश्य प्रस्तुत करता है, सिवाय घरों में लगाए जानेवाले सफ़ेद फीते वाले उस पर्दे के जिसकी गझिन बुनावट देखकर ऐसा लगता है जैसे आप इसके बुननेवाले हाथों की हरकत महसूस कर रहे हों। यह देखते हुए कि मकान खाली है आप सोच सकते हैं कि अभी ही कोई आएगा और इस पर्दे को खोलकर चलता  बनेगा। लेकिन पर्दा अभी भी वहीं झूल रहा है। 


ऐसा लगता है कि इस मकान में कभी कोई फाटक था ही नहीं।  सामने की तरफ़ सीधे जाने के लिए खड़ी सीढ़ियाँ दिखती हैं। एक, दो, तीन, चार....  कुल नौ सीढ़ियाँ हैं।  जन-शून्य  होने पर भी इस इमारत पर मौसम की मार का कोई असर नहीं दिखता है।

 

गर्मियों के मौसम में इस मकान पर नवीन आइवी लता लिपटी होती है। ऐसा लगता है कि मकान की देखभाल करने वाला कोई नहीं है, फिर भी चमकीले हरे रंग की आइवी लता मकान को इस तरह गले लगाती है जैसे यह मरकत की दावत में शामिल होने के लिए लोगों को प्रवेश द्वार की ओर आमंत्रित कर रही हो। लेकिन आगंतुकों को उस हरे रंग में छिपी भयावहता का एहसास होता है और वे प्रवेश किए बिना ही वापस लौट जाते हैं। जब मैदान में हवा चलती है तब मजबूत लताओं से निकली हुई चमकीली पत्तियाँ फ़िरोज़ी जीभों का आभास दिलाती हैं। वे लताएँ अंदर जाने की हिम्मत करने वाले किसी भी व्यक्ति की गर्दन के चारों ओर लिपटने को तैयार दिखती हैं। केवल प्रवेश द्वार तक गई सीढ़ियाँ ही लताओं और उनकी चमचमाती पत्तियों के चंगुल से बच पाती हैं। खड़ी और लंबे समय से अछूती रहने वाली ये सीढ़ियाँ रहस्यमयी, फ़िरोज़ी रंग में बदल गई हैं। 


कौन यक़ीन करेगा कि यह खाली घर कभी खुशियों और स्वर-लहरियों से भरा हुआ था? ऐसी खुशियों से जो शायद आपको सिर्फ़ किसी दंतकथा में ही देखने को मिले।  मैदान पर चल रही हवाएँ इसकी गवाह हैं।  वे जानती हैं कि सुनसान मैदान में  अकेला खड़ा यह यह मकान कभी खुशियों से भरा हुआ था। आज भी, जब इन हवाओं के पास करने को कुछ नहीं होता, वे आपस में उस आदमी और औरत की बात करती हैं। वे बात करती हैं पहली बार उनके इस मकान में आने की, बातें करती हैं उनकी दयनीय दशा और उनके बीच के प्रगाढ़ प्रेम की। 


एक दिन एक पुरुष और एक औरत मैदान में आए। अपना घर न होने के कारण वे पति-पत्नी नहीं बन पाए थे। शहर में रहते हुए वे इतने ग़रीब थे कि एक-दूसरे से प्यार तक नहीं कर पाते थे। वे दुखी मन से कदम दर कदम चलते रहे, चलते रहे और अंत में मैदान में बने इस मकान के सामने जा पहुँचे। खाली घर ने उनके दिल को झकझोर दिया। उन्होंने दरवाज़ा खोला और लिविंग रूम में गए। वहाँ किसी को न पाकर दूसरे कमरों में गए। वहाँ भी उन्हें कोई रोकनेवाला नहीं था। उन्होंने रात वहीं बिताई। 


जब उनको यह लगा कि उन्हें रहने से रोकनेवाला कोई नहीं है तो वे अपना ज़रूरी सामान लेकर आए और वहीं रहने लगे। उन्हें वहाँ सब कुछ ठीक-ठाक लग रहा था। महिला ने लिविंग रूम का फ़र्श साफ किया और बाथरूम के जंग लगे नल को बदला। आदमी छत पर चढ़ गया और वहाँ हो रहे रिसाव को बंद कर दिया, फिर उसने चारों ओर अपनी नज़र दौड़ाई। वहाँ से उसे सिर्फ़ सूखे धान के खेत ही खेत और दूर एक पहाड़ी दिख रही थी। वहाँ का नज़ारा भी  चुपचाप उस पर अपनी नज़र गड़ाए हुआ था, मानो उसे समझ में आ रहा हो कि वह आदमी और उसके साथ की औरत उस सूने घर में रहना चाहते हैं।


उन्हें अब भी यह विश्वास नहीं हो रहा था कि आखिरकार उनके प्यार को एक अशियाना मिल गया है। वे सपना तो नहीं देख रहे हैं, यह विश्वास दिलाने के लिए वे एक दूसरे के चेहरे को छूकर देखते रहे। जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि वह घर अब उनका है, तब उन्होंने सृष्टि को धन्यवाद  देते हुए अपनी किस्मत को सराहा। खुशी से उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े। वे दोनों पति-पत्नी की तरह वहाँ रहने लगे। पुरुष वहाँ से कुछ ही दूरी पर एक निर्माण स्थल पर काम करने लगा। औरत दोपहर का खाना बनाती और फिर उसे कपड़े में लपेटकर पुरुष के काम करने की जगह पहुँच जाती। वे दोनों दोपहर का खाना एक साथ वहीं खाते। फिर वहाँ से लौटकर वह रात का खाना बनाती और गीत गाते हुए पुरुष के आने का इंतजार करती। जब पुरुष शाम को घर लौटता तब भी औरत के गीत खाली मैदान में गूँजते थे जिन्हें सुनते हुए पुरुष खुशी-खुशी अपने उस घर लौटता।  


इस तरह उनके दिन गुज़रने लगे। पुरुष निश्चिंत होकर अपने काम पर जाता। लेकिन औरत कभी-कभी अंतरंग क्षणों में पुरुष का हाथ कस कर पकड़ लेती और डर से कांप उठती कि कहीं कोई उनके बीच न आ जाए और उनके बेफिक्र दिन हवा में न उड़ जाएँ । उस समय पुरुष उसे अपने और करीब खींचकर अपने झुर्रियों भरे चेहरे को उसके पास लाकर फुसफुसाता कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। वह उसे दिलासा देता और कहता कि अगर यह घर और उसके अगल-बगल फैला घास का मैदान एक सपने जैसा है तो उन्हें बेफिक्र होकर उस सपने में जीना चाहिए, भविष्य की चिंता किए बिना। 


धीरे-धीरे उस घर से बेदखल होने की भयावह कल्पना से निजात पाकर औरत ने चिंतित होना बंद कर दिया। 


फिर उनके घर एक लड़की ने जन्म लिया। धीरे-धीरे वह लड़की भी पाँच साल की हो गई, और उन पाँच सालों के दौरान वे तीनों अकेले ही उस वीरान घर में रहते रहे। आदमी कड़ी मेहनत करता और औरत लड़की की देखभाल करती । कभी वीरान दिखने वाला वह घर अब भरा-पूरा और चमकदार दिखाई देने लगा। औरत को घर में एक फूलदान मिला था जिसमें वह रोज फूल लगाती। उसने एक सफ़ेद-जालीदार पर्दा भी बुना और उसे खिड़की पर टांग दिया। पुरुष अपने काम में उन्नति करते-करते अब फोरमैन बन गया था जिसके कारण अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए अब अपनी पीठ पर पत्थर या रेत नहीं ढोनी पड़ती थी। उन दोनों की बेटी का स्वास्थ्य काफी अच्छा था— गोल-मटोल, प्यारे-प्यारे लाल गालों और भरी हुई कमर वाली उनकी बेटी मौका पाते ही उनलोगों से पूछा करती, “मम्मी, क्या मैं सुंदर हूँ? डैडी क्या मैं सुंदर हूँ?” 


उसके इस प्रश्न का उत्तर देना उन दोनों की जिंदगी के सबसे सुखी पल हुआ करते थे। 


वे आभारी थे मैदान में बने उस घर के प्रति जिसने उन्हें इतनी खुशी दी थी। लेकिन ऐसा लग रहा था कि घर उन्हें सिर्फ़ उतनी ही खुशी देना चाहता था, उससे अधिक नहीं।


एक दिन औरत अपनी बेटी को शहर ले गई। उसने उसे शहर की सैर कराई और दुकानों से अपनी खरीदारी की सूची के सभी सामान ख़रीदे और फिर घर लौट आई। गर्मियों के शुरुआती दिन थे, फिर भी तेज़ हवा चल रही थी। अमूमन गर्मियों के शुरुआती दिनों में इतनी तेज़ हवा नहीं चलती। औरत ने अपने दोनों हाथों में श भारी सामान लिया हुआ था और उसकी बेटी उसके आगे-आगे चल रही थी। जब वे दोनों घर के मुख्य दरवाजे की ओर जाने वाली खड़ी सीढ़ियों पर पहुँचे, तभी यह घटना हुई। हुआ यह कि आगे चल रही लड़की पहली सीढ़ी पर चढ़कर अपनी माँ की तरफ मुड़ी। माँ ने गौर किया कि उसकी बेटी का चेहरा पीला पड़ गया है। शायद बहुत देर तक पैदल चलने के कारण वह थक गई थी। फिर भी सीढ़ी पर खड़ी होकर उसने शरारती अंदाज में अपनी माँ से पूछा, “मम्मी, क्या मैं सुंदर हूँ? ” 


“हाँ, सुंदर हो,” औरत ने जवाब दिया।


लड़की एक सीढ़ी और चढ़ी और पूछा, “मम्मी, क्या मैं सुंदर हूँ?” 


 "बिलकुल हो," औरत ने कहा।


तीसरी सीढ़ी पर चढ़ कर लड़की ने फिर पूछा, "मम्मी, क्या मैं सुंदर हूँ?"


अपने दोनों हाथों में भारी सामान लेने के कारण औरत हाँफ गई थी, लेकिन बेटी कहीं निराश न हो जाए इस डर से उसने मुस्कुराते हुए कहा, "मैंने तुम्हारी जैसी सुंदर कोई लड़की नहीं देखी!" 


माँ की बात सुनकर लड़की खुशी से उछल पड़ी। इसके बाद वह उछलती हुई एक-एक सीढ़ी चढ़ती गई-चौथी, पाँचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं  ..... पर पहुँची और हर सीढ़ी पर चढ़ने के बाद अपना निस्तेज चेहरा अपनी माँ की ओर घुमाकर लड़की वही प्रश्न दुहराती। औरत भी उसके पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ती हुई उसके प्रश्न का कई तरह से एक ही उत्तर देती चल रही थी- “हाँ, तुम सुंदर हो, बहुत सुंदर हो, संसार की सबसे सुंदर लड़की हो।” 


सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते अब औरत को लग रहा था कि सामान के भार से उसकी बाँहें कंधों से अलग हो जाएँगी। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि अब यह लड़की बेकार का सवाल करना बंद कर नवीं सीढ़ी पार कर जल्दी से जाकर घर का दरवाजा खोल दे। लेकिन नवीं और आखिरी सीढ़ी पर चढ़ने के बाद जब लड़की ने एक बार फिर मुड़कर वही प्रश्न दुहराया, “मम्मी क्या मैं सुंदर हूँ” तो उसकी माँ ने लड़की की पीठ को थपथपाते हुए ज़ोर से कहा, “हाँ, तुम सुंदर हो।” उसी समय हवा का एक तेज़ झोंका आया और उसके हाथ में पकड़ा हुआ  सामान ज़मीन पर गिर गया। हवा में लहराती हुई आईवी लता ‘हू हू’ की  डरावनी आवाज निकालने लगी। 


'हाँ, मैंने कहा न कि तुम सुंदर हो!' औरत ने लगभग चिल्लाते हुए कहा। लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। उसे लगा जैसे कोई अनियंत्रित शक्ति उसे भेद कर निकल गई हो। उसने लड़की को धक्का देने का इरादा नहीं किया था, उसने तो बस उसकी उसकी पीठ को थपथपाना चाहा था।  लेकिन जैसे ही उसका हाथ लड़की के पीठ संपर्क में आया, लड़की एक घूमते किसी  बवंडर में खिंचती हुई सीढ़ियों से नीचे लुढ़क गई, जिन पर वह इतनी मेहनत से चढ़ी थी।                                                                          

नहीं! औरत बदहवास होकर सीढ़ियों से नीचे की ओर भागी। लेकिन मैदान में बना  मकान उसकी खुशियाँ छीन रहा था। कहीं ख़ून की एक बूँद भी नहीं दिखी, लेकिन लड़की और भी पीली पड़ गई थी और मर रही थी। अपनी आखिरी साँस के साथ उसने पूछा, “मम्मी, क्या मैं सुंदर हूँ?” 


धीरे-धीरे समय चुपचाप बीतता गया।


उन दोनों का संताप कभी ख़त्म नहीं हुआ और उन्हें अपना समय वीरान लगने लगा। पुरुष ने औरत को सांत्वना देने का हर संभव प्रयास करता रहा, लेकिन औरत की मुस्कान गायब हो चुकी थी। पुरुष उसे और ज़्यादा प्यार करने की कोशिश करता, लेकिन वह अपनी सूनी आँखों से एकटक दूर तक देखती रहती। औरत बराबर यह सोचती रहती कि वह क्या थी, वह अज्ञात, अजेय शक्ति जो उस दिन किसी लपलपाती जीभ की तरह उसके भीतर घुस गई थी। कौन सी शक्ति थी वह? औरत असमय ही बुढ़ाने लगी। हर दिन उसकी उम्र एक साल बढ़ा देता, उसका चेहरा थका-थका और सूखा-सूखा सा लगने लगा और उसके गालों की हड्डियाँ उभरने लगीं। अब वह देखने में उस पुरुष की माँ या बड़ी बहन की उम्र की लगने लगी। लेकिन उनके जीवन की वीरानी में खुशी का एक मौका और आया। औरत फिर से गर्भवती हुई और उसने एक लड़की को जन्म दिया। नवजात बच्ची के बहाने, कम ही सही, उनके बीच प्यार और खुशी का एक दौर और आया।         


औरत ने लंबे समय के बाद फिर गुलदस्ते में फूल रखे। चूँकि उसे फिर से लड़की हुई थी, इसलिए पुरुष ने औरत को सांत्वना देते हुए कहा कि उनकी यह बेटी  बिलकुल पहले वाली बेटी  की तरह दिखती है, शायद उसका पुनर्जन्म हुआ है। उसकी बात सुनकर औरत मुस्कुराई। अब उसने शून्य दृष्टि से दूर-दूर तक देखना छोड़ दिया। उसका खोया यौवन भी धीरे-धीरे लौटने लगा और कुछ दिनों के बाद वह पहले की तरह ही दिखने लगी। पुरुष भी अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था, लेकिन औरत तो लड़की को इतना ज़्यादा प्यार करने लगी जिसकी कोई सीमा ही नहीं थी। कभी-कभी उसे यह चिंता अवश्य होती कि कहीं वह अपनी इस बेटी को जुनून की हद तक तो प्यार नहीं करने लगी है। लेकिन फिर से अपनी पुरानी स्थिति में लौट आने की राहत के कारण उसकी चिंता कम होने लगी। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, लड़की हृष्ट-पुष्ट और सुंदर होती गई। जब वह पाँच वर्ष की हुई तो उसके माता-पिता उसके भविष्य के प्रति गंभीरता से सोचने लगे। वे सोचते कि क्या उन्हें यह जगह छोड़कर शहर चले जाना चाहिए। हालाँकि यहाँ रहते हुए आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति में सुधार तो हुआ था, लेकिन सच तो यह था कि शहर में जाकर रहने की स्थिति में वे अब भी नहीं थे। निर्णय न कर पाने की स्थिति में पुरुष ने औरत को यह सुझाव दिया कि वे थोड़े दिन यहाँ और रह लें, इसके बाद वह दिन भी अएगा जब वे अपनी बेटी के साथ शहर में रहेंगे। औरत ने पुरुष की बात मान ली और आने वाले दिन की कल्पना में खो गई। ‘आने वाले दिन’ ने तो उन्हें आशा दिलाई, लेकिन मैदान वाले इस ख़ाली मकान को शायद उनकी उम्मीदों पर ईर्ष्या हो आई थी।   


पहले तो औरत बिलकुल अनजान थी। उसने बस लड़की का हाथ पकड़ा और शहर जाने वाली बस में चढ़ गई ताकि घर के सामान खरीद सके, जैसे वह पहले भी किया करती थी। यह उसका मासिक ख़रीदारी का सफर था और हमेशा की तरह आज भी उसके पास बहुत ज़्यादा सामान था। गर्मियों की शुरुआत में हवा ज़रूरत से ज़्यादा तेज़ चल रही थी। महिला को अभी भी याद नहीं था, वह भूल गई थी कि इसी दिन को उसकी पहली बेटी की मौत हुई थी। 


पाँच साल पहले की घटना की याद उसे तब आई जब वह खुले मैदान में स्थित घर की सीढ़ियों के नीचे पहुँची। लड़की जो अब तक औरत  के पीछे-पीछे चल रही थी, अचानक उसके सामने आ गई। वह पहली सीढ़ी पर चढ़ी और पूछा, "मम्मी, क्या मैं सुंदर हूं?"


उसका यह प्रश्न सुनकर औरत अंदर तक काँप गई। उसका मन किया कि  वह जो कुछ भी पकड़े हुए है, उसे छोड़कर लड़की को गले लगा ले और कहे, "बेबी, यह प्रश्न करना बंद करो।" लड़की ने पहले कभी ऐसा सवाल नहीं पूछा था। उसका बर्ताव बिलकुल रूखा था, वह औरत से दूर हट गई, और फिर वही प्रश्न दोहराया, 

"मम्मी, क्या मैं सुंदर हूं?"


औरत खुद को रोक नहीं पाई और जवाब दिया, "हाँ, हाँ, हाँ, तुम सुंदर हो।" उसके माथे पर पसीना आ गया। "यह क्या हो रहा है?" दूसरी सीढ़ी पर चढ़कर लड़की ने फिर पूछा, "मम्मी, क्या मैं सुंदर हूं?" औरत को महसूस हुआ कि उसके घुटने लड़खड़ा रहे हैं। उसे पाँच साल पुराना दु:स्वप्न याद आ गया। उसने बेतहाशा जवाब दिया, "तुम बिलकुल सुंदर हो।"


तीसरी सीढ़ी पर चढ़कर लड़की ने फिर पूछा, "मम्मी, क्या मैं सुंदर हूं?" औरत  ने अपनी पूरी ताकत से पैरों को जमीन पर दबाया और बोली "हाँ, तुम सुंदर हो।"  


"मेरी मदद करो, मेरे प्रिय," महिला ने मन ही मन पुरुष का आह्वान किया। अब वे नवीं सीढ़ी पर पहुँच गए थे। उसने अपना ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की : "मुझे बिल्कुल भी वही ग़लती नहीं करनी चाहिए।" लड़की नवीं और आखिरी सीढ़ी पर चढ़ गई, जैसा कि पाँच साल पहले उस दिन चढ़ी थी। लड़की ने अपना पीला पड़ा चेहरा औरत की ओर घुमाया, फिर पूछा,  "मम्मी, क्या मैं सुंदर हूं?" औरत ने यथासंभव खुद को दृढ़ रखने की कोशिश की। वह भय से कांप रही थी। उसने उत्तर दिया, "हाँ, तुम इस समूचे  संसार की सबसे सुंदर लड़की हो।"  


तब लड़की काँपती हुई औरत को संदेह की निगाह से घूरती हुई बोली, “तो फिर तुमने मुझे धक्का क्यों दिया, मम्मी?” 


जब आदमी काम से लौटा, तो मैदान पर घर खाली था। महिला और लड़की का कोई पता नहीं था, केवल ख़रीदारी की चीजें खड़ी सीढ़ियों पर बिखरी हुई थीं।


आदमी ने बहुत देर तक उनका इंतज़ार किया। उसने खाना बंद कर दिया, वह काम पर नहीं गया, और वह लड़की से ज़्यादा औरत का इंतज़ार करता रहा। लेकिन लौटकर न तो औरत आई, न ही वह लड़की।  हर रात आइवी लता उसके चारों ओर लिपट जाती और फिर छोड़ देती। गुज़रती हर रात के साथ वह और कमज़ोर होता गया । फिर एक तूफानी रात उसने आईवी लता के पत्तों को पुकारते सुना और नीचे बैठकर उनकी पुकार सुनने लगा: "मम्मी, क्या मैं सुंदर हूँ?" उसने अपने कान बंद कर लिए लेकिन फिर भी उसे औरत की धीमी आवाज़ सुनाई : "हाँ, तुम सुंदर हो।" भोर होते ही, उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया और वह मैदान  में बने उस घर से चुपचाप निकल गया, कभी वापस न आने के लिए। 


वह ख़ाली मकान अभी भी मैदान में खड़ा है। अजीब बात है कि हर गुज़रते दिन के साथ आइवी लता के पत्तों का फ़िरोज़ी रंग और चमकदार होता जा रहा है। यदि आप एक अनजान पथिक हैं और घास के मैदान से गुज़रते हुए उस घर को देखते हैं, तो आप भूल कर भी वहाँ रुकने के बारे में न सोचें। यह बात भी सच है कि कभी उस घर में खुशियों और गीतों का साम्राज्य था, फिर भी अगर उस औरत द्वारा बुना गया सफ़ेद पट्टी वाला पर्दा आपको घर के अंदर जाने और रहने के लिए लुभाए तो आपको पीछे हट जाना चाहिए। नहीं तो आपको हर रात चमकती फ़िरोज़ी आइवी के पत्तों की सरसराहट  और हवा में फुसफुसाती नौ खड़ी सीढ़ियों की आवाज सुनाई देंगी : "तो फिर  तुमने मुझे धक्का क्यों दिया, मम्मी?"


 

लेखिका क्यूंग-सूक शिन का जन्म 1963 में दक्षिणी कोरिया के उत्तरी जिओला प्रांत के जियोंगअप के पास एक गाँव में हुआ था। वे  2012 में “प्लीज लुक आफ्टर मॉम” के लिए मैन एशियन लिटरेरी प्राइज जीतने वाली एकमात्र दक्षिण कोरियाई और एकमात्र महिला हैं। उनकी ख्याति मुख्यत: कथाकार के रूप में है। अब तक उनके 14 उपन्यास, 5 कहानी संग्रह तथा 2 कथेतर पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।  इन दिनों दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल (Seoul) में रहती हैं।


विजय कुमार यादव : हिंदी में कविता कहानी, आलोचना विधाओं के सक्रिय लेखक होने के साथ-साथ हिंदी, अंग्रेज़ी, असमिया, बांग्ला भाषाओं में परस्पर अनुवाद समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पुस्तकाकार प्रकाशित कृतियाँ : परमेश घोष कृत बांग्ला उपन्यास ‘मुछे गेलो सीमा रेखा’ का ‘मिट गई सीमारेखा’ नाम से हिंदी अनुवाद (2022), रुमी लस्कर ब’रा के असमिया उपन्यास ‘डम्फु’ का इसी नाम से हिंदी अनुवाद (2023‌), रुमी लस्कर ब’रा की 13 असमिया कहानियों का हिंदी अनुवाद ‘मैं समलिंगी नहीं हूँ’ (2024)। विभा देवसरे  की बच्चों की तीन पुस्तकों (दो कहानियों तथा एक नाटक) का बांग्ला में अनुवाद। ईमेल : vijayuco@yahoo.com




1 Comment


Nilesh Joshi
Oct 02

बहुत सुंदर 👏👏👏

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