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राग पूरबी : शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Mar 24
  • 9 min read



राग पूरबी 1


हाथियों की रहबर 

दादी हथिनी होती है  

ले जाती है उन्हें 

पानी और चारे वाली राहों 

और इलाक़ों तक


कोई एक मधुमक्खी 

सारे झुंड को बाग़ीचों और फूलों तक

पहुँचाती है 

      

एक चींटी के पीछे 

चल पड़ती है पूरी क़तार 

पीठ पर

अपने अंडे और खाना लाद


झुंड की अगुआ गाय 

लौटती है तो पीछे पीछे 

लौटते हैं

सब गाय बैल 


बंदरों का सरदार 

मार भगाता है दुश्मनों को 

बच्चे सुकून से 

झूलते रहते हैं माँओं की पीठ 

और पेट से 

माँएँ डालियाँ छलाँगती 

रहती है 


सब 

जानदारों का रहबर है 

जो उनके साथ रहता है 

मुश्किल वक़्तों में 


यहाँ तक कि सबसे बड़ा पेड़ भी 

अगुआ 

और ज़िंदा पुरखा है 

अपने 

जंगल का 


इधर 

हम भी चुनते हैं 

अपना रहबर 

और वो 

फिर दोबारा नहीं 

दिखता 

हमारे बीच 


बहुत दूर से 

हमें उसकी आवाज़ 

आती है 


जैसे सूखे कुएँ में 

लौट लौट आती हो 

हमारी 

अपनी ही हूक 


कहती हुई - 

         यहाँ पानी नहीं है 

         जाहिलो 

जाओ 

अब कोई और 

ठौर ठिकाना खोजो



राग पूरबी  2


मकड़ियों ने जाल बुना 

इंसानों के घरों के 

हर कोने में वे रहना चाहती थीं


हर चीज़ को 

ढाँपना चाहती थीं 

अपने रेशम से 

उनका रेशम बेहद चिपकदार 

हमारे कुछ 

काम का नहीं था


पुराने वक़्तों में 

जब इंसानों के पास कपास 

ज़्यादा था

ख़ुदा भी कुछ ज़्यादा था 


रेशम के कीड़े तब ख़ामोश

सोते थे शहतूतों पर 

वे सिर्फ़ पत्तियाँ चरते थे 

बैंगनी वह फल 

इंसानों के लिए छोड़ते थे 

बाद में 

इंसानों ने उनके अत्फ़ाल तक का 

खाना और सब रेशम

लूट लिया


इंसानों ने जो बुना हज़ारों बरस में 

इस दुनिया के इर्दगिर्द 

मकड़ियों के जाल से भी ज़्यादा 

घृणित 

और मज़बूत है 


मैं गिरगिट की तरह 

सिर उठा उठा इशारा करता हूँ 

ऐसे हर जाल की तरफ़ 


या रसूल 

क़ाबे से दूर इस पूरब में 

मैं भी 

एक न एक दिन मार दिया जाऊँगा 

पत्थर से

ज़िन्दगी की आख़िरी धूप सेंकते

किसी बेगुनाह 

पुराने गिरगिट की तरह 



राग पूरबी 3

(येहूदा आमीखाई और एडवर्ड वादी सईद को याद करते)


चरवाहे 

जिसे खोजते रहे मग़रिबी 

पहाड़ों पर 

वह मज़हब नहीं दो वक़्त की 

रोटी थी


फ़िलिस्तीन और इज़राइल 

सईद और आमीखाई 


दो चरवाहे

दोनों ने अपनी बकरियाँ खोयीं 

पहाड़ों पर 

और अपने बेटे भी


दो चरवाहे

दोनों के पास प्यास ज़्यादा थी

और पानी बहुत कम 


दो चरवाहे 

दोनों अपनी पथरीली ख़ुश्क 

ज़मीनों पर 

सोते और दफ़्न होते रहे 


और उन औरतों का 

तो मैंने अभी ज़िक्र ही नहीं 

किया 

जो लापता हो गईं उनकी इस 

दुनिया में 


उन बेबस बकरियों की तरह 

जिनके चरवाहे चाँदनी रातों में 

मुँह ढाँपे 

एक नामुमकिन 

जन्नत का ख़्वाब देखते थे 


किसे मालूम 

जो जिबह होती रहीं सैकड़ों बरस से 

उन पहाड़ों पर 

वे सिर्फ़ 

बकरियाँ ही थीं?



राग पूरबी 4


तेज़ बहते हुए पानी में 

आवाज़ पत्थरों और हवाओं की

वजह से थी 

मैं अपनी पूरबी में 

हहराना कहता था उसे 


पेड़ों में आवाज़ 

पत्तों और तेज़ चल रही हवाओं की 

वजह से थी

पेड़ भी हहराते थे 


जहाँ भी हवा थी

वहाँ हहराना था 


कभी कभी 

हहराने की आवाज़ डरा देती थी 


दुःख भी हहराते थे 

लेकिन मैं 

उनसे डरता न था 


उनमें 

बुरे वक़्तों की ताक़तवर 

हवाएँ थी 

और अच्छे वक़्तों की छीजती सी 

उम्मीद 


आज 

मैं दो ज़बानों और चार बोलियों में 

बात करता हूँ 


अपने दुखों की तरह हहराते हुए

तो सोचता हूँ 

कि कोई ज़बान 

कोई बोली तो समझेगा

निज़ाम 


निज़ाम ख़ुद आवाम से 

बाईस ज़बानों और अड़तीस बोलियों में 

बाढ़ पर आई 

नदियों की तरह हहराते हुए 

बात करता है 


पर समझता 

उनमें से एक को भी नहीं है।



राग पूरबी 5


इस निज़ाम में 

मेरे लिए 

कोई फ़ैसला नहीं था?


क़ाज़ी ने 

किसी और के फ़ैसले

मेरे नाम

मुंतक़िल किए 

मगर उनमें 

मेरे नाम के हिज्जे ग़लत थे 

और फ़ैसले के 

क़वाइद बिलकुल 

दुरुस्त 


मुझे कहा गया 

क़वाइद से चलो हिज्जे से 

नहीं


भूल जाओ 

तुम्हें क्या दिया गया है 

याद रखो

कैसे दिया गया है 


ज़िंदगी में 

जो कुछ भी मुझे नहीं मिला

मैंने याद रखा 

कि कैसे मिला


उधर

जो एक अदालत लगी है 

अजल से 

हम सभी के लिए 


वहाँ

मेरी फ़रियाद में मेरे नाम के 

हिज्जे 

बिलकुल सही हैं

लेकिन 

फ़रियाद के क़वाइद 

ग़लत


क्या वहाँ से भी मेरे नाम 

कोई 

फ़ैसला नहीं आएगा?



राग पूरबी 6


मशरिक़ में 

कुछ ज़मीनें अभागी थीं

कि उनकी फ़स्लें 

जोतने बोने वालों का पेट

नहीं भरती थीं


मग़रिब में 

कुछ लफ़्ज़ अभागे थे 

कि बीच राह में ही

गिर पड़ते थे उनके मानी 


जुनूब में एक आदमी 

अभागा

मंडी में झाड़न बटोरता 

रोज़ मर जाता 

और अगले रोज़ फिर 

आता था

अपनी झाड़ू लिए


शुमाल में 

बारिशें होतीं तो एक पहाड़ 

थोड़ा और ढह जाता 

एक गाँव थोड़ा और कट जाता 

दुनियादारी से 


इस सबके बीच

मेरे माथे का 

कुछ उजाला कम हो जाता 

इस इंतज़ार में 


मेरे चौतरफ़ा मुझे घेर कर

बैठी रही दुनिया 


इस 

ज़ुल्मत में भी 

जो भरपूर जीता रहा

कभी 

कम नहीं पड़ा

उसके हिस्से का 

उजाला 


अगले वक़्तों में कभी 

उसके 

न होने की आग 

लोगों के 

होने की आग से भी कहीं ज़्यादा 

देर तक 

दहकती रहेगी

सभी को बताती हुई 

कि आख़िर में 

सभी को रहना तो उसी संसार में है 

जहाँ आग, पानी और ख़ुश्बू 

साथ-साथ रहते हैं 


अब यह आप पर है

कि आप वहाँ

कितनी आग कितने पानी 

और कितनी ख़ुश्बू के 

साथ रहेंगे



राग पूरबी 7


मैं 

किन्हीं भी दिनों की 

बात करूँ

इन्हीं दिनों की बात 

करता हूँ 


इन्हीं दिनों की बात करूँ 

तो किन्हीं दिनों की 

बात करता हूँ 


कभी कभी 

मींड़ की लाग-डाट में ही 

दिखाई दे जाता है 

समूचा राग 


फिर ये राग तो मशरिक़ का 

ख़ास 

राग पूरबी है 


लाग-डाट के बीच 

जीता हूँ जिसे ज़िन्दगी के ठीक 

इन्हीं दिनों में 


यानी 

किन्हीं दिनों में 



राग पूरबी 8


हम 

चारागाहों में घोड़े दौड़ाते रहे 

हज़ारों बरस 

फिर उन्हें जंग के मैदानों तक

ले गए 

जहाँ हमारे साथ 

वे भी खेत रहे 


एक वक़्त आया 

जब इंसानी बस्तियों की तामीर में 

हमारे घोड़े 

बहुत पीछे छूट गए 

लेकिन 

हमारी गायें 

पीछे पीछे आयीं


पहाड़ों पर और रेगिस्तानों में 

भेड़ें और बकरियाँ भी शामिल थीं

रेवड़ों में 

चरवाहे अलगोझे और बाँसुरियाँ 

बजाते रहे 


धरती को जगाती हुई हवाओं में 

उनके सुर 

तरतीब पैदा करते थे


घोड़ों से नहीं 

गायों और भेड़ बकरियों से 

बसायी गई 

कुछ बाद की दुनिया 


और 

उनकी भी ज़रूरत कुछ ख़ास 

नहीं रही 


गायें अलबत्ता अब भी तशद्दुद के काम

आ जाती हैं मशरिक़ में 


उनकी 

आँखों में जो उमड़ती है ममता

ये बस उतने भर का 

मसला होता 

तो फ़साद न होते 


अरब में गायें होती थीं या नहीं 

मगर मशरिक़ में 

फ़साद बदस्तूर होते हैं 


किसी जानवर को भी माँ का 

ओहदा दे

यही तो ख़ास राग पूरबी है 

समझ नहीं आया 

इसका कोमल यह रिखब 

जिन्हें 

अब तक 

अनूठे इस देश में 

वे जाहिल

न तो 

इसकी मूसीक़ी से वाक़िफ़ हैं 

न सियासत से 


न माँओं से 

जो दरअसल गायों की तरह हैं 

ज़्यादातर घरों में 

न गायों से 

जो ज्यादातर आँगनों में और रास्तों पर 

माँओं की तरह हैं


गायों के रम्भाने 

और माँओं के मुस्कुराने से होने वाली 

सुबहों का सूरज भी

मशरिक़ से ही उगता है 

डूबता है 

मग़रिब में 


मैं निगाह रखता हूँ उन पर

जो उसे

शुमाल से उगाना और जुनूब में 

डुबो

देना चाहते हैं


मेरे आसपास रह रहे 

भले लोगो!

मैं कोई शाइर नहीं 

निज़ाम ए जम्हूरी में एक जासूस भर हूँ 

आप सब की आत्मा 

और अपनी ज़िन्दगी का 

जिसमें रोज़ रोज़ सूरज के उगने के 

बावजूद 

हनेरा बहुत है 



राग पूरबी 9


दुनिया में 

गुलाबों पर क़लम लगाने वाले लोगों के मुल्क 

कब कुल्हाड़ी बनाने वालों के 

मुल्क बन गए 

पता ही नहीं चला 


सबसे बड़ी मुश्किल तो

गुलाबों की थी

बीज से लगाने पर वे फूल नहीं पाते थे ठीक से 

उनमें रंगों की इफ़रात 

क़लमकारी की देन थी


वे बर्बरों, ब्योपारियों और मुसाफ़िरों के साथ 

ख़्वाहिश की किसी मट्टी में दबी

छोटी छोटी 

ठूँठ टहनियों की तरह आए

और ग़ैरमुल्कों में 

पनपकर बेइंतिहा महक उठे 


अपनी ज़मीनों से दूर

उनकी ख़ुश्बू 

ख़ुदा के आशियाने की ख़ुश्बू थी


अच्छा लगता है 

जब कभी कभार

मैं किसी मंदिर में चढ़ा देखता हूँ उन्हें

हालाँकि मंदिरों में उन्हें चढ़ाए जाने की

रवायत कम है 


क़लम लगाने वाले वे हाथ सलामत रहें 

और सलामत रहें ऐसी रवायात 

जिनमें 

क़त्ल ओ ग़ारत की 

बदबू नहीं 

ग़ुलाबों की ख़ुश्बू आती है 


आह 

मेरे फ़राख़दिल गुड़हलों के साथ खिले 

ये सुर्ख़ गुलाब 


कुल्हाड़ियों के शहंशाह 

जब दफ़न होंगे 

उनकी क़ब्र पर भी एक गुलाब 

मुस्कुराएगा 

एक गुड़हल उनके सिरहाने 

धरा जाएगा।



राग पूरबी 10


अरावली किसका है? 

इस मशरिक़ी मुल्क के 

इस मग़रिबी पहाड़ी सिलसिले का 

असल मालिक 

आख़िर कौन है ?


अरावली किसका है? 

इसके दर्रो में मशहूर थी हल्दीघाटी 

ख़ूँ से लबरेज रही बरसों 

ज़रख़ेज़ न हो पायी 


ख़ूनी दर्रे अरावली के 

किसके हैं? 


ख़ून से हरा नहीं 

भूरा लाल होता है ज़मीनों का रंग

ये बात किसान जानते थे 

सुल्तान नहीं


अरावली की तलहटियों में 

ज्वार, बाजरा, मकई की फ़सलें 

किसकी हैं? 


गुज़िश्ता बहत्तर साला सरकारों की 

बुनियाद में दफ़्न वोट किसके हैं? 


अरावली की पसलियों में घुसा हुआ

चाकू किसका है? 


सदर जब सोते हैं 

उन्हें 

मकई के खेतों में झगड़ते

गीदड़ों की 

आवाज़ नहीं आती? 


तशद्दुद जब चलता है 

अपने बनाए बियाबानों में 

गैंडों की तरह 

तो उसे दिखाई बहुत कम देता है 

मगर वो

औरों से ज़्यादा सुन सकता है


अरावली हिन्दोस्तान का 

सबसे पुराना पहाड़ है 

जिसमें अब मट्टी और चट्टानें कम 

आवाज़ें ज़्यादा हैं


जो फेफड़ा है अरावली का 

उस इदारे के बारे में 

मैं कुछ नहीं कहूँगा उसके अंदर 

अभी ताज़ा ख़ून बहा है 


झगड़े 

जो दर्रों से बाहर अरावली के 

माथे पर सज रहे हैं 

इन दिनों 


और मुहब्बत 

जिसमें डूबा ये शाइर 

एक पहाड़ की पसलियों से 

चाकू निकालने की 

मुसलसल कोशिश में है 


उन तमाम 

कोशिशों के ऊपर एक आवाज़ 

आती है 

अरावली किसका है? 


शुमाल के शाइर को क्या 

अख़्तियार 

कि वो मुल्क के मग़रिबी इदारों

या पहाड़ों के 

मसलों में दख़लन्दाज़ी करे?


क्यों न अपनी ही

किसी शुमाली झील में डूब मरे?



राग पूरबी 11


मग़रिब से बढ़ते चले आते थे

लश्कर 

और पहुँच कर ठगे से रह जाते थे 


देखते चौंककर 

प्रीत का दार उल ख़िलाफ़ा 

मशरिक़ में था

यहाँ असलहों के साथ आकर भी

आख़िर को 

निहत्था ही रह जाता था आदमी


बेपीर-ओ-बेहिस आप रह ही नहीं सकते थे 

मशरिक़ में 

आपको मुब्तला कर लेती थी ये

ज़रख़ेज़ सरज़मीं 


मैं एक सुल्तान का मक़बरा देखता हूँ 

जिसके अजदाद 

मग़रिबी थे 

जिसे मशरिक़ी मट्टी में पनाह मिली 


और पाता हूँ 

इस्लाम से भी कहीं पुराने लोग 

मग़रिब में थे 

और पुराणों से भी बहुत पुराना 

एक दिल मशरिक़ में 


उस दिल में जो फाँक सी

तवारीख़ ने बनाई है 

उसमें शाइरी की चंद किताबें रख दूँ 


इतना भर इक ख़्वाब पुरबिया 

मेरा है। 



राग पूरबी  12

(वास्ते गमलबानी) 


हम पुरबिया 

उजड़े बाग़ीचों वाले लोग थे 

घरों में गमले सजाते थे 


मशरिक़ी नदियों की याद 

हमारी देहरी पर कराहती थी

मग़रिबी सहरा की रेत

हमारी वीरानी में पनाह माँगती थी 


एक फूल हमारी नींदों में 

मुरझाता था 

तो बाहर दुनिया में 

हज़ार फूल खिल जाते थे


हम रोते थे 

हम गाते थे


हम रोते रोते गाते थे 


हम रोते थे कि 

कार ए नौहागरी मंसूब था 

हम पर


हम गाते थे 

कि हमारा अपना कोई 

नौहाख़्वाँ न था 


इस

ख़याल ए मशरिक़ ओ मग़रिब में हम 

ख़ुद दास्तान थे अपनी 


और दूर दूर तक कोई 

अहल ए दास्ताँ न था



राग पूरबी 13 


एक भुगता हुआ कल 

हमारे पीछे है 

और एक नामालूम कल 

हमारे आगे 


हम 

जो आज की बसासतों में 

रोशनी करने निकले थे 

अब हमारी रोशनी बस्तियों को

जलाने लगी है 


हमें न मशाल जलाने की 

तमीज़ थी

न उठाने की 


हमें तो 

अपने मुल्क का अँधेरा भी

ठीक ठीक 

समझ नहीं आता था 


जिन्होंने 

हमें उजाले बख़्शे 

वे हनेरों के 

ब्योपारी निकले


अश्क 

जो धुँए के कारण निकलते थे 

और जो उमड़ते थे

दिल में चंद ज़ख़्मों के 

टीसने से 


उनमें फ़र्क़ न कर पाना 

मग़रिब ओ मशरिक़ की नहीं 

इंसानियत के 

मरकज़े की हार है 


जिसमें हारने वाले 

बख़ूबी 

जानते हैं 


कि वो 

एक पसमांदा रोशनी के हाथ

अपनी ज़रख़ेज़ 

ज़मीनों का सौदा कर बैठे हैं 


यानी 

जन्नत के ख़्वाबों के हाथ 

दुनिया में 

अपनी बेहद ज़रूरी कुछ 

नींदों का। 



राग पूरबी 14 


मशरिक़ में एक ईश्वर था अब नहीं रहा 

मग़रिब में एक अल्लाह को लोग कब का दफ़्न कर आए 


एक फूल दुःख की लपट में 

मेरी आत्मा की तरह झुलस गया है 

एक रिश्ता 

अंतिम अगनि में 

मेरी देह की तरह जल रहा है 


एक कवि मेरी तरह मर गया था 

यहाँ अब 

सिर्फ़ एक नागरिक बचा है 


एक शहर आज दिल्ली की तरह ढह रहा है 

कल वहाँ 

सिर्फ़ एक रजधानी बचेगी


कुछ लोग अब भी दुनिया में 

मेरा पता पूछेंगे 

जबकि मुझको मेरे मुहल्ले में ही कोई 

जानता नहीं है 


मतदान के बाद अँगुली पर लगी स्याही भी

इतनी जल्दी नहीं मिटती 

जितनी जल्दी मेरा ख़याल मिट जाता है 


रोज़ 

किसी न किसी पड़ोस में ढाढ़स बँधाने गया मैं 

मरा हुआ बैठा रहता हूँ 

चटाई पर

और मेरा हाल पूछती रहती है

सामने पड़ी मृत देह


जिस पर एक अदद लकड़ी 

या एक मुट्ठी मट्टी डालना 

मुझ पर 

फ़र्ज़ बताया गया है। 






शिरीष कुमार मौर्य प्रतिष्ठित कवि-आलोचक हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं— ‘पहला क़दम’, ‘शब्दों के झुरमुट’, ‘पृथ्वी पर एक जगह’, ‘जैसे कोई सुनता हो मुझे’, ‘दन्तकथा और अन्य कविताएँ’, ‘खाँटी कठिन कठोर अति’, ‘ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम’, ‘साँसों के प्राचीन ग्रामोफ़ोन सरीखे इस बाजे पर’, ‘मुश्किल दिन की बात’, रितुरैण, आत्मकथा, धर्म वह नाव नहीं, ‘सबसे मुश्किल वक़्तों के निशाँ’ (स्त्री-संसार की कविताओं का संचयन), ‘ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम’ (पहाड़ सम्बन्धी कविताओं का संचयन, सं. : हरीशचन्द्र पांडे) (कविता); ‘धनुष पर चिड़िया’ (चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं के स्त्री-संसार का संचयन), ‘शीर्षक कहानियाँ’ (सम्पादन); ‘लिखत-पढ़त’, ‘शानी का संसार’, ‘कई उम्रों की कविता’ (आलोचना); ‘धरती जानती है’ (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद की किताब सुपरिचित अनुवादक अशोक पांडे के साथ), ‘कू-सेंग की कविताएँ’ (अनुवाद)। उन्हें प्रथम ‘अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार’, ‘लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘गिर्दा स्मृति जनगीत सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है। ईमेल : shirish.mourya@gmail.com


2 Comments


Guest
Mar 27

बहुत अच्छी कविताएँ हैं। गोल चक्कर को शुभकामनाएँ

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Guest
Mar 25

शुक्रिया गोल-चक्कर

  • शिरीष मौर्य

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