अनिल चावड़ा की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Mar 3
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अनिल चावड़ा की कविताएँ
अनुवाद : मालिनी गौतम
काश
काश...!
कविता से बुझाई जा सकती पेट की आग,
परोसा जा सकता इसे
भूखे व्यक्ति की थाली में,
तो मैं इस बढ़ी हुई महँगाई में
गरीबों की झोंपड़ियों में गुड़मुड़ पड़े शरीरों को
क्षुधातृप्ति का थोड़ा-सा अहसास करवाना
ज़रूर पसंद करता।
उत्साह से भरा निकल पड़ता
कविता का थैला लेकर
किसी भूखे के पास जाकर कहता
कि ले यह एक ग़ज़ल खा ले
प्रत्येक शे'र का मर्म गले में उतार ले
प्याला भरकर गीत पी ले
अंतरे के आरोह-अवरोह को
घूँट-घूँट करके पीना
अछांदस कविताओं से अपनी आँतो को ठंडक पहुँचा दे
अपने अंग-अंग में सॉनेट का स्वाद पहुँचा दे ...
लेकिन जिनके पेट में दावानल जला है
ऐसे भूखे लोगों का
स्वाद से भला क्या लेना-देना?
स्वाद का आग्रह तो वे लोग रखते हैं
जिनकी जेबें भरी हों।
अपने दिल तो भरे हुए हैं
लेकिन पेट तो खाली हैं न!
गिद्ध की तरह टूट पड़ो मृत क्षणों पर
चोंच मार-मारकर सब बाहर निकाल दो
एकाध मुक्तक मिल जाए तो भी बहुत है
अरे कहीं से एक छोटा-सा हाइकु मिल जाये
तो संवेदना से भरा एकाध शब्द सुनाई दे
और जब तक कुछ न मिले
इसी के सहारे कुछ देर और टिका जा सके।
भूखे लोगों की कुम्हलाई आँखों को पढ़ते वक्त
एक ही पंक्ति पढ़ी जाती है
काश, कविता को खाया जा सकता
बुझायी जा सकती इससे पेट की आग।
भाषा
आकाश में ऊँचाई पर उड़ता बाज़
पलभर में तय कर लेता है मीलों की दूरी
पंख फैलाकर
सात समुंदर पार फटाफट पहुँच जाता है
मनचाही जगह पर।
लेकिन मेरी भाषा तो चिड़िया है!
चीं चीं चीं करते हुए
बमुश्किल पहुँच पाती है घर की छत तक
ये कैसे पार कर सकती है सात समुंदर
और पहुँच सकती है 'हाय', 'हेलो' का घोंसला बनाने वालों के देश में?
‘आई एम प्राउड ऑफ माय लैंग्वेज एंड माय लिट्रेचर’
इस भारी-भरकम वाक्य के नीचे
दब चुका है मेरा कमज़ोर वाक्य
‘मुझे मेरी भाषा के प्रति गर्व है’
स्कूल में किसी दुबले-पतले लड़के को
कोई मोटा लड़का दबा डाले
और दुबला-पतला लड़का कराहता रहे
बस वैसे ही कराहता है मेरा वाक्य...
हाँ, दो-चार लोग लाये थे मेरी भाषा को
संस्कृति के जंग लगे पिंजरे में बंद करके
पर पिंजरे से उसे बाहर निकालते, तब न!
चिड़िया तो पिंजरे में ही चीं चीं चीं करती रहती है।
लेकिन 'चीप', 'चीप' या 'चियर अप', 'चियर अप'
सुनने के आदी कान
भला कैसे सुन पायेंगे चिड़िया की चीं-चीं?
ग़लती से एक बार पिंजरा खुला रह गया
पर चिड़िया को पिंजरे की आदत पड़ गई है
अब वह बाहर नहीं निकलती
मुझे नहीं पता कि चिड़िया कहाँ है
कहीं वह आपके घर में तो नहीं है न?
चीं चीं चीं का तिनका चोंच में दबाये
छत तक उड़ने के लिए पंख फैलाती चिड़िया
कभी-कभार पंखे से, सॉरी 'फेन’ से टकराने पर
लहूलुहान होकर धप्प से नीचे गिर जाती है
बचपन में हम इसी तरह नीचे गिरी हुई चिड़ियों पर
लाल रंग का निशान लगाकर उड़ा देते थे
और फिर सबसे कहते थे-
"देखो इस चिड़िया को मैंने बचाया था..."
भाषा की ज़मीन पर ज़ख्मी पड़ी हुई
इस चिड़िया पर यह लाल निशान कौन करेगा?
स्टैपलर
स्टील जैसा चमकदार
लालरंग की पट्टी वाला
स्नेह की पिनों को अपने भीतर समाए हुए
बिखरे हुए संबंधों के काग़ज़ों को
स्टेपल करने वाला
एक स्टेपलर था मेरे पास
बिना काम के, उल्टे-सीधे स्टेपल हो गये संबंधों को
उखाड़ने के लिए
एक नुकीला भाग भी था इसमें
वह नुकीला भाग आजकल कुछ अधिक ही मुड़ गया है
कुछ भी ग़लत-सलत स्टेपल हो जाए तो
उखाड़ते नहीं बनता,
काग़ज़ों में पिन भी ठीक से नहीं लगती,
संबंध बिखर जाते हैं
फट भी जाते हैं
कभी-कभार हाथ में लग जाती है पिन
और उँगली से निकल आता है ख़ून
ख़ूब कोशिश की रिपेयर करने की
लेकिन ठीक नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ
थक-हारकर दुकान पर गया
रिपेयर करवाने के लिए
दुकानदार ने कहा :
"स्टेपलर को भला कौन रिपेयर करवाता है? बदल लो, दूसरा ले लो"
लेकिन यह स्टेपल मेरी छाती में है
और मैं अपनी छाती बदल नहीं सकता...।
आग
आग एक मार्ग है
आवन-जावन का
मेरे माता-पिता की देह में लगी किसी शरीरी आग ने
मेरे देह रूपी बीज को बोया था
पीड़ा की परम अग्नि में तपकर
मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया था
मेरे अंदर की आग ने ही
किसी स्त्री के प्रति मुझे आकर्षित किया था
दो बाँस की टकराहट से
जैसे सुलग उठता है पूरा जंगल
वैसी ही कोई आग सुलगी थी
मेरे अंदर भी।
दुःख, पीड़ा, निःश्वास की
अनेक चिंगारियों ने
मुझे एक चूल्हा साबित कर दिया है
कभी जलता हूँ
कभी सिंकता हूँ
लेकिन फिर भी चलता रहता हूँ
देखो वहाँ दूर-दूर
आग की धधकती ज्वाला
मेरी प्रतीक्षा कर रही है
मुझे अंतिम आलिंगन देने के लिए
मृत्यु अर्थात अग्नि-मिलन तो नहीं?
सॉरी
सुबह-सुबह जब सूर्य ने
अपना चूल्हा सुलगाया
तब हम जागते हुए, अपने
ठंडे चूल्हे के पास बैठे थे।
ऐसा नहीं है कि मुझे अच्छी नहीं लगतीं
ओस की मधुर बूँदें,
लेकिन सुबह के गर्भ से उत्पन्न यह ओस
नरम घास पर बैठकर
अपनी महान गाथा सुनाना शुरू करे
उसके पहले ही
मेरी माँ के हाथ में उभर आये छाले
अपनी कथा कहने लगते हैं,
ओस की बूँदें स्वयं को मोती सिद्ध करें
उसके पहले पैरों में पड़े हुए गूमड़े
ख़ुद को ‘कोहिनूर’ साबित कर चुके होते हैं,
‘सुबह कमल सरोवर में स्नान करते हैं’ इस कल्पना के वक़्त तो
हम धूल-मिट्टी और पसीने से लथपथ हो चुके होते हैं।
वंदन! धुंआधार बरसती बारिश के रुआब को
मैं दोनों हाथ जोड़कर वंदन करता हूँ,
लेकिन मुझे तो मूसलाधार बरसात में
सिर छुपाने के लिए आश्रय देते छप्पर की कल्पना अधिक प्रिय लगती है।
मुझे याद है
एक दिन कोयले की भट्टी में काम करते-करते
माँ जल गयी थी और
एक बड़े-से अर्द्ध गोलाकार फफोले के साथ-साथ
अनेक छोटे-छोटे छाले भी
उभर आये थे उनके हाथ पर
मुझे उसमें एक जला हुआ चाँद
और सैकड़ो बुझते हुए तारे नज़र आए
बस इतनी छोटी-सी (प्रकृति?) कविता ही रच सका था मन में...
मेरा कल्पनाशील चेहरा देखकर
माँ ने पूछा था—
“पेट भरा हुआ लग रहा है तेरा, कुछ खाकर आया है क्या?”
मैं चुप रहा
किस मुँह से बोलता कि
सेठ की भरपेट गालियाँ खाई हैं...
तुम जब धूप में नहाये हुए खेतों का
अद्भुत कल्पना चित्र प्रस्तुत करते हो,
तब मेरे पेट में पक रहा होता है
एक गीत का मुखड़ा कि
“पूरा आकाश एक धधकता चूल्हा और सूरज है एक गरम रोटी...”
तुम कहते हो,
“साँझ ढले सूरज कैसे अनोखे रंग बिखेरता है क्षितिज पर, है न?”
आई एग्री
लाख-लाख सलाम हैं सूर्य के केसरिया रंग को
किरणों की कूँची को!
लेकिन हमारे जीवन में अस्त हुआ सूर्य
मुझे क्षितिज पर रंगों की कल्पना नहीं करने देता...
मुझे तो उसमें अपनी माँ की माँग रुपी आकाश के
अस्त हो चुके सूर्य के कारण
पोंछे गये सिंदूर के
लाल-पीले दाग़ दिखाई देते हैं
जिन्हें मैं नहीं साफ़ कर पाता किसी भी पोंछे से…
प्रकृति निर्मित बहुत उंडी और गहरी खाई से भी अधिक गहरा लगता है
मुझे मेरे पेट का खड्डा
प्लीज ऐसा मत समझ लेना
कि मुझे प्रकृति से प्रेम नहीं है
लेकिन फिलहाल मैं
उस पर कोई कविता लिख सकूँ इस स्थिति में नहीं हूँ
सॉरी!
अनिल चावड़ा गुजराती भाषा के सुपरिचित कवि, लेखक और स्तंभकार हैं। गुजराती समाचार पत्र संदेश के लिए 2014 से उनका कॉलम ‘मन नी मौसम’ नियमित प्रकाशित। कविता, कहानी, निबंध और अनुवाद विधाओं में उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
पुरस्कार/सम्मान : शायदा पुरस्कार (2010), गुजरात साहित्य अकादमी का युवा गौरव पुरस्कार (2013), दिल्ली साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार (2014), रावजी पटेल पुरस्कार (2016)।
मालिनी गौतम कविता के साथ-साथ कहानी, ग़ज़ल, नवगीत एवं अनुवाद विधाओं में भी कार्य करती हैं । गुजराती, अंग्रेजी, मराठी, मलियालम, उर्दू, नेपाली, पंजाबी, बांग्ला आदि भाषाओं में कविताओं के अनुवाद हुए हैं।
पुरस्कार/सम्मान : परम्परा ऋतुराज सम्मान (2015), गुजरात साहित्य अकादमी पुरस्कार (2016, 2017), वागीश्वरी पुरस्कार (2018), जनकवि मुकुटबिहारी सरोज स्मृति सम्मान (2019), सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार (2021), सप्तपर्णी पुरस्कार (2023), अमर उजाला ‘भाषा बंधु’ शब्द सम्मान (2023)।
ईमेल : malini.gautam@yahoo.in
अद्भुत अनुवाद हैं। मालिनी का श्रम गुजराती दलित कविता को उसके मूल चरित्र के साथ हिंदी के पाठकों तक ले आया है।