हिन्दी साहित्य में विकलांग विमर्श
- golchakkarpatrika
- Mar 12
- 21 min read
Updated: Mar 14

इक्कीसवी सदी में 'विकलांग विमर्श' ठीक उसी तरह स्थापित हो रहा है जैसे कभी स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श ने दस्तक दी थी। जब हम विकलांग-विमर्श की बात करते हैं तो कहना होगा कि आधुनिक आलोचकों को संस्कृत-साहित्य या पौराणिक-साहित्य से अलग एक नयी दृष्टि से विचार करना होगा। साहित्य के संदर्भ में बात करें तो दो तरह की विकलांगता दिखाई देगी जो साहित्य का हिस्सा बनती रही हैं— शारीरिक-विकलांगता और यौन-विकलांगता। शारीरिक-विकलांगता में विकलांगता अधिनियम २०१६ की सरकारी गाइडलाइन की विकलांगता श्रेणी को समाहित माना जा सकता है तो यौन विकलांगता में थर्ड-जेंडर से लेकर यौन-क्रियाओ में अक्षम व्यक्ति को रखकर देखा जा सकता है। यहाँ इस लेख में विकलांगता-विमर्श में शारीरिक-विकलांगता पर चर्चा का उद्देश्य है जिसे निशक्तजन-विमर्श भी कहा जा सकता है।
पूरे विश्व में विकलांगो की संख्या पंद्रह प्रतिशत या उससे कुछ अधिक है, तथापि साहित्य में उनके लिए स्थान नगण्य ही है। पौराणिक-साहित्य में देखें तो कुछ सशक्त पात्रों का ज़िक्र आता है। यथा– रामायण काल में मंथरा, अष्टावक्र; महाभारत काल में कुब्जा, धृतराष्ट्र, और जरासंध इत्यादि।
इधर मेरे ज़ेहन के आगे से कुछ कहानियाँ गुजरी हैं, जिन्हें विकलांग विमर्श की कहानियाँ कहा जा सकता है— महादेवी वर्मा कृत- 'अलोपी' और 'गुंगिया', स.ही. वात्सयायन अज्ञेय कृत- 'खितीन बाबू', विष्णु प्रभाकर कृत संस्मरणात्मक कहानी- 'नेत्रहीन', डॉ इंद्र बहादुर कृत- 'हेलन केलर की आत्मकथा' । इसके साथ ही प्रेमचन्द के उपन्यास रंगभूमि का पात्र सूरदास तथा श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास रागदरबारी का पात्र- लंगड़। इन सब रचनाओं में विकलांग पात्रों का चित्रण या तो सहानुभूति की तरह होता है या फिर नकारात्मकता के रूप में। इस बात को समझने के लिए एक शोध को देखते हैं— पूजा यादव “हिंदी साहित्य में विकलांग पात्रों का प्रतिनिधित्व” विषय पर डॉ. स्नेहलता निर्मलकर के निर्देशन में शोध करती हैं। वे अपने शोध के अब्स्त्रेक्ट (Abstract) में लिखती हैं- “विकलांग-पात्रों का प्रतिनिधित्व हमेशा साहित्य में पाया गया है, चाहे मौखिक हो या लिखित। सामान्य पात्रों के साथ वे कहानियों में अपने स्वयं का स्थान बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन, ऐसे पात्रों के लिए काल्पनिक स्थान या स्थिति कभी भी अन्य मानक पात्रों के समान नहीं होती है। उन्हें मानदंडों की दुनिया की परिधि में जीवित रहने वाले सामान्य पात्रों के लिए विरोधात्मक रूप से या व्युत्पन्न के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उनका अस्तित्व के प्रति नज़रिया हमेशा मुख्य पात्रों के रूप में या खलनायक के रूप में कार्य करने के लिए रहता है। विकलांगता को अक्सर बुराई से लैस किया जाता है और नकारात्मक रूप से चित्रित किया जाता है।“
पूजा यादव का यह शोध साहित्य में विकलांगता के प्रतिनिधित्व के विभिन्न पहलुओं को देखता है। साहित्य की उत्पत्ति के बाद से कहानियों को विकलांग या विकृत पात्रों के साथ निवेशित किया गया है। लेखक अपने स्वार्थ/निहित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु बहरे, गूंगे, अंधे या लंगड़े चरित्रों का कथानक में प्रवेश कराता है।
पूजा यादव अपने शोध में कहती हैं- “ऐसे विकलांग पात्रों ने हमेशा सक्षम चरित्रों के लिए दूसरी भूमिका निभाई है जब तक कि कहानी एक जीवनी नहीं है, जैसे 'द स्टोरी ऑफ माय लाइफ', हेलेन केलर या जोनी एरेक्सन द्वारा बनाई गई है, जहाँ विकलांगता का सकारात्मक कथा की दुनिया में, विकलांग पात्रों को उनकी असामान्यता या विकृति को प्रदर्शित करने या ग़लत तरीके से प्रस्तुत करने में सक्षम शरीर की सामान्यता और शुद्धता के उच्चारण में उनके औचित्य का पता चलता है, जिससे वे सामान्य मनुष्यों के बजाय रूढ़ियों के रूप में कम हो जाते हैं। साहित्य में विकलांग पात्रों के ऐसे नकारात्मक चित्रण हमारी स्मृति में लम्बे समय तक बने रहते हैं, जब तक हम कहानी को भूल नहीं जाते।”
आगे वे कहती हैं— बोवे के अनुसारः ‘‘इन और अन्य पात्रों की हमारी यादें अक्सर अमिट हो जाती हैं, वास्तविक जीवन में विकलांग व्यक्तियों के साथ होने वाले कोई भी अनुभव हमारे लिए अगम्य है। कहीं न कहीं हमारे दिमाग़ के पीछे हम विकलांगों को पाप, बुराई और ख़तरे से जोड़ते हैं” (1978): 109). इसलिए हम उनके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। सामाजिक असमानता से लड़ने के लिए, उपचार हेतु, चिकित्सीय या चिकित्सीय दृष्टिकोण से विकलांगता का इलाज करना पर्याप्त नहीं है। एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक घटना के रूप में विकलांगता को समझने और उसकी जाँच करने की आवश्यकता है।”
असल में यह बात विचार करने योग्य है कि कैसे विकलांगता के ख़िलाफ़ साहित्य और संस्कृति के अनेक रूपों के माध्यम से पूर्वाग्रह को कायम रखा जाता है? जबकि “विकलांगता को मैं एक साहित्यिक निर्माण के रूप में देखता हूँ, जो एक समाज के भीतर इसका अर्थ ढूंढता है और सांस्कृतिक संदर्भ में भी अर्थ ढूंढता है।” शारीरिक अथवा मानसिक अक्षमता को हम विकलांगता के रूप में देखते हैं। यह व्यक्ति के मन में जितनी निराशा उत्पन्न करती है या हीनता की भावना भरती है, उससे कहीं अधिक समाज उसे इस कदर मजबूर करता है कि वह व्यक्ति या तो अकर्मण्य एवं आलसी हो जाता है, या स्वयं को बोझ की तरह समझने लगता है। वह अनीश्वरवादी हो जाता है। लेकिन उपयुक्त वातावरण एवं सम्यक् प्रेरणा-प्रोत्साहन मिलने पर अक्सर देखा गया है कि वह उपलब्धियों के शिखर तक भी पहुँचा है। इतिहास में अनेक उदाहरण है— दीर्घतमा, अष्टावक्र, शुक्राचार्य, जायसी, सूरदास, राणा सांगा, रणजीत सिंह, विनोद कुमार मिश्र, रवींद्र जैन, सुधा चंद्रन, राजेन्द्र यादव, वल्लतोल, प्रभा साह, अंजली अरोड़ा, रितु रावल, बाबा आम्टे, होमर, मिल्टन, बायरन, वाल्टर, स्काट, मार्सेल प्राउस्ट, हेलेन केलर, थाॅमस अल्वा एडीसन, लुई बेल, स्टीफन हाकिंग्स, लारा ब्रिजमैन, फ्रेंकलिन डिलानों रूज़वेल्ट आदि जिन्होंने विकलांगता के बावजूद उपलब्धियाँ हासिल की हैं, जिसका कारण यह रहा कि उन्होंने अपनी भीतरी शक्ति को पहचाना और उसे क्रियाशील बनाने के सचेष्ट प्रयास किये।
हिन्दी कहानी और उपन्यासों में विकलांग-पात्रों की चर्चा बीसवीं सदी में होने लगी थी। डॉ. विनय कुमार पाठक के सम्पादन में एक संकलन आया- ‘विकलांग विमर्श की कहानियाँ’, जिसमें कुल सत्रह कहानियाँ हैं– महादेवी वर्मा 'अलोपी' में पात्र अलोपिद्दीन के प्रति कोई संवेदना उत्पन्न नहीं कर पाईं अपितु वे लिखती हैं- अलोपी के नेत्र नहीं थे, इसी से सम्भवतः वह न प्रकृति के रौद्र रूप से भयभीत होता था और न ही उसके संदरी से बहकता था। जबकि मनोवैज्ञानिक तथ्य बताते हैं कि नेत्रहीन होने पर अन्य इन्द्रियां इतनी संवेदशील हो जाती हैं कि वह मन, त्वचा, नाक, कान इत्यादि से आँखों का काम लेते लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखिका नेत्र-विकलांगों के बारे में उतनी समझ नहीं रखती हैं जिससे कहानी इनके प्रति संवेदना व्यक्त कर पाये। उनकी दूसरी कहानी 'गुंगिया' ज़रूर थोडा-बहुत विमर्श छोडती हैं। गुंगिया ने वाणी के अभाव को मानो समझदारी से भर लिया था... बहू गूंगी है, उसके बाप ने सबको ठग लिया, इसे गहने छीनकर निकाल दो... गॉंव वालो ने गूंगी माँ का सन्तान पालन देखकर दाँतों तले अँगुली दबाई। यहाँ महादेवी वर्मा विकलांग विमर्श को छूने भर की कोशिश करती प्रतीत होती हैं लेकिन कहानी के अधिकांश अंश पढ़कर लगता है मानो विकलांग पात्र मात्र सहानुभूति के लिए हैं। यही हाल अज्ञेय की कहानी 'खितीन बाबू' का है। मालूम पड़ता है कि लेखक की जिज्ञासा खितीन बाबू के खाने की रुचि के बखान में अधिक है, बिना हाथ के ज़िन्दगी के संघर्षों पर लिखना उनकी संवेदना का हिस्सा नहीं है। विष्णु प्रभाकर तो 'नेत्रहीन' कहानी में सब ईश्वर की इच्छा पर छोडकर इतिश्री कर देते हैं। ‘हेलन केलर की आत्मकथा’ से डॉ. इन्द्र बहादुर सिंह एक गूंगी, बहरी और अंधी विकलांग स्त्री के संघर्ष की दास्तान लिखकर संवेदना जगाने का काम करते है। १९३९ में निराला ने अपने संस्मरणात्मक उपन्यास ‘कुल्ली भांट’ में यौन विकलांग जीवन के चित्र को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। यौन विकलांगों को केन्द्र में रखकर कई साहित्यिक कृतियाँ लिखी गईं, जिनमें से शिवप्रसाद सिंह की ‘बहाव वृत्ति’ और ‘विंदा महाराज’, पारु मदन नाइक का ‘मैं क्यों नहीं’, नीरज माधव का ‘यमद्वीप’, प्रदीप सौरभ की ‘तीसरी ताली’, निर्मला भुराडिया का ‘गुलाम मंडी’, महेन्द्र भीष्म की ‘किन्नर कथा’, अनसूया त्यागी का ‘मैं भी औरत हूँ’, बांग्ला कहानीकार कमलेश राय की ‘द्रौपदी’, पंजाबी कहानीकार एस. बलवन्त की ‘मृगतृष्णा’, गिरिजा भारती का ‘अस्तित्व’, डॉ. लवलेश दत्त की ‘नवाब’, ‘नेग’ तथा ‘तराजू’, लता शर्मा की ‘कहीं भी नहीं है जो’ तथा साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘पो.बा.नं. २०३ नाला सोपरा’ को देखा जा सकता है। पहली ट्रांसजेंडर प्राचार्य मानवी वंद्योपाध्याय की आत्मकथा ‘पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन’ तथा ट्रांसजेंडर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ‘मी हिजडा मी लक्ष्मी’ में उनके जीवन संघर्ष के चित्र देखे जा सकते हैं।
“लहरों के पूर्व रंग” विकलांग विमर्श की कहानियों का एक संग्रह है जिसमें तीन अलग-अलग पीढ़ियों की कहानियाँ हैं। इसमें शामिल गीताश्री की कहानी एक रेप विक्टिम, मिरगी के दौरे की पीड़ित कम उम्र लड़की के मनोभाव, उसकी माँ की पीड़ा की गाथा कहती है। जले चेहरे, मिरगी से पीड़ित बालिका की शादी इस कहानी का केन्द्रीय बिन्दु है। गीताश्री की कहानी “माई री मैं टोना करिहों” पाठक को समाज के प्रति चौकन्ना करती है और विमर्श को विकलांगता के विस्तृत दायरे तक ले जाकर सोचने पर विवश करती है। तेजेन्द्र शर्मा की कहानी “मुझे मार डाल बेटा” के केन्द्र में अधरंग का शिकार हुए पिता और एक आज्ञाकारी पुत्री के मोह का फलक है। जहाँ पिता कहता है– "प्लीज किल मी माई सन..."।
दिलीप की कहानी 'अकथ कहानी प्रेम की' का पात्र एक शारीरिक रुप से कमज़ोर व्यक्ति है जो मानवीयता के स्तर पर सामान्य जन से अधिक सशक्त है। दिलीप इस कहानी के माध्यम से मानव तस्करी, लड़कियों के दैहिक शोषण, ग़रीबी, कर्ज़ जैसी विकराल समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित कराते हैं। झिंगुली का दारा के प्रति समर्पण इस कदर है कि विकलांगता यहाँ आकर गौण हो जाती है, यह समाज के बने-बनाए मापदण्ड से इतर कीर्तिमान स्थापित करती है। कहानी यह भी इंगित करती है कि ग़रीबी, शोषण से निकली नारी विकलांग पति के प्रति अधिक समर्पित हो सकती है। दीप्ति गुप्ता की कहानी 'लग्न' का विवरण 'जीवन दीप' संस्था के उद्देश्यों को पूरा करते हुए उसके अभीष्ट तक पहुँचाता है। यह विकलांग विमर्श की ज़रूरत को पूरी करती कहानी जान पड़ती है।
धीरेन्द्र अस्थाना 'चीख' कहानी से ऐसा खाका खींचते हैं जो वर्षों तक ज़ेहन में उस चीख को कायम रखेगा। एक मानसिक विकलांग पात्र की परिवार में अहमियत को दर्शाती इस कहानी में माँ का बेटे से कहना कि पिता की जगह... "इससे तो अच्छा था कि तू मर जाता।" बेटे के प्रतिवाद को जन्म देता है। घर छोड़ने पर माँ का पश्चाताप, भाई का बीड़ी माँगने का प्रकरण दोहराना, भाभी का कहना– "जैसा भी था, पर मेरा तो बहुत काम करता था, पानी भरता... गेहूँ पिसाना..." "कितनी दिक्कतें हो गई हैं उसके न रहने से" यह सब हर व्यक्ति की महत्ता को दर्शाता है। ममता कालिया ने 'राजू' कहानी के माध्यम से विकलांगता को अपशगुन के तौर पर देखने के समाज के नजरिये की ओर ध्यान आकर्षित किया है। वे माँ की आँख की दवा की जगह टिंचर आयोडीन आँख में डालने की ग़लती से दृष्टि जाने की चूक के माध्यम से सचेत भी करती हैं। वहीं बालमन अपशकुनिया शब्द माँ से सुनकर समझता है कि जैसे यह ख़ुद बुरी बात है। अक्सर विकलांग बच्चे अपने अंग-भंग की गाली सुनने के अभ्यस्त हो जाते हैं, लेकिन समाज का रवैया जस का तस रहता है। डॉ. उषा किरण खान 'हे पालन हारे' कहानी में घेघा से पीड़ित ग़रीब लड़की की दास्ताँ बयान करती हैं। घेघरी लड़की का यौन शोषण विकलांग बच्चियों की पीड़ा की समस्त गाथा से अवगत करा जाता है। 'किराए का इन्द्रधनुष' कहानी में सूरज प्रकाश टीपू का किरदार इस प्रकार गढ़ते हैं कि पाठको के सामने एक मूक बधिर पात्र न होकर एक उपेक्षित नवयुवक है जो ममता, प्यार, दुलार के अभाव में वह सब करना चाहता है जो एक व्यस्क होते बच्चे के लिए उचित नहीं। वे कहानी का अन्त वेश्यागमन की घटना से मातृत्व के भाव पर करते हैं। यह कहानी हमें विकलांग बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी के लिए आगाह करती है।
सीमा सिंह की 'नयनतारा' कहानी संघर्ष और जिजीविषा की अनूठी दास्तान कहती है। सूर्यबाला की 'सुनंदा छोकरी की डायरी' मुम्बईया स्टाइल की सहज कहानी है, जिसमें विकलांग पिता का चरित्र इतना सहज होकर उभरता है कि पाठक विस्मित हुए बिना नहीं रहता। इस कहानी का कहन इसकी बड़ी ताकत है। रश्मि रविजा में नफीसा के चरित्र को ख़ूब मेहनत से तराशा निखारा है। एक होनहार ग़रीब परिवार की छात्रा का हादसे में हाथ कटने के बाद उसमें जीवन संघर्ष के बाद पैरा एथलीट बनने की अनूठी दास्तां निस्सन्देह प्रेरणादायी है।
संदीप तोमर की कहानी 'पागल ही था वो' को पढकर लग सकता है मानो कुछ कहानियाँ लिखी नहीं जाती, अलबत्ता हालात और परिस्थितियाँ स्वयं कहानी के रुप में उपस्थित हो जाती हैं। इस कहानी की रचना आकस्मिक घटना से विकलांग हुए पुरुष के अर्श तक पहुँचने की संघर्ष गाथा है।
हिन्दी लघुकथा में विकलांगता विमर्श इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ही आया। हिन्दी लघुकथा में 'विकलांगता' को विषय बनाकर कुछ कथ्य रचे ज़रूर गए हैं लेकिन इधर गंभीर काम देखने में नहीं के बराबर ही आता है। अधिकांश लेखन में रचनाकार का मंतव्य 'भावनात्मक सपोर्ट' देकर अवसर भुनाने सरीखा ही दिखाई देता है। योगराज प्रभाकर द्वारा सम्पादित 'लघुकथा कलश' के प्रथम अंक में डॉ पुष्पा जमुआर का एक लेख है- 'हिंदी-लघुकथा में नि:शक्त विमर्श', जिसमें वे दुनिया में दो तरह के प्राणियों- सकलांग और विकलांग का ज़िक्र अर्थ के साथ करती हैं। दरअसल यह विभाजन ही भ्रामक है। यहाँ ‘प्राणी’ शब्द भी भ्रम की स्थिति उत्पन्न करता है। जितने भी शरीरधारी हैं, उनको प्राणी कहा जाता है। बात यह समझ आती है कि वे यहाँ मनुष्य की बात कर रही हैं लेकिन मनुष्य भी दो तरह के ही नहीं हैं। तुलसी तो भांति-भांति के लोग बता गए हैं। आगे वे विकलांगों की तीन श्रेणियों का ज़िक्र करती हैं- शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकलांग। यह विभाजन भी उतना ही भ्रामक है जितना मनुष्य को दो श्रेणियों में बाँटना। लेखिका का मूल उद्देश्य हिन्दी-लघुकथा में नि:शक्त विमर्श है तो इस तरह के भ्रामक विभाजन से बचा जा सकता था।
विकलांग-विमर्श पर एक और विमर्श की आवश्यकता है। जैसे दलित-विमर्श पर सवाल होता है कि दलित द्वारा लिखा साहित्य और दलितों पर लिखा साहित्य, दलित-विमर्श में क्या अधिक महत्वपूर्ण है। यही सवाल विकलांग-विमर्श के साथ भी है— विकलांग द्वारा लिखा साहित्य और विकलांगों पर लिखा साहित्य। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दोनों संदर्भो में अर्थ बदल जाते हैं, संवेदना का स्तर बदल जाता है। अधिकांश विकलांग-विमर्श की लघुकथाओं को पढने पर यह बात साफ़ स्पष्ट होती है कि दलित-साहित्य की ही तरह यहाँ भी अगर अपवादों को छोड़ दें तो विकलांग द्वारा और विकलांग-पात्र के माध्यम से लिखी रचनाओं में संवेदना का स्तर भिन्न होता है। उदाहरण के लिए दो पुस्तकों का हवाला दिया जा सकता है- डॉ. अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’ के सम्पादन में सन 2008 में लघुकथा संकलन 'विकलांग' प्रकाशित हुआ जिसमें कुल उन्तालीस लघुकथाओं को सम्मिलित किया गया। संपादक की स्वयं की रचनाएँ भी इस संकलन में है। 2008 में ही राजकुमार निजात का संग्रह 'उमंग, उडान और परिंदे' प्रकाशित हुआ। ऐसी ही एक पुस्तक जनकराज शर्मा द्वारा संपादित 'दिव्यांगजन में सामाजिक चेतना' भी प्रकाशित हुई। डॉ राजकुमार निजात के चर्चित लघुकथा-संग्रह 'दिव्यांगजगत की 101 लघुकथाएं' पर आधारित इस आलोचनात्मक कृति में प्रो रूप देवगुण, डॉ दर्शन सिंह, ज्ञान प्रकाश पीयूष, डॉ शील कौशिक, आशा खत्री, अनिल शूर आज़ाद, डॉ राधेश्याम भारतीय, डॉ आरती बंसल तथा दिलबाग सिंह विर्क आदि जाने-माने लेखकों के महत्वपूर्ण आलेख एवं विषयानुकूल चवालीस लघुकथाएं संयोजित की गई हैं।
डॉ. अब्ज लघुकथा 'स्वाभिमान' में एम्प्लोयर के कटाक्ष “दोनों पैर कटे हैं फिर भी आपको नौकरी पर रखा, रहना, खाना दिया.... ।” के प्रतिउत्तर में कथा-नायक से कहलवाते है– “शरीर से विकलांग हूँ, दिमाग़ से नहीं, श्रम बेचता हूँ, स्वाभिमान नहीं।” यह जो प्रतिउत्तर है, वह कथा-नायक को सहानुभूति के पात्र के रूप में न रखकर उसके सशक्त विचार के रूप में प्रस्तुत करता है जबकि निजात की रचना “उमंग, उडान और परिंदे” में एक तस्वीर के मध्यम से एक कृत्रिम माहौल तैयार किया गया है। पात्र उमंग उडान को तस्वीर देते हुए कहती है- “....उस चित्र में मैं नहीं स्वयं तुम हो।” उड़ान चित्र देख उसमें ख़ुद को खोजती है। मानो वह ऊँचाई को माप रही हो। यहाँ रचना में जो चित्र खिंचा है वह एक कृत्रिमता पैदा करता है, जिसे मैं सहानुभूति का नाम देता हूँ। अंग्रेज़ी शब्दों का सहारा लूँ तो इसे सिम्पेथी और इम्पेथी के अंतर के रूप में देखा जाना चाहिए। यह मूल अंतर है विकलांग द्वारा विकलांग विमर्श और विकलांग पर विमर्श में। मैं यहाँ दो अलग-अलग कथाओं के दो संवाद रखता हूँ, जिन्हें दो अलग-अलग कथा-लेखक विकलांग पात्रों के हवाले से लिखते हैं, जिनके माध्यम से मेरी बात और अधिक स्पष्ट हो जाएगी। पहला संवाद- “...हम शरीर से विकलांग हैं पर दिल से नहीं।” दूसरा संवाद – “.. श्रम बेचता हूँ स्वाभिमान नहीं।”
विकलांग-विमर्श पर “स्वाभिमान” शीर्षक से दो और रचनाकारों सतीश राज ‘पुष्करणा’ और राजेन्द्र त्रिवेदी ‘बंधु’ की लघुकथाएं मिलती हैं। सतीश राज ‘पुष्करणा’ की रचना में ट्रेन में विकलांग लड़के द्वारा खीरा बेचने, कड़वा खीरा निकलने पर दूसरा खीरा ख़रीदने को कथानक के रूप में लिया गया है। विकलांग लड़के के माध्यम से लेखक कहता है- “बाबू, मुझे सहानुभूति का नहीं, श्रम और ईमान का पैसा चाहिए।” यहाँ लेखकीय दायित्व का पूर्ण निर्वाह किया गया है, वहीं राजेन्द्र त्रिवेदी 'बंधु' की रचना में एक नेत्रहीन विकलांग पात्र है जो मूंगफली बेचता है, दूसरा एक पैर से विकलांग पात्र है जो भीख माँगता है। लघुकथा को पढ़कर प्रतीत होता है कि लेखक स्वयं के उपदेशक होने के मोह में जकड़े होने के चलते एक कृत्रिम माहौल तैयार करता है (कथानक बुनता है)। पात्रों के माध्यम से भीख माँगना छोड़ मेहनत करने के लिये उपदेशात्मक संवाद पर कथा खत्म होती है। -“भगवान ने तुम्हें दो आँखें दी हैं, तुम तो कुछ भी कर सकते हो।“ लगता है लेखक ने दूर से अलग-अलग विकलांगता से ग्रसित व्यक्तियों को देखा भर हैं, उनकी परेशानियों, उनके संघर्षों को आत्मसात नहीं किया है। अगर विकलांगता श्रेणी का तुलनात्मक रूप से देखें तो अध्ययन बताते हैं— जीवन-यापन के स्तर पर अस्थि-विकलांग का जीवन दृष्टि-विकलांग से अधिक कष्टमय होता है। यहाँ मेरा मत स्पष्ट है कि लघुकथा लेखक को कथानक, पात्र के चयन और संवाद-संरचना से पहले उस विषय में पूर्ण और गहन जानकारी हासिल करने की आवश्यकता है। तुलनात्मक रूप से माधव नागदा की लघुकथा 'विकलांग' अधिक सशक्त रचना है। नागदा साहब कथा का आरम्भ लंगडे भिखारी के बैसाखी के सहारे भीख माँगने से करते हैं। भिखारी एक साइकिल की दुकान पर जाकर गुहार लगाता है। सेठ और भिखारी के बीच भीख माँगने को लेकर लेखक संवाद स्थापित करता भिखारी के यह कहने पर कि “भगवान ने मेरी एक टाँग न छीन ली होती तो मैं भी आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता”। सेठ इस मुँहफट भिखारी को ज़्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझाता और उसे भीख देने के लिए विचार करके गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढने लगाता है। भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक जाता है परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लेता है.....। कुर्सी पर बैठकर ‘राज करने वाले’ की दोनों टाँगें घुटनों तक गायब थीं। यह लघुकथा सार रूप में यहाँ प्रस्तुत करने का उदेश्य सही रूप में तुलना करके रचनाकर्म का निर्वाह करने की ओर इंगित करना है। लेकिन विकलांग-विमर्श कथा के बाद शुरू होता है। जैसा कि हमने लघुकथा के मानक तय कर लिए— लघुकथा लेखक एक क्षण विशेष के माध्यम से अपनी बात कह देता है। वहाँ किसी पात्र की पृष्ठभूमि जानने/समझने की फुरसत और इजाज़त दोनों रचनाकार को नहीं है। विकलांग-विमर्श रचना के बाद और रचना के पहले रचनाकार की तैयारी पर केन्द्रित है। उक्त रचना के संदर्भ में मेरा विश्लेषण है कि उदर पूर्ति के लिए विकलांग व्यक्ति बहुत लाचार स्थिति में भिक्षा कर्म करेगा, नागदा साहब ने दोनों पात्रों की आर्थिक स्थिति को कथानक में सम्मिलित नहीं किया, बहुत सम्भव है कि दोनों पात्रों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में पर्याप्त अंतर है, एक पैर से विकलांग व्यक्ति के पास अगर आर्थिक रूप से तंगी न हो तो निश्चित ही वह अपने स्वाभिमान को छोड़ भिक्षाकर्म की ओर उन्मुख नहीं होगा। माना यह भी जाता है कि विकलांगो में संवेदना का स्तर सामान्य जन से अधिक होता है, ऐसा कई तरह के मनोवैज्ञानिक शोध से भी प्रमाणित होता है। अत: स्वाभिमान के प्रति वे अधिक सचेत होते हैं।
२०१४ में मधुकांत (अनूप बंसल) का लघुकथा संग्रह- 'हौसला' प्रकाशित हुआ जिसे उन्होंने ‘नि:शक्त जीवन की लघुकथाएँ’ कहा। संग्रह में कुल तिरेपन लघुकथाएँ हैं। भूमिका में वे कहते हैं- “...यह विषय मेरे लिए अछूता था, यह कार्य मुझे अभिनव और चुनौतीपूर्ण लगा, चिन्तन किया और लघुकथाएँ लिखनी प्रारंभ की... निशक्त प्राणियों से अपनापन घनिष्ट हो गया।” यह भूमिका भी एक तरह का भ्रम उत्पन्न करती है, मानो लेखक बिना पानी में उतरे तैरने के सिद्धांत प्रतिपादित करना चाहता है। क्या चिंतन से विकलांग-विमर्श सम्भव है? यही अंतर है सहानुभूति और स्वानुभूति में। हालांकि कुछ रचनाएँ अवश्य ही पाठक को झकझोरती हैं। इन रचनाओं को संवेदनात्मक रचनाएँ तो कहा ही जा सकता है। अन्य लेखक/लेखिकाएँ भी इस विषय पर या तो संवेदना साबित कर रहे हैं या उपदेशक बने हैं।
डॉ रामकुमार घोटड़- 'अपंग मसीहा', प्रद्युम्न भल्ला- 'अपाहिज', शैलेश दत्त- 'आरक्षण', पुष्पलता– 'अंधे का स्वाभिमान' जैसी अनेक रचनाएँ हैं जिनके शीर्षक चयन में भी लेखक को मेहनत की ज़रूरत नहीं महसूस हुई। इनके स्थान पर अन्य उपयुक्त शीर्षक सुझाये जा सकते हैं लेकिन लेखक चूँकि संवेदनाओ का व्यापार करते हैं इसलिए उन्हें वही शब्द चयन करने हैं जिनसे अधिकांश विकलांग परहेज़ करते हैं। शकुन्तला शर्मा ने 'करगा' लघुकथा के माध्यम से अवश्य ही विकलांग-विमर्श को छूने का प्रयास किया है।
डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र की रचना 'साहसिक कदम' की नायिका एक दृष्टिबाधित प्रोफेसर से विवाह करने का संकल्प लेती है। माँ के विरोध के बावजूद नायिका अपने फैसले पर अडिग है। कारण स्पष्ट है कि नायिका दहेज़ प्रथा से पीड़ित है, अत: कथा नायिका प्रोफेसर को विकल्प के तौर पर चुनती है। समाज में अनेक उदाहरण हैं जहाँ लड़कियों ने पढ़े-लिखे नौकरीपेशा विकलांग व्यक्ति का विवाह के लिए चयन दहेज़ में माता-पिता के अक्षम होने या उक्त व्यक्ति के आर्थिक स्तर को देखकर किया, जबकि किसी पुरुष द्वारा विकलांग लड़की का चयन मानवीयता के स्तर पर किये जाने के उदाहरण हैं। अपनी बात की पुष्टि के लिए एक अन्य रचना का जिक्र करना चाहूँगा, डॉ पुष्प जगुआर की लघुकथा 'वरदान' की नायिका पोलियोग्रस्त व्यक्ति से शादी करती है। यहाँ लेखिका ने एक संवाद नायिका और उसकी सहेली के बीच स्थापित किया है- “वो तो ख़ुद से चल नहीं सकता, तुम्हारे साथ जीवन-डगर पर कैसे चलेगा?” नायिका का प्रत्युत्तर लेखिका ने कुछ यूँ लिखा है- “उसके पैर पोलियोग्रस्त हैं हिम्मत नहीं। उस रोज़ यह अपाहिज न होता तो आज मैं कुँवारी माँ बनकर विधवा का जीवन जीने को मजबूर होती। निखिल जो मेरा प्यार था वह ही अपने दोस्तों के साथ मिलकर मेरी इज़्ज़त खाक कर देता, अगर यह अपाहिज वक़्त पर साहस के साथ मेरी रक्षा न करता।... वो अपाहिज मेरी अस्मिता के लिए वरदान है।” रचना का यही भाग है जो लेखिका, नायिका और समाज की तमाम उन नायिकाओं की मंशा पर सवाल खड़ा करता है जहाँ विकलांग व्यक्ति को विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। उक्त संवाद से स्पष्ट होता है कि नायिका को न ही उक्त कथा नायक से प्रेम है, न ही उसके प्रति संवेदना है। मात्र एक ताना-बाना बुनकर सनसनी पैदा करने से न ही लेखिका को ख्याति मिलेगी, न ही नायिकाओं में नायक के प्रति सहज प्रेम का प्रस्फुटन होगा। इस विषय पर समाज को अधिक सजग होने की आवश्यकता है। दरअसल, हम अपनी आगामी पीढ़ी का सामाजीकरण, उनकी परवरिश जिस माहौल में, जिस विमर्श की भाषा के साथ करते हैं, उसका उनके विचारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। लिहाजा हमें विमर्श की भाषा को समाज में विकसित करने की जरूरत है। लेखक भी मूलतः उसी समाज से आता है, उसकी परवरिश भी उसी समाज में होती है, वहीं से लेखक कथानक चयन करता है, तो लेखक से अधिक संवेद्नायुक्त होने के बावजूद इस तरह की ग़लतियाँ होना स्वाभाविक है। हालांकि अनेक रचनाएँ विकलांगता को हिम्मत देने के उद्देश्य से सामने आती रही हैं या विकलांगो के प्रति समाज के उपेक्षापूर्ण रवैये पर भी रचनाएँ लिखी गयी हैं जो एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। उदाहरण के लिए संदीप तोमर की रचना 'दरियादिली' प्राची पत्रिका के सितम्बर २०१८ अंक में देखी जा सकती है। उक्त रचना की नायिका एक समाज सेविका है, जो एक विकलांग व्यक्ति से विवाह सिर्फ़ समाज में ख़ुद को महान दिखाने के उद्देश्य से करती है लेकिन असल जीवन में वह पति के साथ कटाक्षपूर्ण भाषा में बात करती है। उक्त रचना में शीर्षक चयन में भी सावधानी बरती गयी है। जैसा कि देखने में आता है, विकलांग-विमर्श की रचनाओं में अधिकांश लेखक असावधानी बरतते पाए गए हैं। बकौल वीरेंद्र वीर मेहता- समाज में दिखावे के आयोजन और उस पर आदर्शवाद का ढोंग करने वाले लोगों पर बहुत करारा कटाक्ष है इस रचना में।
आलोक कुमार सतपुते की लघुकथा 'विकलांग' एक विकलांग के मनोविज्ञान पर आधारित है, हालांकि शीर्षक को लेकर आलोक भी असावधान ही दिख रहे हैं लेकिन विकलांग विमर्श पर विधान और संवेदना के लिहाज से उक्त रचना को पढना आवश्यक है– अपनी व्हील चेयर पर बैठा वह विकलांग अपने भविष्य की कल्पना कर डर-सा गया। असुरक्षा की भावना के चलते उसकी साँसें किसी धौंकनी की तरह चलने लगीं। थोड़ा सामान्य होने पर वह सोचने लगा– काश! वह भी आम लोगों की तरह ही जी पाता। आम लोगों की ही तरह दौड़ पाता। सोचते-सोचते उसे अपनी असमर्थता पर क्षोभ होने लगा। चिड़चिड़ाहट सी हावी होने लगी उस पर, तभी उधर से एक लड़का गुज़रा। उस विकलांग को उससे अभिवादन की अपेक्षा थी, पर उसके अभिवादन न करने पर उसने उस लड़के को बुलाकर फटकार लगायी, इस पर वह लड़का मुस्कुराता हुआ चला गया। इस पर उसकी चिड़चिड़ाहट और बढ़ गयी। उसने अब ख़ुद को नियंत्रित किया, पर विचारों की दीमक को वह अपना दिमाग़ चाटने से नहीं रोक पाया। वह फिर सोचने लगा– क्या कमी है आख़िर उसमें? रोगग्रस्त होने पर भी उसने एक संघर्षपूर्ण पढ़ाई पूरी की। वह तो इन कथित स्वस्थ लोगों से लाख दर्जा अच्छा है। इस बात का अहसास होते ही उसमें नयी स्फूर्ति का संचार हुआ, और कुछ देर बाद अपने आसपास से गुज़रते हुए लोगों की ओर उपेक्षा से देखते हुए वह बड़बडाया– साले सारे के सारे मानसिक विकलांग हैं।
जून २०२० में लघुकथा शोध पीठ ‘भोपाल’ की दिल्ली इकाई ने वेबिनार स्टाइल में एक गोष्ठी आयोजित की, जिसमें आलोचक की भूमिका के लिए मेरे पास तीन रचनाएँ आई, शिवानी खन्ना- 'जज़्बा', मृणाल आशुतोष- 'रहबर' और डॉ कुसुम जोशी- 'मुझे इजाज़त नहीं'। जज़्बा का कथानक कौन बनेगा करोडपति का सेट है, जिसके एक हिस्से पर रचना बुनी गयी है। रचना का नायक रमीज़ अपनी माँ से कहता है– "एक बात बताओ अम्मी, अगर ये लड़की अपाहिज नहीं होती तो भी तुम इसके लिए दुआ माँगती?" अम्मी ने गौर से रमीज़ को देखा। वह पुन: कहता है- "इसके जज़्बे को सलाम करो अम्मी। इसकी अपाहिजगी पर तरस मत खाओ।" यही वह संवेदना है जिसे विकलांग-विमर्श की रचनाओं में तलाशा जाना चाहिए। बहुत ही लचर कथा-विन्यास के बावजूद यह रचना इन दो पंक्तियों के कारण महत्वपूर्ण हो जाती है। 'रहबर' में मृणाल ने हालांकि बहुत कुछ अतिरिक्त लिख दिया है जिसकी लघुकथा में बहुत आवश्यकता नहीं थी, तथापि यहाँ लेखक ने एक मार्मिक दृश्य उपस्थित करते हुए परिवार की परिभाषा को नए सिरे से कहने की कोशिश की है। यह रचना दया से बाहर आकर प्रेरणा की रचना बनी है। कथा-नायक यानि नरेटर को “झुग्गी पहुँचते ही आठ-दस अपंग-दिव्यांग बच्चे दिखे। कोई पढ़ रहा था तो कोई सुन रहा था। कोई खेल रहा था तो कोई खा रहा था। दोनों दोस्तों को चाचा में भगवान नज़र आने लगा कि अपनों से ठुकराया हुआ दिव्यांग कैसे आज परायों का रहबर बना हुआ है!” उक्त रचना का सबसे कमज़ोर पक्ष यह रहा कि दिव्यांगों का रहबर बनने वाला पात्र (चाचाजी) भीख माँगते दिखाया गया है। इतना स्वाभिमानी पात्र कुछ रोज़गार तो कर सकता है लेकिन भीख नहीं माँगेगा।
'मुझे इजाज़त नहीं' की नायिका अपनी स्थिति पर आत्मविश्लेषण करती दर्शायी गयी है– “मुझे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की इजाज़त न तो अपना मन देता, न अपना समाज, न परिवार”। बालकनी की रेलिंग का सहारा ले कर खड़ी नायिका सोच रही है– कैसे एक बार माँ ने डाट लगाई थी कि "बिना बैसाखी के क्यों खड़ी हो... कहीं गिर-विर पड़ी तो... लेने के देने पड़ जायेगे"। परिवार की अति संवेदना में अक्सर विकलांग बच्चों को ऐसे शब्द, ऐसे वाक्य सुनने की आदत हो जाती है। समाज में विकलांग बालिका को प्रेम का कितना अधिकार है, उस पर लेखिका ने लिखा– पर माँ की बात का अर्थ मैं जानती हूँ ...माँ को शक है कि "आज कल मेरा मन कुछ भटक रहा है"... जब भी बालकनी में जाने के लिये टोकती है तो उनकी आवाज़ भर्रा जाती है, कई बार घुमा-फिरा कर वे कह चुकी है कि "मुझे अपनी कमी का भान होना चाहिये"... नायिका सोच रही है– “पर क्या करूँ? मेरी विकलांगता भी मेरे दिल को धड़कने से रोक नहीं पाती..." इस रचना में संवेदनाएं हैं, समाज की मनोविकृति है, मनोविज्ञान है, विकलांग-विमर्श का यथार्थ है। रचना का अंतिम वाक्य इस कथन की पुष्टि करता है– आज पहली बार अपने आप से... अपने मन से... और लोगों से घृणा महसूस कर रही थी, मन चीख-चीख कर कह रहा था "तुझे किसी को चाहने की इजाज़त नहीं... इजाज़त नही"...।
गिरीश पंकज की लघुकथा- 'दिव्यांग और मंत्री' देखिये– वे मंत्री थे। जनता के प्रतिनिधि। एक दिन उनके घर कुछ दिव्यांग पहुँचे और कहने लगे, "हमारी मदद कीजिए। काम दिलाइए।" मंत्री जी भड़क गए, "तुम लूले-लंगड़े लोग कुछ काम करते नहीं और आ जाते हो मदद माँगने। भागो यहाँ से।"
दिव्यांगजन मायूस होकर लौट आए और मंत्री जी एक अनाथ आश्रम का उद्घाटन करने रवाना हो गए। उनके कई कार्यक्रम थे। उन्हें बड़ी जल्दी थी इसलिए कार ज़्यादा तेज हुई, लेकिन आगे जाकर असंतुलित होकर पलट गई। दुर्घटना में मंत्री की जान बच गई लेकिन वे हमेशा-हमेशा के लिए लंगड़ाकर चलने पर मजबूर हो गए। अब वे किसी दिव्यांग को लूला-लंगड़ा नहीं कहते।
उक्त रचना को पढ़कर आप पाएंगे कि कथा-नायक मंत्री मानसिक रूप से जितने दरिद्र हैं उतनी ही दरिद्रता से कुछ लेखक भी ओतप्रोत है। यानि कुछ लेखक चाहते हैं– हल्दी लगे न फटकड़ी (फिटकरी), रंग भी चोक्खा होए। इस मानसिकता के साथ लेखक लिखते ही है, उनके जीवन में भी कथनी-करनी का अंतर साफ़ झलकता है। एक ब्लॉग पढ़ा था, जिस पर डॉ. क.ख.ग. अपने आलेख ‘हिंदी लघुकथाओं में दिव्यांगता का चित्रण’ में दिव्यांगों को लेकर साहित्य में हुए कार्य का वर्णन करते हैं। वे दृढ इच्छाशक्ति पर भरोसा करते हुए लिखते हैं – “यदि कोई व्यक्ति जीवन में कुछ करना चाहता है, तो वह अपने आत्मबल एवं इच्छाशक्ति के बल पर कर गुजरता है। दिव्यांगता ऐसी स्थिति में आड़े नहीं आती।” (पृ. 21)। मुझे लगता है ये सब कथनी और करनी में अंतर का मामला है। मुझे याद आता है एक कार्यक्रम में एक विकलांग-लेखक को बतौर अध्यक्ष आमंत्रित किया गया लेकिन उनकी उपस्थिति के बावजूद उक्त कार्यक्रम बिना किसी अध्यक्ष के संपन्न होता है। आदरणीय डॉ. साहब अपने आलेख के पठन के समय कितने ही लघुकथा लेखकों (नवोदितों सहित) के नाम गिनाते हैं (कुछ तो ऐसे भी जिन्होंने उक्त विकलांग-लेखक से लघुकथाएँ संशोधित कराई) लेकिन वे दिव्यांग श्रेणी के आगंतुक के नाम का ज़िक्र उस आलेख में नहीं करते। इतना ही नहीं आयोजको से आमंत्रित अध्यक्ष से आलेख को पढ़वाने से भी मना करते हैं, समय कम होने की दुहाई देकर। समझा जा सकता है कि उपरोक्त कथन जो दिव्यांगों को लेकर दिया गया है उसमें कितनी सच्चाई है?
लघुकथा विधा में जितनी रचनाएँ मैंने पढ़ी या मेरी नज़रों के सामने से गुजरी, उनमें सबसे सशक्त ‘सुभाष नीरव’ की रचना- 'विकलांगता' को मैं कह सकता हूँ। लेखक ने रचना की भूमिका में एक प्रकाशक के सुपुत्र के विवाह के उपलक्ष्य में दी गयी पार्टी का दृश्य क्रिएट किया है। जहाँ छोटे-बड़े प्रकाशकों, पत्रकारों, लेखकों का अच्छा-खासा जमावड़ा है। चार-पाँच मित्र एक टेबल पर कब्ज़ा करके वार्तालाप कर रहे हैं, जहाँ व्यंग्य और कटाक्ष का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है। विकलांग-विमर्श जहाँ से शुरू होता है वह अंश यहाँ प्रस्तुत है :
"अरे, आजकल ये महाशय, युवा लेखक कौशल पर फिदा हैं।” प्रताप ने मुँह खोला।
"वो लंगड़ा..." संजय बोला।
"हाँ। अपने-आप को वो जाने क्या समझता है! और ये महोदय आए दिन उसे झाड़ पर चढ़ा रहे हैं।" अनुपम ने होंठ टेढ़े किए।
"उसका लिखा साहित्य भी लंगड़ा ही है, मैंने पढ़ा है। साहित्य की दौड़ में ये टहल-कदमी ही कर सकता है, ज़्यादा दूर नहीं जा सकता। थक-हांफ कर जल्द ही बैठ जाएगा, देखते रहना।" प्रताप ने अपने अंदर इकट्ठा हुई कुंठा की बलगम को अपनी कुर्सी के पीछे एक पौधे की जड़ में दे मारा।
सुभाष नीरव की यह विशेषता है कि वे हर संवाद चबा-चबा कर लिखते हैं। रचना पढकर प्रतीत होता है मानो वे स्वयं रचना में एक साथ दो भूमिकाओं में उपस्थित हैं— पहली भूमिका पार्टी आयोजक की और दूसरी भूमिका कथा के एक दमदार पात्र राजेश की। लेखक रचना के इस हिस्से में प्रत्युत्तर में लिखता है– राजेश अभी तक चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, कुछ बोल नहीं रहा था। पर अब उसके लिए वहाँ बैठ पाना कठिन हो गया। वह कुर्सी पर से उठा और सबके चेहरों पर बारी-बारी अपनी एक निगाह डालकर बोला, "सुनो, काग़ज़ पर कलम को चलना होता है, टांग को नहीं।"
रचना के अंत में लेखक मात्र रचना के पात्रों को जवाब नहीं देता बल्कि समाज में रुग्ण मानसिकता के उन तमाम लोगो को जवाब देता है जो किसी विकलांग व्यक्ति/लेखक के बारे में कलुषित मानसिकता का परिचय देते हैं, "उसका शरीर विकलांग है, कलम नहीं। पर, तुम लोग दिल, दिमाग और कलम... हर फ्रंट पर विकलांग लगते हो। घिसटते रहो यूँ ही अपनी विकलांगता के साथ...।" कहकर वह मुड़ा और खाने-पीने के स्टाॅल्स की ओर बढ़ गया।
इस रचना का इसका सबसे सबल पक्ष वह कथा-नायक है जो कथा में सबसे सशक्त पात्र है जबकि वह स्वयं उपस्थित नहीं है, सबसे बढ़िया बात यह कि कथा-नायक उस पार्टी में न होकर भी सबकी आँखों की किरकिरी है और लोगों में एक चिढ़ के चलते आलोचना का केंद्र बिंदु है। यह लेखक और उसके पात्र की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
लघुकथा विधा के लेखकों को और अधिक सचेत होकर सोचना होगा। तब अवश्य ही निःशक्त चेतना के प्रति साहित्य की यह सच्ची सेवा-भावना होगी। शारीरिक अक्षमता के बावजूद यदि उन पात्रों के मन में कुछ करने की आकांक्षा है तो लेखकों को उस आकांक्षा को खोजना होगा। उनके व्यक्तित्व से समाज में अनुकरणीय एवं प्रेरक जो भी प्रसंग हैं, उनका विश्लेषण करना होगा। और साथ ही भाषा के स्तर पर अधिक सचेत होना होगा, समाज में और स्वयं में विमर्श की भाषा का विकास करना होगा तभी हम सही मायने में विकलांग-विमर्श में सक्षम हो पाएंगे। ध्यान रखिये, लेखक समाज में होने वाले परिवर्तन के प्रति अधिक जवाबदेह है।
सन्दीप तोमर कवि और गद्यकार हैं। 4 कविता संग्रह, 4 उपन्यास, 2 कहानी संग्रह, एक लघुकथा संग्रह, एक आलेख संग्रह सहित आत्मकथा प्रकाशित। पत्र-पत्रिकाओं में सतत लेखन।
ईमेल : gangdhari.sandy@gmail.com
%20(3).png)

