top of page

भूपेंद्र बिष्ट की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Jan 28
  • 4 min read



पहाड़ की औरत : कुछ कविताएँ



एक : अक्टूबर में माँ-बेटी


खिलने लगे जगह-जगह हज़ारी के फूल

इससे बेपरवाह ईजा*

इस असोज* के महीने की एक घड़ी को भी

जाया नहीं करती

पहाड़ में कामकाज के दिन हुए ये


ऊँची पढ़ाई के लिए कोलकता गई बेटी

बड़े भोर शिउली के झरे हुए एक-एक फूल को चुनती है

सुबह की धूप अब गुनगुनी और भली होने लगी 

दुर्गा पूजा में कॉलेज-क्लास सब बंद


न ईजा को फुरसत याद करे लड़की को 

बेटी के पास भी अवसर नहीं

कि गाँव के ही सुर-फाम* में लगी रहे ज़्यादा 


दीया बाती के टैम बाखली* की दूसरी औरतों के साथ 

ईजा शाम को ज़रा हँस-बोल लेती है, बस 

उधर बेटी भी एक सीनियर लड़के के साथ

कॉफी पीने चली जाती है कैंपस कैंटीन तक।


*ईजा- माँ, असोज-आश्विन, सुर-फाम- ख़याल, बाखली- घरों के समुच्चय का साझा आँगन



दो : मुश्किल पहाड़ में सरल प्रेम


सूखने की कगार पर पहुँच चुके नौले* तक 

जाती रही वह महीने भर

एक बार दोपहर बाद, फिर शाम को भी दोबारा

जानती थी कि आधी गगरी पानी भी

नहीं मिलेगा वहाँ 

फिर भी जाती रही


पिछले बरस मिलिट्री में भर्ती हुआ रंगरूट

आया था महीने भर की छुट्टी

वह भी उसी नौले, वहीं इष्ट देवता के मंदिर के पास

मंडराता रहा दिन भर

शाम देर झुटपुटे तक भी

एक हरी बेंत को फटकारते 


गोपुली के पानी प्रबंधन का वह बहाना 

हवाखोरी के नाम पर हरिया का वह जतन 

दरअसल यह सब इक-दूजे से मिलन का जाल था  

गाँव में सबको दिखाई देता रहा

पर किसी ने नहीं देखा


साथ में जीने-मरने की 

उन दोनों की कसमों की भनक सबको थी

पर मानो किसी को ज़रा भी ख़बर नहीं 


मंगसीर-पूस की ख़ामोशी के दिनों में भी

दूब की तरह पंगुरता रहा ऐसा प्रेम 

यादों के सहारे

बैशाख-जेठ की उदासी में भी

पल्लवित होता रहा 

बांज के जंगलों में पानी के सोते की तरह

उम्मीद के सहारे


साल, दो साल बाद हरिया की अगली छुट्टी तक

गर गोपुली का ब्याह नहीं हुआ

दोनों फिर मिलेंगे वहीं

नौला यदि सूख भी गया 

इष्ट का मंदिर तो हुआ ही वहाँ।


*नौला- बावड़ी



तीन : ताकि सनद रहे


शब्दकोश में झुरझुरी का

एक ही अर्थ दिया गया है कँपकँपी

इससे आगे लगता है इसके और मायने 

दुबक गए हैं गर्म कंबल में


मैं बीस साल पुरानी झुरझुरी की बात कह रहा हूँ

जो दीवाली आने से ठीक पहले की है 

जब मेरी माँ थी, तब की

और पहाड़ पर रहा करती थी बड़े भाई के साथ


हर त्योहार पर घर आता रहा

उस दीवाली भी आया

कुछ मिठाई, चाची के बच्चों के लिए मुर्गाछाप पटाखे

और माँ के लिए साड़ी लाया


गई होली के बाद इन पांच-छ: महीनों में 

न मालूम क्या कह दिया किसी ने माँ से

शायद भाभी ने ही कुछ सिखा दिया हो

मेरे पीछे कुछ जोड़-घटा कर


माँ ने साड़ी नहीं ली

कह दिया मेरे पास बहुत हैं, क्या चाहिए तेरी साड़ी 

कुछ और भी कहा— 

सुनाई नहीं दिया वह मुर्गाछाप पटाखों के शोर में 


एक सुरसुरी सी दौड़ गई मेरे बदन में

मुझे कार्तिक में पसीना सा आ गया

उस बार पहाड़ से लौटने तक

फिर फुरफुरी रही मन में


कहने का मतलब यह 

झुरझुरी, सुरसुरी, फुरफुरी.....

शब्दों के तमाम दीगर अर्थों का भी संज्ञान लेना चाहिए

ताकि सनद रहे।



चार : चाँद फूल है चाँदनी का


नहीं देखा किसी ने कल चाँद भूले से भी

विवाहिताओं ने तो अपने कमरे की खिड़कियों पर 

झीना पर्दा भी डाल दिया था


खूब रस लेकर बांच गए थे पंडित जी

भादो के शुक्ल पक्ष की यह चतुर्थी

आख़िर क्यों कहलाई गई कलंक चतुर्थी

और बता भी गए थे

क्यों चाँद देखना है निषिद्ध आज की रात


अब भोर से ही लीपा जा रहा है तुलसी चौरा 

आँगन की क्यारी में भी कर दी गई हल्की निराई 


पूजा-अर्चना के उपरांत जौ-सरसों के बीज 

और तिरोहित पुष्पदल से अंकुरित

कुछ ललछोंह कुछ धानी पत्तियां सहमी सी हैं 

निबेड़े जाने की आशंका से


हालांकि कोई फेहरिस्त नहीं बनती

घर में रोज़मर्रा के कामों की

पहाड़ में लेकिन पूजा के अगले दिन

फुर्ती से जुट जाते हैं कामकाज में सभी जन


नई बहू पूछ रही है दबी ज़ुबान से

माँ आज रात तो देख सकते हैं न चंद्रमा को?



पहाड़ों की सुबह और शाम



एक 


पहाड़ों पर सुबह सबसे पहले बकरी उठती है

फिर दिशाएं खुलती हैं

सूरज देव तो बहुत बाद में झांकते हैं 

पटांगण* में और गोठ* में


मवेशियों के लिए घास चारे के बंदोबस्त में 

मुँह अँधेरे ही जंगल चली गई स्त्रियां 

शायद बकरी से पहले जाग जाती हैं

या कहा जाए, उनकी खटर-पटर से ही 

बकरियां उतनी अलसुबह खड़ी हो रहती हैं 

मिमियाए बग़ैर 


सुबह तड़के

जो पहली बस निकलती है सड़क पर

होली बिताने के बाद परदेस जा रहे लड़के को

उसमें बैठाने — उसे छोड़ने आधा गाँव आता है

वह कहता है, इस बार दीवाली में शायद छुट्टी न मिले

बस की खिड़की से करता है टाटा 


घर पहुँचने तक ईजा

रास्ते भर आँसू पोंछती हुई आती है 

साथ आए जन हिसाब लगाते आते हैं

अगले साल की होली कब पड़ेगी।


*पटांगण- आँगन, गोठ- मवेशियों के लिए छप्पर



दो


पहाड़ों पर शाम को झुटपुटा होते ही

पूरी बाखली खाली 

कुछ बुज़ुर्ग आग तापते, खाँसते

बाहर दिख भले जाएं


अँधेरा हो चुकने पर गाय बछड़ों का रंभाना

बिल्लियों की दबे पाँव 

बरतनों के बीच से गुज़रने की आहट 

और औरतों की छायाओं के सिवा

यहाँ कुछ नहीं सुनाई देता — सुझाई देता


रात के दूसरे और कभी तीसरे पहर में भी

घरों के अंदर अलबत्ता सुनाई पड़ सकती है

अचानक एक प्रफुल्ल और प्राणप्रद आवाज़ 

"दाज्यू एक बोतल और मिल गई यार ट्रंक में"


गौर से सुनोगे तो 

इस उत्फुल्ल आवाज़ के तुरन्त बाद

हर उम्र की औरतों का बारी-बारी से बड़बड़ाना भी 

सुनाई देने लगता है।





वरिष्ठ कवि भूपेन्द्र बिष्ट की कविताएँ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं एवं वेबसाइट्स पर प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कविता संग्रह ‘गोठ में बाघ’ प्रकाशित। पोएट्री सोसाइटी (इंडिया) प्रतियोगिता (1983) में कविता चयनित तथा 'सार्थक कविता की तलाश' संग्रह में संकलित। पंजाबी भाषा में कविताएँ अनूदित-प्रकाशित। आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण। ईमेल : cpo.cane@gmail.com


1 Comment


योगेश ध्यानी
Jan 28

पहाड़ी जीवन की अन्तरंग और गूढ़ छवियां हमें इन कविताओं में मिलती हैं जिनमें पन्देरे में मिलते प्रेमी जन हैं तो वहीं रंगरूट को बस अड्डे छोड़ने गये गांव के लोकचित्र हैं। कविताएं ठहराव के साथ और लोक भाषा में अपनी बात कहती हैं इसलिए भी इनका सम्प्रेषण अत्यंत प्रभावी है। गोल चक्कर का शुक्रिया इन्हें पढ़वाने के लिए।

Like
bottom of page